वर्ष 1993 में, एक बांग्लादेशी लेखिका ने, जिन्हें अपने मुल्क में लोकप्रिय होने के बावजूद बाहर ज़्यादा लोग नहीं जानते थे, अपना चौथा उपन्यास प्रकाशित किया. इस उपन्यास में एक ऐसे हिन्दू परिवार की कहानी थी, जिसका बांग्लादेश के प्रति लगाव उस साम्प्रदायिक हिंसा की वजह से कम होता चला गया, जिसका सामना उन्हें करना पड़ा. यह उपन्यास 'लज्जा' दुनियाभर में बेस्टसेलर बना, लेकिन अपने ही वतन में इस पर पाबंदी लगी.
'लज्जा' उन हिन्दुओं के बारे में था, जिन्हें बांग्लादेश में किए जा रहे धार्मिक अत्याचार के चलते भागकर भारत जाना पड़ा, लेकिन वास्तव में जिसे मुल्क से बचकर भागना पड़ा, वह इस उपन्यास की मुस्लिम लेखिका तसलीमा नसरीन थीं, क्योंकि हज़ारों कट्टरपंथी उन्हें मौत की सज़ा दिए जाने की मांग को लेकर सड़कों पर उतर आए थे. सो, तसलीमा नसरीन, एक मुसलमान, भी धार्मिक अत्याचार की उतनी ही शिकार हुईं, जितना तसलीमा के उपन्यास में वर्णित काल्पनिक हिन्दू परिवार हुआ था.
जब (केंद्रीय गृहमंत्री) अमित शाह ने बुधवार को राज्यसभा में नागरिकता संशोधन विधेयक (CAB) को पेश किया, उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि भारत में किसी तसलीमा नसरीन के लिए स्थान नहीं होगा. उन्होंने कहा, "पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के शरणार्थियों को भारत की नागरिकता नहीं दी जा सकती..." हालांकि इससे पहले उन्होंने यह भी कहा, "भारतीय मुस्लिमों को डरने का कोई कारण नहीं है..."
भारतीय मुस्लिमों को शाह द्वारा दिया गया आश्वासन खोखला क्यों महसूस होता है...? एक कारण तो यह है कि भारतीय नागरिकता को लेकर (प्रधानमंत्री नरेंद्र) मोदी और अमित शाह का दृष्टिकोण CAB में बेहद साफ-साफ नज़र आता है. इस दृष्टिकोण के अनुसार, 1947 में भारत का विभाजन धार्मिक आधार पर हुआ था - मुस्लिमों ने पाकिस्तान ले लिया, और हिन्दुओं को भारत मिला.
भारतीय इतिहास को लेकर मोदी-शाह का दृष्टिकोण हमें यह बताने से चूक जाता है कि सिर्फ भारत का ही नहीं, पाकिस्तान का जन्म भी सभी धर्मों को समानता के विचार से हुआ था. 11 अगस्त, 1947 को पाकिस्तान की संविधान सभा में दिए भाषण में मोहम्मद अली जिन्ना ने कहा था, "पाकिस्तान में आप अपने मंदिरों में जाने के लिए आज़ाद हैं, आप अपनी मस्जिदों में या किसी भी अन्य पूजास्थल पर जाने के लिए आज़ाद हैं... आप किसी भी धर्म अथवा जाति अथवा संप्रदाय के हो सकते हैं - इससे देश का कोई लेना-देना नहीं होगा..."
कभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संरक्षक रहे लालकृष्ण आडवाणी ने जून, 2005 में जिन्ना के मकबरे के दौरे में इसी भाषण को याद किया था, और पाकिस्तान के संस्थापक को 'हिन्दू-मुस्लिम एकता का दूत' करार दिया था. बेशक, हम जानते हैं कि 1948 में जिन्ना की मौत के कुछ ही महीने बाद पाकिस्तान ने इस्लामिक गणराज्य बनने की दिशा में पहला कदम बढ़ा दिया था, जब (पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री) लियाकत अली खान ने घोषणा की थी, 'पूरी कायनात पर सिर्फ अल्लाह की ही हुकूमत है...' (समूचे ब्रह्मांड पर सिर्फ ऊपर वाले का ही शासन है...)
मुद्दा यह है कि लाखों-करोड़ों मुसलमानों ने पाकिस्तान का चुनाव उसके इस्लामिक राज्य बन जाने से पहले किया था. यह भी कहा जा सकता है, वे उस देश में महफूज़ महसूस करते थे, जहां मुस्लिम बहुतायत में थे, लेकिन वे ऐसा मुल्क नहीं चाहते थे, जिसकी बुनियाद इस्लाम पर टिकी हो. ऐसे मुस्लिमों को भी धार्मिक अत्याचार का शिकार होने पर भारत लौटने का उतना ही हक था, जितना उन हिन्दुओं को था, जिन्होंने तक्सीम के बाद पाकिस्तान में ही बसे रहने का फैसला किया.
तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में यह बात और भी ज़्यादा मज़बूती से सामने आई. बांग्लादेश के गठन ने इस विचार को चुनौती दी कि उपमहाद्वीप में बसे मुस्लिमों ने एक नया देश गठित किया है. बंगाली मुसलमानों ने तय किया था कि उनकी राष्ट्रीयता का आधार भाषा होगी, और वे पंजाबी और सिंधी मुसलमानों से कतई अलग हैं.
दरअसल, भले ही बांग्लादेश का 1972 में बना आईन (संविधान) अल्लाह का ही आह्वान करने से शुरू होता है, लेकिन वह खुद को 'राष्ट्रवाद, समाजवाद, लोकतंत्र' और 'धर्मनिरपेक्षता' के प्रति वचनबद्ध बताता है. वर्ष 1977 में ज़िया-उर-रहमान ने 'धर्मनिरपेक्ष' लफ़्ज़ को संविधान से हटा दिया था, और उसके कई साल बाद 1988 में जनरल इरशाद ने बांग्लादेश को इस्लामिक गणराज्य घोषित किया था.
अब बहस के लिए कहा जा सकता है कि तसलीमा नसरीन सरीखे ऐसे लाखों बांग्लादेशी मुस्लिम हैं, जो अपने मुल्क के धार्मिक रास्ते पर चल निकलने से अत्याचार का शिकार हुआ महसूस करते हैं. ऐसे लोग शर्तिया चाहेंगे कि उन्हें भारत जैसे किसी धर्मनिरपेक्ष देश की नागरिकता हासिल हो सके. नागरिकता संशोधन विधेयक इस तरह की किसी भी संभावना को पूरी तरह नकार देता है, उसके औचित्य तक को पहचानने से इंकार कर देता है.
अगर समझा जाए, तो CAB के मुताबिक, भले ही मुस्लिमों ने माना था कि पाकिस्तान और बांग्लादेश धर्मनिरपेक्ष होंगे, लेकिन उन्होंने चुनाव 1947 में ही कर लिया था. दूसरी तरफ, हिन्दुओं को आज भी यह चुनने का हक है, क्योंकि भारत प्राकृतिक रूप से हिन्दुओं का घर है. उनके साथ-साथ पांच अन्य धर्मों के लिए भी दरवाज़े खोले गए हैं, जिनमें से तीन तो हिन्दू पर्सनल लॉ के तहत ही आते हैं.
यही बात इसे असल में भारत के भीतर बसे अल्पसंख्यकों से जुड़ा बना देती है, भले ही यह बिल मोटे तौर पर भारत से बाहर बसे अल्पसंख्यकों से जुड़ा है. CAB का मूल ही यह प्रतीत होता है कि हिन्दुओं के विपरीत भारत मुस्लिमों का प्राकृतिक घर नहीं है. यह ढका-छिपा संदेश है कि जिन मुस्लिमों ने पाकिस्तान के मुकाबले भारत को चुना था, उन्हें बर्दाश्त भले ही कर लिया जाएगा, लेकिन यह उनका देश नहीं है.
देशव्यापी NRC के अमित शाह के वादे से भी इसी भावना को बल मिलता है. इससे भारतीय मुस्लिमों में डर पैदा होता है, भले ही वह काल्पनिक हो या वास्तविक, कि NRC के ज़रिये उन्हें नकार दिया जाएगा, और उनकी नागरिकता छीन ली जाएगी. दूसरी तरफ, जो हिन्दू किसी वजह से NRC की चपेट में आ जाएंगे, उनके पास धार्मिक अत्याचार का शिकार होने का दावा कर नागरिकता को फिर हासिल करने का विकल्प बना रहेगा. लेकिन मुस्लिमों के पास ऐसा विकल्प नहीं होगा.
पूर्वोत्तर राज्यों में आबादी का एक बड़ा हिस्सा मानता है कि CAB दरअसल बांग्लादेशी हिन्दुओं की उनके राज्य में मौजूदगी को कानूनी जामा पहनाने की चाल है, खासतौर से उन्हें, जो असम में चलाए गए NRC के पहले दौर की चपेट में आ चुके हैं. इसी वजह से पूर्वोत्तर जल रहा है. अगर यह आग समूचे भारत में फैली, तो हमारा पूरा सामाजिक ताना-बाना तहस-नहस हो जाएगा.
ऑनिन्द्यो चक्रवर्ती NDTV के हिन्दी तथा बिज़नेस न्यूज़ चैनलों के मैनेजिंग एडिटर रहे हैं...
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