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This Article is From Apr 18, 2025

पहाड़ के सुख-दुख, संघर्ष और सौंदर्य का दस्तावेज 'चलें साथ पहाड़'

हिमांशु जोशी
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अप्रैल 18, 2025 16:08 pm IST
    • Published On अप्रैल 18, 2025 16:07 pm IST
    • Last Updated On अप्रैल 18, 2025 16:08 pm IST
पहाड़ के सुख-दुख, संघर्ष और सौंदर्य का दस्तावेज 'चलें साथ पहाड़'

अरुण कुकसाल की पुस्तक 'चलें साथ पहाड़' उत्तराखंड के पहाड़ों की गूंजती आवाज को शब्दों में पिरोने का एक सार्थक प्रयास है. सम्भावना प्रकाशन से प्रकाशित यह किताब सिर्फ यात्रा वृत्तांत नहीं, बल्कि पहाड़ के सुख-दुख, संघर्ष और सौंदर्य का दस्तावेज है. देवेंद्र मेवाड़ी द्वारा लिखी गई भूमिका इसकी पहचान को और मजबूती देती है. मेवाड़ी ने पहाड़ के उस द्वंद्व को उजागर किया है जो पर्यटकों को चकित करता है और स्थानीय लोगों को जीवनभर संघर्ष में डालता है. दिनेश दानू का वह सवाल "आप पहाड़ देखते हैं, हम इनमें रहते हैं" पुस्तक के हर पन्ने में गूँजता है.  

यात्राओं का सफर और पहाड़ की सच्चाई

लेखक ने उत्तराखंड की दस यात्राओं के जरिए पहाड़़ी जीवन की परतों को खोला है. शिव की परण्यस्थली मध्यमहेश्वर से शुरू होकर केदारनाथ की त्रासदी तक का यह सफर पाठक को पहाड़ की हर धड़कन से रूबरू कराता है. लेखक ने यात्राओं में मिले लोगों के संवादों को बिना किसी लाग-लपेट के पेश किया है. जैसे, जगत नामक खच्चर वाले का वाक्य "वन टू थ्री, तुम भी फ्री हम भी फ्री... बैठो!" , यह भाषा की सहजता पहाड़ के जीवन का असली रंग दिखाती है.  

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इतिहास, साहित्य और वर्तमान का ताना-बाना

कुकसाल ने पहाड़ की यात्राओं को सिर्फ भौगोलिक अनुभव तक सीमित नहीं रखा. वे राहुल सांकृत्यायन की यात्रा-दृष्टि और चंद्रकुंवर बर्त्वाल की कविताओं को याद करते हुए पाठक को साहित्यिक यात्रा पर भी ले जाते हैं. साथ ही, तिलाड़ीसेरा कांड जैसे इतिहास के उन पन्नों को खोलते हैं जिन्हें जानबूझकर दबा दिया गया. यह किताब बताती है कि कैसे यह कांड जलियांवाला बाग से भी बड़ा था, लेकिन 'स्थानीय होने' के कारण इतिहासकारों ने इसे उपेक्षित रखा.  

पहाड़ी बोली का मिठास और व्यवस्था पर करारी चोट
  
'दणमण' जैसे शब्द पुस्तक को स्थानीय स्वाद देते हैं, लेकिन लेखक का लहजा सिर्फ सुंदर दृश्यों का वर्णन करने तक नहीं रुकता. वे सरकारी उपेक्षा की पोल खोलते हैं. रानीखेत के गोदाम बने कॉलेज या पौंटी गाँव की बदहाली जैसे उदाहरण बताते हैं कि कैसे व्यवस्था ने पहाड़ की संस्कृति और शिक्षा को नष्ट किया है. हिमाचल और उत्तराखंड के विकास के अंतर को लेखक ने बखूबी रेखांकित किया है. सुंदरढुंगा जैसे इलाकों में पर्यटकों द्वारा प्रकृति को पहुँचाए गए नुकसान की कहानी पढ़कर मन विचलित हो जाता है.  

कमजोर पल और अधूरी छटपटाहट के साथ पहाड़ की आवाज बनी ये किताब

किताब में कुछ अंश जैसे कुत्ते-मुर्गे का संवाद थोड़ा बनावटी लगता है. यात्राओं का क्रम भी समयानुसार नहीं है, जिससे कहीं-कहीं भावनात्मक प्रवाह टूटता है. पर ये छोटी खामियाँ पुस्तक के मुख्य उद्देश्य रहे, पहाड़ की सच्ची तस्वीर पेश करने को कमजोर नहीं करतीं.  

लेखन के पहाड़ की आवाज को दिए है शब्द

'चलें साथ पहाड़' उत्तराखंड के इतिहास, संस्कृति और वर्तमान संघर्षों को समेटती एक जरूरी किताब है. यह न सिर्फ पर्यटकों के लिए गाइडबुक है, बल्कि उन नीति निर्माताओं के लिए आईना है जो पहाड़ को 'विकास' के नाम पर बेचने पर तुले हैं. लेखक ने पहाड़ की आवाज को शब्द दिए हैं. पढ़िए और महसूस कीजिए कि पहाड़ सिर्फ चोटियां नहीं, जीते-जागते लोगों की धड़कनें भी हैं.  

(हिमांशु जोशी उत्तराखंड से हैं और प्रतिष्ठित उमेश डोभाल स्मृति पत्रकारिता पुरस्कार प्राप्त हैं. वह कई समाचार पत्र, पत्रिकाओं और वेब पोर्टलों के लिए लिखते रहे हैं.)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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