विज्ञापन
This Article is From Oct 01, 2016

क्या इस देश में कम्‍युनिज्म में यकीन रखना भी अपराध है

Apoorvanand
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अक्टूबर 01, 2016 14:25 pm IST
    • Published On अक्टूबर 01, 2016 13:30 pm IST
    • Last Updated On अक्टूबर 01, 2016 14:25 pm IST
पिछले दस रोज़ से हरियाणा केन्द्रीय विश्वविद्यालय के अंग्रेज़ी विभाग के अध्यापक एक अकेली लड़ाई लड़ रहे हैं. वे अकादमिक संसार की सरहद पर एक ऐसी जंग में हैं जिसमें हमलावर राष्ट्रवाद के झंडे और तुरही के साथ हैं. उनका सामना कर रहे अध्यापकों के पास बुद्धि, विवेक और आलोचना की भाषा है जिसका कोई खरीदार या कद्रदान बाहरी समाज  में नहीं है.

21  सितंबर को अंग्रेज़ी विभाग ने महाश्वेता देवी को श्रद्धांजलि देने के लिए एक कार्यक्रम आयोजित किया. इए मौके पर ‘उनके उपन्यास ‘हजार चौरासीवें की मां’ पर एक फिल्म दिखाई गई. साथ ही उनकी मशहूर कहानी ‘द्रौपदी’ पर आधारित एक नाटक का मंचन किया गया. प्रेक्षागृह भरा हुआ था. दर्शकों में छात्रों और शिक्षकों के साथ अधिकारी भी थे. नाटक को काफी सराहना मिली. अधिकारियों ने भी अंग्रेज़ी विभाग के अध्यापकों की जमकर तारीफ़ की .

अगली सुबह लेकिन माजरा बिलकुल अलग था. दर्शकों में मौजूद किसी ने नाटक को रिकॉर्ड किया और विश्वविद्यालय के बाहर प्रसारित किया. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की छात्र शाखा ‘अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद्’ ने आरोप लगाया कि नाटक भारतीय सेना के जवानों का अपमान करने  की नीयत से मंचित किया गया था. ध्यान रहे तीन दिन पहले ही उरी में सेना के शिविर पर हमले में कुछ  जवान मारे गए थे. हिंदी अखबारों ने अपने स्वभाव के मुताबिक़ ही विश्वविद्यालय के खिलाफ आंदोलन में हाथ बंटाना शुरू कर दिया. बिना जानने की  जहमत उठाए कि नाटक में क्या था और वह कब और कैसे तैयार हुआ था.

‘द्रौपदी’ एक आदिवासी औरत की कहानी है जो सुरक्षा बल के हमले की शिकार होती है. होश में आने पर  उसे यह अहसास होता है कि उसके साथ बलात्कार हुआ है. वह अपने नागे शरीर को ढंकने से इनकार कर देती है और उस ज़ख़्मी नंगेपन के साथ सुरक्षा बल के अधिकारी को चुनौती देती है. इस कहानी का नाट्य रूप तैयार करने के क्रम में अध्यापकों ने एक उपसंहार जोड़ा जिसमें आज के भारत में आदिवासियों और अन्य समुदायों पर  राजकीय दमन में आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट (आफ्सपा) जैसे क़ानून की आड़ में हो रहे ज़ुल्म की बात की गई. न्यायमूर्ति वर्मा समिति और उच्चतम न्यायालय के हवाले से बताया गया कि किस प्रकार भारतीय सुरक्षा बल के सदस्य यौन हिंसा के अपराध में शामिल रहे हैं. दर्शकों से इस परिस्थिति में अपनी भूमिका तय करने को कहा गया.

अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् ने आरोप लगाया कि एक तरफ जहां हमारे फौजी जवान सरहद पर मारे जा रहे हैं ,वहीं विश्वविद्यालय में आराम से बैठे लोग उनका चरित्र हनन करने के लिए इस प्रकार के कार्यक्रम कर रहे हैं.

विश्वविद्यालय हरियाणा के महेंद्रगढ़ नामक इलाके में भी शहर से बारह किलोमीटर दूर है. लेकिन विद्यार्थी परिषद ने तय किया कि वह इस मुद्दे पर शहर में आंदोलन  करगी और शहर और आसपास के गांवों से लोगों को विश्वविद्यालय के खिलाफ गोलबंद करेगी. कुलपति का पुतला जलाया गया, शिक्षकों पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा करने, उन्हें बर्खास्त करने की मांग की गई. लगभग रोजाना विश्वविद्यालय के द्वार पर धरना और प्रदर्शन किया जा रहा है.

विश्वविद्यालय प्रशासन भूल गया कि नाटक के वक्त उसने अपने अध्यापकों की कितनी पीठ ठोंकी थी. अगले ही दिन उसने कार्यक्रम की एक संयोजक डॉक्टर स्नेह्सता से नाटक में भारतीय सेना की छवि खराब करने  के आरोप पर सफाई मांगी. उसने छह सदस्यीय जांच दल भी  गठित कर दिया जो पूरे प्रसंग की पड़ताल करके अपनी रिपोर्ट देगा. विश्वविद्यालय पर दबाव बनाए रखने के लिए यह कहा जा रहा है कि यह जांच दल ठीक नहीं क्योंकि उसमें कुलपति के करीबी लोग हैं. यह भी सुनाई दे रहा है कि जिला प्रशासन अपनी ओर से जांच की तैयारी कर रहा है हालांकि पहले पुलिस ने कहा था कि वह विश्वविद्यालय की जांच-रिपोर्ट का इंतजार करेगी.

सवाल यह है कि विश्वविद्यालय प्रशासन ने क्यों अपने अध्यापकों को 'अरक्षित' छोड़ दिया है और क्यों वह उनकी तरफ से खुलकर नहीं बोल रहा. आखिर उसके लोग नाटक के प्रदर्शन में मौजूद थे और उसकी प्रशंसा भी की थी. क्या उनकी यह राय अब बदल गई है या उसका कोई  महत्त्व नहीं है? सवाल यह भी है कि क्या विश्वविद्यालय परिसर में होने वाली गतिविधि पर हर किसी को राय देने का हक होना चाहिए? क्या उन्हें , जो नहीं जानते, या जिन्हें इसका कोई प्रशिक्षण नहीं कि अकादमिक प्रयोग कैसे किए जाते हैं, विश्वविद्यालय की कक्षा में या और कहीं चलने वाली गतिविधि को ठीक ठीक समझ भी सकते हैं?

दूसरे शब्दों में विश्वविद्यालय में क्या बाहरी समाज को हस्तक्षेप का अधिकार होना चाहिए? हालांकि टैगोर चाहते थे कि विश्वविद्यालय और समाज के बीच कोई  दीवार न हो, लेकिन क्या विश्वविद्यालय की कोई सरहद भी न होगी?

कोई दस साल पहले बड़ोदा के सयाजी राव विश्वविद्यालय के कला संकाय में परीक्षा के हिस्से के तौर पर लगी प्रदर्शनी पर विश्व हिंदू परिषद् के सदस्यों ने हमला किया. छात्रों और शिक्षकों पर मुकदमा दर्ज हुआ और उन्‍हें निलंबित किया गया. किसी समय जो दुनिया का एक माना हुआ कला विभाग था, इस घटना के बाद पूरी तरह तहस-नहस हो गया. पांच साल पहले दिल्ली विश्वविद्यालय ने बाहरी तत्‍वों के ऐतराज जाहिर करने पर एके रामानुजन के लेख को अपनी पाठ्य सूची से बाहर कर दिया. दस साल पहले राज्यसभा के हंगामे के चलते  स्कूली किताबों में शामिल अवतार सिंह पाश, प्रेमचंद, हुसैन, पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’, धूमिल जैसे लेखकों के पाठ बदल दिए गए.

क्या विश्वविद्यालय के मामलों का निबटारा सेना के लोग और समाज के ताकतवर मुखिया करेंगे?  इस साल के शुरू में हमने जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में कुलपति को पूर्व सेना नायकों की राय लेते देखा कि परिसर कैसे चले. क्या यह पूरे देश में होगा? हमारे लिए गर्व की बात है कि हरियाणा केन्द्रीय विश्वविद्यालय के अंग्रेज़ी के शिक्षक अपने फैसले को लेकर शर्मिंदा नहीं हैं.उन्हें पस्त नहीं किया जा सका है. डॉक्टर स्नेह्सता ने अपने जवाब में यह भी पूछा है कि क्या राज्य से सवाल करना बौद्धिकों का फर्ज नहीं? लेकिन उन पर ख़तरा है. एक अध्यापक के बारे में कहा जा रहा है कि वे नक्सली हैं क्योंकि कुछ साल उन्होंने छत्तीसगढ़ में पढ़ाया है. विद्यार्थी परिषद का कहना है कि इस भोले भाले राज्य में कम्‍युनिज्म के प्रचार की साजिश हो रही है जिसे वह नाकामयाब करेगी. पूछा जा सकता है कि क्या इस देश में कम्‍युनिज्म में यकीन रखना अपराध है.

सबसे बड़ा सवाल है कि दिल्ली से कोई सवा सौ किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस विश्वविद्यालय के अध्यापकों पर जब हमला हो रहा है तो देश का अध्यापक समुदाय चुप क्यों है! अंग्रेज़ी के विद्वान् जो सेमिनारों और चयन समितियों के सदस्यों के रूप में ज़रूर हरियाणा केन्द्रीय विश्वविद्यालय गए होंगे, क्यों कुलपति को नहीं लिख रहे कि उनके सहकर्मियों पर यह आक्रमण अस्वीकार्य है. हरियाणा केन्द्रीय विश्वविद्यालय के अन्य अध्यापक भी क्यों चुप हैं? क्या यह हमला आख़िरी है? हरियाणा और पंजाब में भगत सिंह और अवतार सिंह पाश के नामलेवा भी क्यों हमले के शिकार अपने बहादुर शिक्षकों के साथ एकजुटता जाहिर नहीं कर रहे?  क्या बुराई के पक्ष में संगठन आसान है और विवेक को अकेले अपना संघर्ष करना है? फिर भी यह देश महानता का सपना देख सकता है?

अपूर्वानंद दिल्‍ली यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर और टिप्‍पणीकार हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

इस लेख से जुड़े सर्वाधिकार NDTV के पास हैं. इस लेख के किसी भी हिस्से को NDTV की लिखित पूर्वानुमति के बिना प्रकाशित नहीं किया जा सकता. इस लेख या उसके किसी हिस्से को अनधिकृत तरीके से उद्धृत किए जाने पर कड़ी कानूनी कार्रवाई की जाएगी.
Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com