बजट की समीक्षा करने का काम साल दर साल कठिन होता जा रहा है. बजट अब ठोस आंकड़ों की बजाए लंबे-लबे वाक्यों का रूप लेने लगा है. फिर भी ऐसा नहीं है कि बजट को एक नजर में देखा न जा सके. मसलन बजट देश में एक साल में सरकारी आमदनी और खर्च का लेखा-जोखा होता है. सरकार का काम होता है कि अपने हुनर से टैक्स और दूसरे जरियों से सरकार के खजाने में रकम बढ़ाए और फिर तरह-तरह की योजनाओं पर खर्च करे. इसीलिए हर साल बजट का आकार बढ़ना ही किसी सरकार के प्रदर्शन का एक पैमाना होता है.
न के बराबर बढ़ा बजट का आकार
पिछले साल बजट का आकार 19 लाख 80 हजार करोड़ था. इस बार बजट का आकार 21 लाख 47 हजार करोड़ है. साल भर में अगर पांच फीसद की मुद्रास्फीति मान लें तो एक लाख करोड़ बढ़ने के तो कोई मायने ही नहीं हैं. यानी 20 लाख 80 हजार की रकम नए साल में उतनी ही थी जितनी पिछले साल थी. इस तरह से बजट का आकार बड़ी मुश्किल से सिर्फ सत्तर हजार करोड़ बढ़ा. जबकि हर साल दो करोड़ आबादी बढ़ती है. इसके लिए बजट का आकार कम से कम पांच फीसद बढ़ाने की दरकार होती है. बहरहाल इस साल खर्च के लिए हमारे पास एक लाख रुपये से कम उपलब्ध हुए. इसी रकम में से पचासों मदों में खर्च बढ़ाया जाना था.
अब अगर यह कहा जाए कि फलां मद में अलग से एक लाख करोड़ खर्च करेंगे और फलां मद में दस हजार करोड़ बढ़ाएंगे तो यह भ्रम में डालने की ही बात होगी. अगर किसी मद में वाकई ज्यादा खर्च किया गया तो किसी दूसरे जरूरी काम को छोड़कर ही संभव है. लंबे-लंबे वाक्यों से बोझिल इस बजट में इस बात को साफ-साफ देखना बहुत ही मुश्किल है. जब तक पता चलेगा तब तक बजट की समीक्षा का माहौल ही खत्म हो जाएगा. यानी यह सब अगले साल के बजट में पता चलेगा कि इस बार जो कहा गया है उसमें से कौन-कौन से काम रह गए.
भाषण में बड़े एलान का इंतजार ही होता रहा
वक्त गुजरता रहा और बजट भाषण सुनने वाले लोग हर पल बड़ा एलान होने का इंतजार करते रहे. दो घंटे गुजरने के बाद बजट के श्रोताओं का धैर्य चुक गया था. अचानक बजट भाषण खत्म होने का एलान हो गया. बजट में इतनी सारी मदें होती हैं कि एक नज़र में दिखता नहीं है कि पिछले बजट की तुलना में इस साल अलग क्या हुआ. मोटे तौर पर देखें तो देश के सबसे बड़े तबके गांव की आबादी यानी किसानों के लिए नया कुछ दिखाई नहीं दिया. गांव में बेरोजगारी और शहरी पढ़े लिखे बेरोजगारों की समस्या से निपटने के लिए बजट में किसी बड़े एलान की शिद्दत से उम्मीद थी. लेकिन हद यह हो गई कि इस बार भी मनरेगा में आवंटन 48 हजार करोड़ से ज्यादा नहीं हो पाया. देश में गरीब तबके की हालत दिन पर दिन इतनी खराब हो रही है कि खाते-पीते उद्योग व्यापार को सहूलियत देने का खुलकर एलान कर पाना मुश्किल होता है. अमीरों को सुविधाएं पीछे से ही दी जाती हैं. पीछे से सुविधाएं पहुचाने के काम को फौरन ही पकड़ पाना आसान नहीं होता. लेकिन उद्योग व्यापार के खुश होने का एक संकेतक शेयर बाजार को माना जाता है. बजट भाषण खत्म होने के बाद शेयर बाजार पता नहीं किस खुशी में 485 अंक बढ़कर तीन महीने के उच्च स्तर को छू गया. उद्योग जगत ने आखिर क्या देखा इसका पता बाद में चलेगा.
मध्य और निम्न मध्य वर्ग
बड़ी मुश्किल से अपना गुजारा करने वाले नौकरीपेशा लोग यानी मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग आयकर की सीमा बढ़ने की उम्मीद लगाए रहता है. उनके लिए भी इस बार कोई उल्लेखनीय एलान दिखाई नहीं पड़ा. हालांकि बड़े जोरशोर से पांच लाख तक की आय वालों के लिए दस फीसद आयकर का रेट घटाकर पांच फीसद करने का एलान किया गया. इससे उन्हें क्या राहत मिलेगी? क्योंकि ढाई लाख से ज्यादा आमदनी वाले लोगों को आयकर बचाने के लिए तरह तरह के निवेश, भविष्य निधि, बीमा में निवेश बच्चों की फीस वगैरह पर आयकर की छूट पहले से ही चालू हैं. सो पांच लाख की आय वालों से आयकर ज्यादा मिलता ही नहीं था. हां आयकर बचाने के लिए अपना पेट काटकर जो छोटी छोटी बचतें वे किया करते थे वह मजबूरी जरूर थोड़ी सी कम हो गई है. अब उन्हें अपना पैसा तुरत-फुरत खर्च करने का प्रोत्साहन मिलेगा. कुल मिलाकर यह उपाय बचत को हतोत्साहित करने वाला सिद्ध होगा. इसके अलावा ज्यादा कुछ दिखता नहीं.
क्या थीं बड़ी चुनौतियां
हर आर्थिक तबके की अपनी अपनी जरूरतें होती हैं. किसी भी सरकार के लिए उन्हें एक एक करके अलग अलग देखना बड़ा मुश्किल होता है. इसीलिए लोकतांत्रिक सरकार के सामने अधिसंख्य लोगों का दुख दूर करने का ही लक्ष्य होता है. इससे समानता का लक्ष्य अपने आप सध जाता है. यानी सबसे बड़ी चुनौती औसत व्यक्ति की आय बढ़ाने की चुनौती थी. इसीलिए हमेशा कहा जाता है कि इस लक्ष्य को किसानों की आमदनी बढ़ाने की कोशिश और बेरोजगारी खत्म करने के उपायों से हासिल किया जा सकता है. लेकिन इस बजट में इन दोनों मोर्चों पर कोई उल्लेखनीय एलान फिलहाल तो नजर नहीं आया.
किसानों की आमदनी
किसानों की आमदनी के लिए बस एक वाक्य बोला गया है कि आने वाले कुछ वर्षो में आमदनी दुगुनी की जाएगी. वैसे यह बात तो अपनी सरकार सत्ता में आने के बाद तीन साल से ही बोल रही है. लेकिन बजट में यह बात फिर गायब है कि यह दुगनी होगी कैसे? किसानों के लिए ले देकर एक बात है कि किसानों को कर्ज की सुविधा बढ़ाई जाएगी. जबकि मौजूदा समस्या ही यही है कि देश के किसान पहले से ही कर्ज के बोझ से मरे जा रहे हैं. उन्हें इस समय सीधी सबसिडी और खेती के लिए जरूरी पर्याप्त पानी, खाद, बीज वाजिब दाम पर चाहिए. इस बजट में इस पर कोई साफ एलान दिखाई नहीं देता.
बेरोजगारी के लिए
सरकारी नौकरियां बढ़ाने की बात तो सरकार भूले से नहीं कर सकती थी. सरकार पहले से ही कहती आई है कि बेरोजगारों को अपना निजी काम धंधा जमाने में सरकार मदद करेगी. लेकिन इस बार के बजट में नए काम धंधों के लिए अलग से रकम का प्रावधान नजर नहीं आ रहा है. उनके लिए एक वाक्य कहा गया है कि कौशल विकास पर ध्यान देंगे. यानी अगली बार देश यह सोचने के काम पर लगेगा कि बेरोजगार युवक क्या उत्पादन करें जो बिक जाएगा. देश में मांग बढ़ाने का इंतजाम किए बगैर बेरोजगारों को शिक्षण प्रशिक्षण के नाम पर उलझाए रखना किस तरह की बात है? इसे अर्थशास्त्र के ज्ञाता ही अच्छी तरह से बता पाएंगे. इससे अच्छा तो पिछले साल का वह नजारा था जिसमें स्टार्ट अप जैसी योजनाओं की बात कही गई थी. अलबत्ता साल में ढाई हजार करोड़ खर्च करके स्टार्ट अप के जरिए बेरोजगारी से निपटने के इरादे से कुछ होना जाना नहीं था सो उसका कोई असर दिखाई नहीं दिया. हालांकि इस मद में एक सवा लाख करोड़ खर्च करके दिखाने लायक कुछ किया जा सकता था. लेकिन फिर वही बात कि यह रकम इस बजट में से निकलती कहां से?
बढ़ कैसे सकता था सरकारी खर्च
यह तो तय हो ही चुका है कि हम देश में पहले से चली आ रही आर्थिक विकास की रफ्तार भी कायम नहीं रख पा रहे हैं. जीडीपी का अनुमान तिमाही दर तिमाही घटता ही जा रहा है. ऐसे में सरकारी खर्च बढ़ाने का एक ही उपाय था कि अनुमानित आमदनी से ज्यादा खर्च कर लें. इससे आर्थिक विकास तो होता है लेकिन महंगाई भी बढ़ती है. विश्व के तमाम विकसित देशों ने घाटे के बजट के जरिये विकास के पथ पर खूब दौड़ लगाई है. उन्होंने महंगाई बढ़ने की चिंता छोड़ ज्यादा से ज्यादा माल बनाने पर ध्यान दिया. और बाद में अपना बजट घाटा भी काबू में कर लिया. लेकिन इस मामले में हमारे साथ दिक्कत यह है कि पिछले दस साल में राजनीतिक नफे नुकसान के चक्कर में महंगाई को खलनायक बनाकर रख दिया है. लिहाजा मौजूदा सरकार उस उपाय के बारे में सोच भी नहीं सकती.
कहां से जुगाड़ सकते थे पैसा
मौजूदा सरकार ने अपने पुराने रुखों के कारण हर संभव उपाय आजमाने में खुद ही संकोच पैदा कर रखा है. ऐसे में एक उपाय यह बचता है कि आजादी के बाद से अब तक सरकार ने जो जमीन जायदाद बना रखी है उसे बेचकर पैसे का जुगाड़ कर ले. पुरखों की जमा-पूंजी बेचने जैसा न लगे, सो सरकारी विद्वानों ने इसे एक अच्छा सा नाम विनिवेश दे रखा है. पुरानी एनडीए सरकार के वक्त सरकारी उपक्रमों को पूरा या आंशिक बेचने के प्रयोग हो भी चुके हैं. लेकिन इस समय इस उपाय में भी एक झोल यह है कि निजी क्षेत्र के सेठ लोग वैश्विक मंदी से खुद ही परेशान हैं. वे चाहते हैं कि सरकार मुफ्त में ही उनके लिए सब कुछ करती रहे.
उपलब्धियों के जिक्र की फजीहत से बच सकते थे
पता नहीं यह जिक्र करने की क्या जरूरत थी कि हमने दस लाख तालाब बना दिए. बजट पेश होने के आधे घंटे के भीतर ही इस बात की हद से ज्यादा फजीहत की जाने लगी. यह ऐसा मसला था जो दिखाई देता है. गांव-गांव से सूचना आने लगी कि ये तालाब दिखाई नहीं दे रहे हैं. हो सकता है कि तालाबों पर छोटे-छोटे कामों को लेखे में लेकर यह आंकड़ा पैदा कर लिया गया हो. लेकिन इसके जिक्र के बाद मजाक तो उड़ना ही था लेकिन जब अपने सबसे बड़े फैसले यानी नोटबंदी की उपलब्धियों को गिनाने में अड़चन आ रही थी तो कुछ न कुछ तो कहना ही था. बहरहाल सरकार के सामने अब एक और बहुत बड़ी चुनौती खड़ी हो गई है कि इस साल उसने जो रूखा सूखा बजट पेश किया है उससे दिखाने लायक उपलब्धियां कैसे पैदा कर पाती है.
सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्त्री हैं...
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This Article is From Feb 01, 2017
पिछले साल से भी फीका दिखा इस बार का बजट
Sudhir Jain
- ब्लॉग,
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Updated:फ़रवरी 01, 2017 17:34 pm IST
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Published On फ़रवरी 01, 2017 17:14 pm IST
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Last Updated On फ़रवरी 01, 2017 17:34 pm IST
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