पांच जनवरी 2017 को मुझे एक ईमेल मिला जिसका विषय था – आपके लिखे का पाठक. किसी लेखक को पाठक मिले तो अच्छा तो लगता ही है. मैंने उल्लास के साथ उस संदेश को पढ़ा. उसमें लिखा था 'मेरा नाम (मैं उनकी पहचान नहीं बता सकता हूं) है, मैं मुंबई के करीब के जिले में रहता हूं. मैं हमेशा आपके लिखे को पढ़ता हूं. बहुत दिनों से संपर्क सूत्र ढूंढ रहा था. आज मिला है, तो तत्काल यह संदेश भेज रहा हूं. मैं आपसे मिलना चाहता हूं. अगर आपको लगता है कि मुझसे मिलना चाहिए, तो बताना.'
मुझे लगा कि शायद यह अपने काम से भोपाल आते-जाते होंगे. मैंने भी लिख दिया कि आप जब भोपाल आयें, तो बताइएगा. जरूर मिलेंगे. उनका एक दिन मोबाइल संदेश आया कि क्या तीन फ़रवरी को मिल सकते हैं. मैं थोड़ा बजट विश्लेषण में व्यस्त था, तो जवाब नहीं दे पाया. जैसे ही ध्यान आया, तो मैंने उन्हें लिखा कि अगली बार जब आप भोपाल आयें, तब मिलते हैं. उन्होंने मुझसे सहूलियत का दिन पूछा. मैंने कहा मंगलवार - सात फ़रवरी. उन्होंने कहा ठीक है. दिन और समय तय हो गया. वह मुझसे मिलने मेरे दफ्तर पहुंच गए. ये एक बहुत साधारण से सज्जन थे. मैं उनके आने का सबब नहीं समझ पा रहा था. मैंने पूछा कि आप कहां से हैं ? क्या करते हैं ? आदि.
उसके बाद उनका कहा हर वाक्य मुझे भौंचक्का करता जा रहा था. वह सुबह 11 बजे मुंबई के निकट ठाणे से सीधे चले आ रहे हैं, केवल मुझसे मिलने के लिए. और मुझसे मिलकर 4.30 की ट्रेन से वापस चले जाएंगे. उन्होंने अपने छोटे से बस्ते में से एक पत्र निकाला. उन्होंने बताया 'जहाँ मैं रहता हूँ, वहां से करीब ही वह क्षेत्र है, जहां देह व्यापार होता है. मैं पहले वहां महिलाओं की बेहतरी के लिए कुछ काम करता था, पर विपरीत परिस्थितियां बनीं तो मुझे वह काम छोड़ना पड़ा. मैं वहां वेश्यावृत्ति करने वाली कुछ महिलाओं के संपर्क में हूं. मैं हमेशा उनकी मदद करना चाहता हूं.' उन्होंने वहां की कई घटनाएं और दिल दहला देने वाली बातें भी साझा कीं. उन्होंने बतया कि वेश्यावृत्ति दूसरे उद्योग जैसा ही व्यापार है, जिसका संचालन व्यवस्था, समाज, पूंजी और राजनीति मिलकर करते हैं. वेश्या वहां मनुष्य न होकर केवल खरीदी-बेचीं-उधेड़ी जाने वाली किसी दूसरे सामान की तरह होती है!
उन्होंने जो आगे बताया, वह थोड़ा अविश्वसनीय सा भी लगता है, पर यह सच में कहा गया. उन्होंने कहा 'करीब 9 महीने पहले उस क्षेत्र के एक समूह में मंहगाई के विषय पर चर्चा हो रही थी. उसमें कुछ लोग दाल की कीमतों और उसकी नीति पर बहुत व्यापक बात कर रहे थे. मैंने पूछा कि आपको यह कहां से पता चला? तो उन्होंने NDTV की वेबसाइट पर दाल की कीमतों और नीतियों पर प्रकाशित मेरे लेख का संदर्भ दिया. ठाणे से आये उन सज्जन ने मुझसे कहा कि वहां मेरे सभी लेख पढ़े जाते हैं. शायद उन्हें यह लगा कि इस इलाके की तस्वीर के बारे में मुझे एक पत्र भेजना चाहिए. संभवतः मैं उनकी बात व्यापक समाज के सामने ला सकूं. मुझे लेखन करते हुए 23 साल हो गए हैं, इतने सालों बाद मुझे पहली बार यह एहसास हुआ कि 'लेखन' किस हद तक 'आशाएं' पैदा कर सकता है.
उन्होंने तीन पन्ने का एक पत्र, एक बयान मुझे सौंपा. मुझे यह पढ़कर खुद को संभालने में कुछ वक्त लगा. मैंने इस पत्र की भाषा को थोड़ा व्यवस्थित भर किया है. उनसे बात करके इसमें स्पष्टता लाया. बाकी इसमें पूरी बात मुंबई के पास के जिले में बने रेड लाइट क्षेत्र की एक महिला की है, जिसे समाज में वेश्या कहा जाता है. यह बयान हम सबको संबोधित है. हम सबको इस पत्र के आधार पर अपने अंतःकरण, अपने ज़मीर और अपने विवेक से संवाद करना चाहिए.
- सचिन कुमार जैन
(सचिन जैन, शोधार्थी-लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं)
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एक वेश्या का बयान : मुंबई से आया ख़त जैसा हमें मिला..
आप मुझे किसी भी नाम से बुला सकते हैं. वैसे भी शालीनता वाला आपका समाज मेरे जैसी महिला को respect (सम्मान) से नहीं बुलाता है. आप हैरान नहीं होना, अगर मैं कभी अंग्रेजी का उपयोग करूं. आप के समाज के लोग हमारे पास customer बन के आते हैं, अंग्रेजी उन्हीं का दिया हुआ उपहार है. मैं मुंबई के करीब, लगभग पन्द्रह किलोमीटर के दायरे के एक जिले में रहती हूँ. आप Red Light Area Near Mumbai शब्द डाल कर सर्च करें, आपको शायद कई तस्वीरें भी देखने को मिल जाएं. हम यहां करीब 800 महिलायें इसी दशा में रहते हैं. हम बहुत लेख नहीं पढ़ पाते हैं, पर हमें देश दुनिया की खबर होती है. हमें ब्रेक्सिट से लेकर जीएसटी और सर्जिकल स्ट्राइक तक की भी खबर होती है.
आपकी शिष्टता और आपके Clean-character (शुद्ध चरित्र) वाले समाज को हमारे जीवन के बारे में जानने की बहुत इच्छा होती है ; जैसे कि हमारा अतीत क्या है? हमारा इस फील्ड में आना कैसे हुआ? हमारा बात करने का तरीका कैसे बनता है? आपके समाज को हमारे विचार, हमारा पहनावा, हमारा सामाजिक जीवन, हमारी तकलीफ, हमारे कस्टमर्स से बात करने का तरीका, कहीं हम सब HIV के मरीज तो नहीं हैं? और इन सबसे अधिक हमारे पेशे को जानने की इच्छा होती है. हमें यह नहीं पता कि इसके पीछे का मकसद क्या होता है ; पर लोग हमारे जीवन की जांच-पड़ताल करते रहते हैं.
हमारी व्यथा
कुछ लोगों को लगता है कि हमारा पेशा Easy Money (आसानी से पैसा कमाना) है; उन्हें लगता है कि हम स्वेच्छा से इस पेशे में आते हैं और हमें इस काम में आनंद आता है; पर आप सामान्य तौर पर ही कभी किसी भी लड़की या औरत से बात कीजिये और पूछिए कि अगर कोई पुरुष आपको गलत नजर से देखता है तो आपको कितना गुस्सा आता है? वह कितनी असहज होती है? जैसे कोई भी सामान्य औरत ऐसे में असहज होती है या उसे ऐसी स्थिति में अच्छा नहीं लगता है, तो हमें यह कैसे अच्छा लग सकता है? आपके समाज ने हमें इस पेशे में डाल कर यह भी धारणाएं खुद ही बनाई हैं कि हमें ही यह पेशा अच्छा लगता है. यह झूठी धारणा है.
आपके समाज ने हमें इस पेशे में धकेल कर यह मान्यता स्थापित कर दी है कि पुरुष को हमारे शरीर को नोचने, तोड़ने और काटने का हक़ है. वास्तव में यह Easy Money(आसानी से पैसा कमाने के लिए मर्ज़ी से किया जाने वाला काम) वाली मानसिकता बिलकुल गलत है. औरतों के शरीर का इस्तेमाल करने के लिए पुरुषों की इस मानसिकता की रचना हुई है.
मैं आपको बताना चाहती हूं कि कोई भी औरत या लड़की अपने मन से इस पेशे में नहीं आई है. उस लड़की की बहुत सी मजबूरियां होती हैं, वो लड़की अशिक्षित होती हैं, उसका परिवार बेहद गरीब और लाचार होता है, उसका कोई सहारा नहीं होता है; पर फिर भी ऐसे हालातों में भी वो लड़की ये काम करना नहीं चाहती. लेकिन कोई उसका ही नज़दीकी दोस्त, रिश्तेदार, पड़ोसी या कोई ऐसा शख्स, जो उन्हें जानता है, वही उसकी मजबूरी का फायदा उठाता है. जानने वाला ही उसे पैसों के लिए ऐसे नरक में धकेल देता है. यहां रहने वाली कुछ मेरी साथी लड़कियां तो रद्दी से भी सस्ते दामों पर खरीदी गईं हैं.
आमतौर पर एक 14-15 साल की लड़की 2500 से 30,000 के करीब खरीदी जाती है. आप हैरान नहीं होना पर कुछ लोगों के लिए रद्दी के बराबर के भाव की रकम भी बहुत बड़ी रकम होती है. इसी से आप गरीबी का अंदाज़ा लगा सकते हैं. पिछले साल यानी 2016 में दो बहनें, जिनमें से एक 16 साल की थी और दूसरी 14 साल की, इन दोनों को सिर्फ 230 रुपये में खरीदा-बेचा गया. जी हां ; दो लड़कियां 230 रुपये में बेची गईं. अगर उन दोनों लड़कियों का कुल वजन 80 किलो भी हो तो, इसका मतलब है कि उन्हें 3 रुपये प्रति किलो के भाव से बेचा गया. आप जरा याद करें कि आखिरी बार आपने रद्दी कितने में बेची थी. मुझे पूरा यकीन है कि इससे ज्यादा पैसों में बेची होगी.
शुरुआती दिनों की बात
कोई भी पैसा या राशि किसी लड़की को ऐसा काम करने के लिए मजबूर नहीं करता है. पर सच बात तो यह है कि हम कुछ कर ही नहीं सकते हैं. जब इस इलाके में किसी लड़की को खरीद कर लाया जाता है, तभी शुरुआत में हमें यानी लड़कियों को बात करके समझाया जाता है कि हम चुपचाप सेक्स करने के लिए मान जाएं; लेकिन कोई भी लड़की बात करने से नहीं मानती, तो फिर उसे खूब डराते हैं, तब बहुत सारी लड़कियां डर के कारण मान जाती हैं. इसके बाद फिर जो नहीं मानतीं, उनके साथ बलात्कार करते हैं, उन्हें शारीरिक और मानसिक यातना देते हैं. ज्यादातर लड़कियां यातनाओं के कारण टूट जाती हैं. इसी पेशे, इसी काम, यातना को अपना नसीब मान लेती हैं. जो लड़कियां फिर भी नहीं मानतीं, उनसे बार-बार बलात्कार करने के बाद, उनकी लाश जंगल या नदी में होती है या तो कोई लड़की खुद को मार लेती है यानी सुसाइड कर लेती है.
मैं 18 साल तक इस पेशे में थी. मैंने डर, भय, जख्मों को तो भोगा ही है, लेकिन मेरा हर वह पल मौत से बदतर रहा, जब जब मैंने दूसरी लड़कियों को इस दलदल में धकेले जाते हुए देखा और मैं कुछ नहीं कर पायी. यहां लड़की को जिंदा इंसान माना ही नहीं जाता है. उसकी हत्या भी कानून के कागजों में दर्ज नहीं होती. वह आखिर में लावारिस लाश बन जाती है. आपका साफ़-सुथरा समाज सब कुछ देखता है और अपने काम में जुट जाता है. फिर मुझे एड्स हो गया. तब मैंने यह काम छोड़ने का फैसला ले लिया. आज मेरे चार बच्चे हैं. तीन बच्चे गांव में हैं और एक बच्चा मेरे पास है. जरा रुकिए! आप ये मत सोचना कि आपसे मदद मांग रही हूं. मैं तो बस आपको आपके ही समाज का सच बता रही हूं.
तकनीक और वेश्या का रिश्ता
दुनिया तकनीकी तौर पर काफी विकसित हुई है. इसका बहुत गहरा असर हमारे पेशे पर भी हुआ है. पहले हमारे ग्राहक, जो हमारा उपभोग करते हैं सिर्फ मिडिल एज के होते थे पर अब नौजवान, यहां तक कि नाबालिग भी आते हैं. इस पेशे से मिला यह सच मैं बताती हूँ कि नाबालिग बहुत ज्यादा आक्रामक होते हैं. नौजवान लड़के हमसे हमेशा नई मांग करते हैं. वे इंटरनेट से कई दृश्य देखते हैं और क्रूरता से उन्हें अपनाना चाहते हैं. अगर हम मना करें तो हिंसक हो जाते हैं. हमने देखा है कि काफी नौजवान लड़के निर्दयी हैं. हमारे पास चुनाव की कोई गुंजाइश नहीं होती है. कुछ भी जाए, हर आक्रमण, हर प्रयोग, हर चोट को सहते हुए, हमें बस उस वक्त से गुज़रना होता है.
हमारी वित्तीय हालत
आपके समाज को लगता है कि हमारे पेशे में बैठे-ठाले की कमाई है. बेतहाशा कमाई है. सच तो यह है कि हमारी वित्तीय हालत समझना उतना ही मुश्किल है जितना देश का बजट समझना. आमतौर पर जब हमें खरीदा जाता है तो उस रकम को ब्याज समेत चुकाने में 4 से 8 साल लगते हैं. आप यह मत सोचना कि हमारी खरीदी-बिक्री में लगी हुई पूंजी की ब्याज दरें कितनी होती हैं? हमारे लिए ब्याज दरें RBI तय नहीं करता. यह सब हमारा मालिक (Pimp यानी दलाल) तय करता है. लड़की की उम्र, खरीद की रकम, उसके लुक्स, Middlemen (मध्यस्थ), पुलिस और मानव अधिकार वाले का हिस्सा; यह सब फैक्टर हमारी वित्तीय हालत तय करते हैं. यह एक बड़ा सच है कि एक वेश्या को मिलने वाले पैसे बहुत से लोगों के घर भरते हैं. वह लोग सभ्य समाज का हिस्सा बन जाते हैं और हम वेश्या!
शुरुआत में, हमें यानी वैश्याओं को पहले कुछ साल तक कोई पैसे नहीं मिलते. जो भी कमाई होती है, वह कर्ज चुकाने (जिस राशि में हमें खरीदा गया होता है) में चली जाती है. मुझे साल 1997 में 8000 रुपये में खरीदा गया था (खरीदी की रकम 6800 और दूसरे खर्चे 1200 रुपये). शुरू के 5 सालों तक मुझे कभी कुछ नहीं मिला था. मतलब यह कि मेरे व्यापार में लगे 8000 रुपये चुकाने के लिए मुझे 1000 से जादा लोगों से शारीरिक संबंध बनाना पड़ा था. यानी प्रति कस्टमर मेरी लागत 8 रुपये थी. अब यानी 2016-17 में लड़की को हर ग्राहक से 100 से 150 रुपये मिलते हैं. आमतौर पर खुद का सौदा करने के लिए मजबूर एक लड़की महीने में 4500 से 6000 रुपये कमा लेती है. इसके बाद उसे घर का किराया 1500 रुपये, खाना-पीना 3000 रुपये, खुद की और बच्चों की दवाई के लिए 500 रुपये, बच्चों की शिक्षा (यदि हो पाये तो) 500 रुपये प्रति बच्चा होता है. हिसाब यहीं खत्म नहीं होता. सबसे अधिक खर्च हमारे मेकअप का होता है. अगर आप सोचते हैं कि मेकअप की क्या जरूरत है तो आप यह जान लीजिए कि इसके बिना कस्टमर आपके पास नहीं आएगा.
सरकार और NGO की मदद
हम कभी चुनाव का मुद्दा नहीं होते, पर हर चुनाव में हमारी जरूरत होती है, आपको भी पता है हमारी जरूरत किसे होती है? आपको बताना चाहती हूं कि हमारा सरकार और सरकारी विभाग से ऐसा ही नाता है जैसा नाता भारत का चीन से है. दुश्मन है या दोस्त है, समझ में नहीं आता. उनकी जरूरत हम हैं, और हमारी जरूरत वो हैं.
हमारे इलाके में एक सरकारी विभाग है, जो हमें मुफ्त में कंडोम देता है. यह सच है कि वो सरकारी विभाग हमें HIV की दवाई भी मुफ्त देता है और साल में 2-3 बार HIV test भी करता है. इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि सरकार चाहती है कि हम बने रहें. हम ऐसे बनें रहें, जिससे आपके समाज के आदमी को एड्स न हो. वह हमारे लिए नहीं, आपके साफ़ दिखने वाले समाज के लिए काम करती है.
पिछले 18 सालों में देसी और विदेशी करीब 200 गैर-सरकारी संस्थाएं देखी हैं. 7-8 को छोड़कर तो बाकी सब फर्जी हैं. जमीनी वास्तविकता बता रही हूं. ऐसा लगता है कि सरकारी और गैर-सरकारी, मिलकर हमारी बस्ती को बनाए रखने के लिए काम कर रहे हैं. वे जानते हैं कि हमें सम्मानजनक जीवन का अधिकार देने के लिए, उन्हें अपना चरित्र बदलना होगा. शायद आपसे भी चन्दा मांगा हो, हमारे लिए. डाक्यूमेंट्री फ़िल्में तक बनवाई हैं कुछ NGOs ने; लेकिन हम तक शायद 10 प्रतिशत भी नहीं पहुंचा. हमने उनसे कभी कुछ मांगा भी नहीं है. वो तो खुद आते हैं. हम तो यह चाहते हैं कि हमारे लिए कुछ मत करो, लेकिन हमारे साथ जो कर रहे हो, उसे तो बंद करो. आप हमारे लिए कुछ करना चाहते हैं तो आप हमें कुछ काम करने का अवसर दें, ताकि हमें और हमारे बच्चों को भी बेहतर जीवन मिल सके. हम आलसी नहीं हैं, हम भी मेहनत से कुछ अर्जित करना चाहते हैं.
मैंने इतने सालों में एक ही बात समझी है कि जो वंचित और उपेक्षित होता है, वही प्रताड़ित और शोषित होता है. क्या हम इसे खत्म नहीं कर सकते? यदि वंचित होना खत्म होगा, तो प्रताड़ना और शोषण अपने आप खत्म होगा. मैं चाहती हूं कि हमारी बस्ती में लड़कियों को सम्मानजनक रोज़गार मिलना चाहिए ताकि उन्हें वेश्यावृत्ति न करना पड़े. मैं आपको बताती हूं कि हमारे इस इलाके में बच्चियों को पढ़ाने की व्यवस्था नहीं है. शायद यह व्यवस्था इसलिए नहीं की गई क्योंकि वे इस पेशे से बाहर निकल जाएंगी; यहां 95 फीसदी के पास अपनी पहचान का कोई कागज़ नहीं है, शायद इसलिए नहीं दिया गया क्योंकि वे इस पेशे से बाहर निकल जाएंगी; यहां रोज़गार के विकल्प और पुलिस सुरक्षा नहीं दी जाती. शायद इसलिए क्योंकि इससे यह पेशा खत्म हो सकता है. सच तो यह है कि हमारा जन्म दो बार होता है; एक बार मां की कोख से और दूसरी बार जब समाज हमें वेश्या बनाता है... मुझे आप लोगों से उम्मीद है कि आप किसी और लड़की को इस दुनिया में नहीं धकेलने देंगे.
सामाजिक जीवन
ऐसा नहीं है कि हम हमेशा उदास या निराश ही होते हैं. हमारे घर भी उत्सव मनाए जाते हैं. हमें ईद, दीपावली और क्रिसमस की एक समान ख़ुशी होती है. हम अपने पेशे के अलावा जिंदादिली और फैशन के लिए भी फेमस हैं. हमारे एरिया में सभी राज्यों की, यहां तक की विदेशी, जैसे नेपाल, बांग्लादेश, म्यांमार, रूस, थाईलैंड और भी बहुत से देश की लड़कियां हैं. हमारा रहन-सहन अलग है. हमारा खाना-पीना अलग है. कपड़ों का तरीका अलग है. हमारी भाषा अलग है. हमारा धर्म अलग है. हमारी जाति अलग है. हमारे विचार अलग हैं. फिर भी पिछले 18 सालों में हमारे इलाके में एक बार भी नफरत नहीं फ़ैली, दंगे नहीं हुए, कोई भी भेदभाव नहीं हुआ. शायद इसलिए कि हम सब एक दूसरे से जुड़ गए हैं. हममें आपस में कोई भेद ही नहीं बचा. सबका सब कुछ एक जैसा होकर एक दूसरे में मिल गया.
कभी-कभी मुझे गर्व होता है एक वेश्या होने पर क्योंकि हममें एकता है. हममें प्यार है. हममें त्याग है. हममें ईमानदारी है. हममें सद्भावना है. हममें इंसानियत है. हममें दर्द है और दर्द होने का अहसास भी है. सच यह भी है कि हमारा विवेक जिन्दा है. आजकल के माहौल को देखकर मैंने एक कविता लिखी है, समय हो तो पढ़ना-
** एक **
मैं पल पल मर रही हूं, मैं हर पल मर रही हूं,
कभी हिंदू, तो कभी मुसलमान के नाम पर मर रही हूं,
मैं इंसानियत हूं, पल पल मर रही हूँ, हर पल मर रही हूं,
कभी नीची, तो कभी ऊंची जाति के नाम पर मर रही हूं,
मैं इंसानियत हूं, पल पल मर रही हूँ, हर पल मर रही हूं,
कभी राष्ट्रवादी, तो कभी राष्ट्रविरोधियों के नाम पर मर रही हूं,
मैं इंसानियत हूं, पल पल मर रही हूँ, हर पल मर रही हूं,
कभी आजादी, तो कभी गुलामी के नाम पर मर रही हूं,
मैं इंसानियत हूं, पल पल मर रही हूँ, हर पल मर रही हूं,
कभी औरत, तो कभी पुरुष के नाम पर मर रही हूं,
मैं इंसानियत हूं, पल पल मर रही हूँ, हर पल मर रही हूं,
कभी काले, तो कभी गोरों के नाम पर मर रही हूं,
मैं इंसानियत हूं, पल पल मर रही हूँ, हर पल मर रही हूं,
कभी अमीरी, तो कभी गरीबी के नाम पर मर रही हूं,
मैं इंसानियत हूं, पल पल मर रही हूँ, हर पल मर रही हूं,
कभी अन्याय, तो कभी न्याय के नाम पर मर रही हूं,
मैं इंसानियत हूं, पल पल मर रही हूँ, हर पल मर रही हूं,
कभी खाने, तो कभी पानी के लिए मर रही हूं,
मैं इंसानियत हूं, पल पल मर रही हूँ, हर पल मर रही हूं,
कभी भाषा, तो कभी राज्य के नाम पर मर रही हूं,
मैं इंसानियत हूं, पल पल मर रही हूँ, हर पल मर रही हूं,
कभी आरक्षण, तो कभी योग्यता के नाम पर मर रही हूँ,
मैं इंसानियत हूं, पल पल मर रही हूँ, हर पल मर रही हूं;
** दो **
फिर भी मैं एक आशा हूं
अभी भी मैं किसी के मन में जिंदा हूं
अभी भी मैं किसी की सोच में जिंदा हूं
अभी भी मैं किसी के सपनों में जिंदा हूं
अभी भी मैं किसी के कर्मों में जिंदा हूं
अभी भी मैं किसी की बातों में जिंदा हूं
अभी भी मैं किसी की नीयत में जिंदा हूं
मै इंसानियत हूं, मैं अभी भी जिंदा हूं;
Thank you मेरी बात पढ़ने के लिए ;
नोट : सभी Human Rights कार्यकर्ता और NGO एक जैसे नहीं होते हैं. मेरे पत्र में कोई Spelling Mistake हो तो Sorry, क्या करूँ, मैं Illiterate (निरक्षर) हूँ. एक सवाल है आप के लिए कि क्या Respectful (सम्मानीय) और Dignified (गरिमामय) समाज को वेश्या से कुछ सीखना चाहिए?
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.
This Article is From Feb 23, 2017
एक वेश्या का ख़त: समाज मुझे सम्मान नहीं देता लेकिन इसे आपको अपने लिए पढ़ना चाहिए...
Sachin Jain
- ब्लॉग,
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Updated:फ़रवरी 23, 2017 18:11 pm IST
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Published On फ़रवरी 23, 2017 16:13 pm IST
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Last Updated On फ़रवरी 23, 2017 18:11 pm IST
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