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This Article is From Jan 30, 2017

'मुस्लिम बैन' का फैसला करते हुए भी धंधा नहीं भूले डोनाल्ड ट्रंप

Akhlaq Usmani
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जनवरी 30, 2017 14:43 pm IST
    • Published On जनवरी 30, 2017 14:43 pm IST
    • Last Updated On जनवरी 30, 2017 14:43 pm IST
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने आश्चर्यजनक रूप से अपने कट्टर वोटरों को ख़ुश करने के लिए पूर्व घोषित दक्षिणपंथी नीतियों पर फ़ैसला लेकर पूरी दुनिया को हैरत में डाल दिया. आमतौर पर राष्ट्रवाद की संकीर्ण परिभाषा में यक़ीन रखने वाली रिपब्लिकन पार्टी के राष्ट्रपति ने अरब और हिस्पैनिक (स्पेन से ऐतिहासिक रूप से संबद्ध रहे देश), लेकिन मुस्लिम-बहुल सात देशों के शरणार्थियों और नागरिकों पर प्रतिबंध लगाकर अमेरिकी रंग और नस्लभेद की सोई हुई प्रेतात्मा को जगा दिया है. पूरे अमेरिका में प्रदर्शन शुरू हो गए हैं, अमेरिकी मानवाधिकार संगठन इसका विरोध कर रहे हैं, दुनिया के विकसित देश ट्रंप के फ़ैसले की आलोचना कर रहे हैं और राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और उनकी सरकार पर इसका कोई असर नहीं है. फिर भी यह देखा जाना चाहिए कि ट्रंप ने सिर्फ़ अपने वोटरों को ख़ुश करने के लिए यह फ़ैसला किया है या वाक़ई इससे अमेरिका को कोई लाभ है या यह भी कि कहीं अमेरिका को इससे नुक़सान तो नहीं होने जा रहा...?

जिन देशों के शरणार्थियों और नागरिकों पर अमेरिका ने प्रतिबंध लगाया है, वे एशिया और अफ़्रीक़ा से ही हैं. एशिया से सीरिया, इराक़, यमन और ईरान, जबकि अफ़्रीक़ा से सूडान, सोमालिया और लीबिया. आज ये सभी देश अमेरिका, नाटो और उसके साथी देशों की विस्तारवादी ताक़तों और ईंधन की लूट एवं नापसंद सरकारों की सैनिक बेदख़ली की नष्ट प्रयोगशालाएं हैं. अगर यह मान भी लिया जाए कि डोनाल्ड ट्रंप को इस बात से कोई मतलब नहीं कि इन देशों के साथ अमेरिका की पूर्व सरकारों ने क्या किया और वह सिर्फ़ आम अमेरिकियों के हितों की रक्षा कर रहे हैं, तब क्या उनका फ़ैसला अमेरिका की मदद करेगा. तब भी इसका उत्तर यही रहेगा कि यह निर्णय अमेरिकी हितों के ख़िलाफ़ है.

अगर वाक़ई इसका ताल्लुक अमेरिका में आतंकवाद और इससे हमदर्दी रखने वालों पर रोक लगाने की नीयत से है, तो असल में प्रतिबंध सऊदी अरब, पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान पर सबसे पहले लगना चाहिए था. 11 सितंबर, 2001 के अमेरिका पर हमले में शामिल अधिकतर आतंकवादी सऊदी अरब के थे. इसके अलावा संयुक्त अरब अमीरात, मिस्र और लेबनान के लड़कों ने भी हमले में मदद की थी, लेकिन उनका कहीं नाम नहीं है. इसी प्रकार जमात-उद-दावा और जैश-ए-मोहम्मद वाले पाकिस्तान और अलक़ायदा और तालिबान वाले अफ़ग़ानिस्तान से ट्रंप को अमेरिका के लिए कोई ख़तरा नज़र नहीं आता.

ट्रंप के फ़ैसले के फ़ौरन बाद हवाईअड्डों से इन सात देशों के शरणार्थियों और नागरिकों की धरपकड़ शुरू हुई तो देखते ही देखते पूरे अमेरिका में आम अमेरिकन भी इन लोगों के समर्थन में आ गए. ब्रुकलिन की एक अदालत ने राष्ट्रपति के फ़ैसले पर अस्थायी रोक लगा दी है. बुद्धिजीवी बहस कर रहे हैं कि इन देशों के जो लोग अमेरिकी हितों और अपने देशों में तानाशाही के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करके अमेरिका आए थे, आज हमने उन्हें तनहा कर दिया. हम पूरी दुनिया को क्या मुंह दिखाएंगे. इस निर्णय ने अमेरिकी विश्वसनीयता को घटाया है. 'न्यूयॉर्क टाइम्स' के बेहद संजीदा सम्पादकीय में इस निर्णय को कायराना और आत्मघाती बताया गया. अमेरिकी पत्रकार कहने लगे हैं कि ट्रंप ने आतंकवाद के ख़िलाफ़ अमेरिकी लड़ाई को, इस्लाम से टकराव की तरफ़ मोड़ दिया है. इस तरह तो हम इस्लामी (वहाबी) आतंकवाद को मज़बूत करेंगे. हम आईएस और अलक़ायदा को इस बात की वजह देंगे कि वह अमेरिका के ख़िलाफ़ क्यों हैं.

इस सरकार में रक्षामंत्री जिम मैटिस ने चुनाव प्रचार के दौरान ट्रंप के मुस्लिम-विरोधी बयान के बाद कहा था कि अमेरिका इस्लाम के ख़िलाफ़ नहीं जा सकता और इसके दूरगामी नुक़सान हैं. क्या मैटिस जिस नुक़सान की बात कह रहे थे, वह उन्हें याद होगी...? डोनाल्ड ट्रंप के इस फ़ैसले ने सातों मुस्लिम-बहुल देशों को प्रतिबंधित किया है. यह सभी ग़रीब और अमेरिकी कॉरपोरेट हितों के किसी काम के नहीं हैं, जबकि पूरी दुनिया में इस्लामी आतंकवाद के लिए ज़िम्मेदार 'खाड़ी सहयोग परिषद', यानी जीसीसी के देशों पर कोई बात नहीं की गई. फ़ारस की खाड़ी की पांच बदनाम तानाशाह सरकारें सऊदी अरब, क़तर, कुवैत, बहरीन और संयुक्त अरब अमीरात इस लिस्ट से बाहर हैं, क्योंकि इन देशों में तेल के कारोबार में रिपब्लिकन पार्टी की मित्र कंपनियों के धंधे हैं. अरब का स्विस बैंक 'बहरीन' आज तक अमेरिकी नज़र में स्वच्छ है. इस्लामोफ़ोबिया और नस्लवाद से प्रेरित राष्ट्रपति अपनी नफ़रत में भी धंधा नहीं भूलते. उनकी यही विशेषता आम अमेरिकियों को पसंद नहीं आ रही.

अख़लाक़ अहमद उस्मानी इस्लामी जगत के जानकार हैं...

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