संसदीय कार्यमंत्री एम वेंकैया नायडू अपनी तुकबंदियों के लिए मशहूर हैं। 2004 में वह बीजेपी के अध्यक्ष थे और उन्हीं की अगुवाई में बीजेपी ने लोकसभा का चुनाव लड़ा था। कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियों के साथ आने पर वे अक्सर चुटकियां लेते रहे हैं।
पश्चिम बंगाल में एक−दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ने वाले ये दल दिल्ली में साथ हो गए। वेंकैया इस पर ये कहते हुए ताना मारते थे दिल्ली में दोस्ती कलकत्ता में कुश्ती। अब यही ताना बीजेपी और शिवसेना के संदर्भ में इस्तेमाल हो रहा है क्योंकि महाराष्ट्र में जहां दोनों एक-दूसरे के आमने−सामने हैं, दिल्ली में साथ दिखाई दे रहे हैं।
मोदी सरकार में अनंत गीते भारी उद्योग मामलों के कैबिनेट मंत्री बने हुए हैं। महाराष्ट्र में दोनों पार्टियों के बीच जारी सिर फुटौव्वल के बीच वह न सिर्फ अपने मंत्रालय जाते हैं बल्कि मोदी मंत्रिमंडल के विस्तार के बाद पहली बार हुई मंत्रिपरिषद की बैठक में भी उन्होंने हिस्सा लिया। जब दिल्ली में बीजेपी नेताओं से पूछा जाता है कि क्या गीते इस्तीफा देंगे तो उनका जवाब होता है आप ये सवाल शिवसेना से पूछें।
जब पत्रकार सवाल करते हैं, अगर संसद में किसी बिल पर मतदान के दौरान शिवसेना के सांसद सरकार का साथ नहीं दें तो क्या होगा इस पर वह कहते हैं कि जिस सरकार में उनका मंत्री शामिल है, अगर उस सरकार के किसी फैसले के खिलाफ उसी पार्टी के सांसद संसद में वोट डालते हैं तो आप खुद समझ सकते हैं कि क्या होगा।
यानी बीजेपी को पूरी उम्मीद है कि दिल्ली में ये नौबत ही नहीं आएगी कि शिवसेना उसका साथ छोड़ दे। हालांकि पहले ऐसा हुआ है कि जब राष्ट्रपति चुनाव में शिवसेना ने बीजेपी का साथ नहीं दिया। लेकिन, संसद में यूपीए के खिलाफ तकरीबन हर मुद्दे पर वह बीजेपी के साथ खड़ी नज़र आई है।
लेकिन, शिवसेना के रवैये से बीजेपी के लिए एक बड़ा सिरदर्द खड़ा हो गया है। उसके हाथ से संसद का संयुक्त सत्र बुलाने का ट्रंप कार्ड हाथ से फिसलता नज़र आ रहा है। दरअसल बजट सत्र में जब बीमा विधेयक पर कांग्रेस ने समर्थन नहीं किया तो सरकार के प्रबंधक निजी बातचीत में कहते रहे कि ज़रूरत पड़ने पर संयुक्त सत्र बुला कर ये बिल पास कराया जा सकता है।
अगर शिवसेना के साथ दिल्ली की दोस्ती मुंबई की ही तरह कुश्ती में बदलती है तो बीजेपी का संयुक्त सत्र का ये हथियार कुंद हो सकता है।
संयुक्त सत्र अमूमन बेहद ज़रूरी होने पर बुलाया जाता है। वाजपेयी सरकार आतंकवाद विरोधी कानून पोटा को पारित कराने के लिए संसद का संयुक्त सत्र बुला चुकी है। एनडीए सरकार को राज्यसभा में बहुमत नहीं है और शिवसेना से केंद्र में भी रिश्ते टूटने पर संयुक्त सत्र में भी एनडीए को बहुमत नहीं रहेगा।
संयुक्त सत्र में किसी भी विधेयक को पारित कराने के लिए 392 सांसद होने चाहिएं और अभी एनडीए के पास 396 सांसद हैं। अगर शिवसेना के 21 सांसद, 18 लोकसभा और तीन राज्यसभा इसमें से हटा दिए जाएं तो एनडीए का आंकड़ा 375 बचता है, यानि बहुमत
से 17 कम। ऐसे में एनडीए को संयुक्त सत्र में कोई भी बिल पास कराने के लिए किसी ऐसे दल का साथ लेना होगा जो अभी एनडीए में नहीं है।
हालांकि, सरकार के प्रबंधक आश्वस्त हैं कि ऐसा नहीं होगा। उनके मुताबिक पहली बात तो यह है कि शिवसेना केंद्र में एनडीए का साथ नहीं छोड़ेगी क्योंकि ऐसा होने पर बीजेपी महाराष्ट्र के स्थानीय निकायों में शिवसेना से नाता तोड़ लेगी। उन्हें ये भी उम्मीद है कि देर सवेर महाराष्ट्र में सरकार में हिस्सेदारी को लेकर शिवसेना के साथ समझौता हो जाएगा।
प्रबंधकों का कहना है कि अगर शिवसेना केंद्र में साथ छोड़ती भी है तब भी सत्तारूढ़ दल को समर्थन देने के लिए कई ऐसे दल मिल जाएंगे जो अभी साथ नहीं हैं। इसमें एनसीपी, बीजेडी और एआईएडीएमके का नाम प्रमुखता से लिया जाता है।
मगर, राजनीति में अगर सब कुछ नंबरों के हिसाब से ही होता है तो नैतिकता को लेकर सवाल भी उठते हैं। ये कौन सी नैतिकता है कि ऐसे दो दल जो एक राज्य की विधानसभा में आमने−सामने बैठे हों, केंद्र में साथ मिल कर सरकार चलाएं। विरोध के लिए भी कोई वैचारिक आधार होना चाहिए और समर्थन के लिए भी।
यही सवाल एनसीपी का साथ लेने पर भी उठता है। पर जब राजनीति का एकमात्र लक्ष्य कुर्सी बन जाए तो फिर नैतिकता की बात कौन करे।
This Article is From Nov 12, 2014
अखिलेश शर्मा की त्वरित टिप्पणी : शिवसेना के अलग होते ही मोदी सरकार से छिन जाएगा 'ट्रंप कार्ड'
Akhilesh Sharma, Rajeev Mishra
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Updated:नवंबर 20, 2014 13:11 pm IST
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Published On नवंबर 12, 2014 20:05 pm IST
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Last Updated On नवंबर 20, 2014 13:11 pm IST
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