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This Article is From Oct 27, 2015

अभिषेक शर्मा की कलम से : अंडरवर्ल्ड की सच्ची-झूठी कहानियां...

Written by Abhishek Sharma
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अक्टूबर 27, 2015 14:27 pm IST
    • Published On अक्टूबर 27, 2015 13:35 pm IST
    • Last Updated On अक्टूबर 27, 2015 14:27 pm IST
वे अदृश्य ताकत-से होते हैं, जिन पर जितना लिखा-सुना जाता है, उतना सच होता है या नहीं. यह आम आदमी को शायद ही कभी पता चले, लेकिन वे होते ज़रूर हैं... होते हैं, तभी तो किस्म-किस्म की दंतकथाएं तैयार होती हैं... कुछ सच्ची, कुछ झूठी और कुछ इन दोनों के बीच की...

अंडरवर्ल्ड के डॉन अच्छे कम्युनिकेटर कब हो गए, यह ठीक-ठीक कहना तो मुश्किल है, लेकिन '80 के दशक में जब टैबलॉयड अख़बार धूम मचा रहे थे, डॉक यार्ड के स्मगलर पन्नों पर छाने लगे और धीरे-धीरे अपराधियों और पुलिस को समझ आ गया कि मीडिया किसी को भी क्या से क्या बना सकता है...

तब अंडरवर्ल्ड जैसा कुछ नहीं था, बस चाकू-छुरे चला करते थे। वही चाकू-छुरे और कट्टे चलाने वाले संगठित होते चले गए तो अंडरवर्ल्ड जैसा कुछ बन गया... जो बना, उसमें बड़ा-सा रोल पुलिस का था और छोटा-मोटा रोल मीडिया का भी... मालूम नहीं क्यों, मीडिया ने 'भाई' को भाई ही लिखा, और पूरी दुनिया का 'भाई' बना डाला... और फिर उसके खौफ को अपने कवरेज से कई गुना बढ़ा दिया...

शायद तभी डॉन टाइप के लोगों को समझ आ गया था कि कुछ करो या न करो, मीडिया वालों को फोन ज़रूर घुमाओ... और इस तरह मीडिया का इस्तेमाल शुरू हुआ... मीडिया ने भी उनका हुक्म पूरा बजाया, डॉन के साथ बेअदबी कभी नहीं की... जितने भी फोन कॉल अब तक मीडिया और किस्म-किस्म के डॉन के बीच हुए हैं, उनसे पता चलता है कि हम डॉन या भाई के साथ कितनी इज़्ज़त से पेश आते हैं...

...और फिर एक दौर वह आ गया, जब मीडिया मैसेंजर की तरह काम करने लगा... एक टैबलॉयड की रिपोर्टर साहिबा, पुलिस से होने वाली बातचीत का ब्योरा विदेश में बैठे 'भाई' लोगों को रिले करती थीं... जब अपराधी विदेश भाग गए तो फिर विदेश में भी पार्टियां होने लगीं... इनके ब्योरे चटखारे के साथ छापे जाते और कई बार शिरकत करने की चाशनी भी मिलती... तो यह वह दूसरा चरण था दंतकथाओं, मीडिया और अंडरवर्ल्ड के रिश्तों का...

इस दूसरे दौर में मीडिया का कुछ हिस्सा भी वैसे ही बंट गया, जैसे अंडरवर्ल्ड बंटा... कुछ लोगों को सिर्फ दाऊद एंड कंपनी के फोन आते और कुछ को छोटा राजन के... इस खेमेबाज़ी से पहले दाऊद और छोटा राजन दोनों अखबारों को प्रेस रिलीज़ भेजने जैसे प्रोफेशनल पीआर के काम में माहिर हो चुके थे... एक वह दौर भी आया, जब दाऊद और छोटा राजन जैसे लोग प्रेस के खास हिस्से को यह भी बताने लगे कि कैसे ख़बर छापनी है...

जब टीवी का शुरुआती दौर आया तो बढ़-चढ़कर इंटरव्यू भी मिलने लगे... वक्त की कमी के चलते जब टीवी वालों ने भाई टाइप के लोगों के इंटरव्यू कांटने-छांटने शुरू किए तो उन्होंने रिपोर्टरों को हड़काना शुरू कर दिया... उनकी शिकायत कम टाइम मिलने से थी, और इस तरह से दंतकथाओं वाले अपराधी ग्लोबल हो गए...

ऐसा नहीं है कि सब कुछ मीडिया के एक तबके का ही किया-धरा है, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि जिन तरंगों पर दंतकथाएं सवार थीं, उन्होंने सच्ची, झूठी और उनके बीच के अंतर को खत्म कर दिया... जो अपराधी चंद लोगों का 'भाई' था, उसके पैर पूरे समाज में जमा दिए...

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