देश की अर्थव्यवस्था और मेरी जिंदगी पर एक पत्र

देश की अर्थव्यवस्था और मेरी जिंदगी पर एक पत्र

प्रतीकात्मक फोटो.

प्रधानमंत्री महोदय,

मैं आपके नाम संदेश प्रेषित कर रहा हूं. मैं यह दावा नहीं करूंगा कि यह “किन्हीं आम लोगों” की बात का प्रतिनिधित्व करने वाला संदेश है. मैं तो अपनी बात ही कहूंगा, क्योंकि लोगों की स्थिति-परिस्थिति-पक्षधरता बहुत अलग होती है. मैं तो यह भी दावा नहीं कर सकता कि 130 करोड़ लोगों में से पांच लाख लोग भी मेरी बात से सहमत होंगे. वैसे तो आजकल कोई भी बात कहना खतरे से भरपूर है, फिर भी मैं जिंदा होने का अहसास बनाए रखना चाहता हूं, इसलिए लिख रहा हूं.

मैं पिछले कुछ सालों से यह बात लगातार सोचता हूं कि आखिर भारत नाम का यह देश संचालित कैसे होता है? क्या कोई अदृश्य ताकत इसे चलाती है? मुझे बताया-सिखाया गया कि कोई अदृश्य ताकत नहीं है. भारत की व्यवस्था का संचालन “संविधान” के जरिए होता है. वही संविधान, जिसके सबसे पहले शब्द हैं “हम, भारत के लोग”. इस संविधान में लिखा हुआ है कि हम ऐसा समाज बनाएंगे, जिसमें लोकतंत्र होगा, निजी से सार्वजनिक जीवन में व्यापक प्रभाव रखने वाले व्यवहार का आधार पंथ/धर्म नहीं होंगे. किसी का शोषण नहीं होगा. सबको न्याय का बुनियादी अधिकार है. भारत के भीतर लोगों को कहीं भी विचरण करने का अधिकार होगा, जिस धर्म को लोग मानना चाहेंगे, उसे मानने का अधिकार भी होगा.

मैं केवल अधिकारों की बात नहीं करूंगा. मुझे संविधान में लिखे हुए “नागरिकों के मूल कर्तव्य” भी बहुत भाते हैं. जो बताते हैं कि हम प्राकृतिक पर्यावरण का संरक्षण करेंगे, वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखेंगे, ऐसी रूढ़ियों को समाप्त करेंगे, जिनसे महिला/लैंगिक हिंसा होती है. निजी तौर पर मैं बहुत कोशिश करता हूं कि इन कर्तव्यों का पालन करूं; पर जब मैं इनके पालन की पहल करता हूं तो धरम विरोधी, राष्ट्र विरोधी और विकास विरोधी करार दिया जाता हूं. मैं आपको बताऊं कि यदि अपन संविधान को सचमुच सामने ले आएं तो कम से कम यह तो सोच पाएंगे कि क्या हमारा विकास कहीं संविधान से जुड़ा हुआ है या नहीं? आप जरा सोचिए कि मध्यप्रदेश में पिछले साल 40 जिले सूखे की चपेट में थे और दो महीने बाद 26 जिले बाढ़ की चपेट में. दिल्ली भी जहरीले धुएं में डूबी हुई है. उत्तराखंड लगभग बर्बादी की कगार पर है. इससे पता चलता है कि हमने संविधान का बहिष्कार करके रखा हुआ है.

पिछले कुछ सालों से मैं यह सोच-सोचकर चकरा रहा हूं कि मैं जिस संविधान में विश्वास रखता हूं, वह “राज्य” की व्यवस्था में कहां गुमशुदा हो गया है? अपने संविधान में कहीं पर भी योजना आयोग नाम के संस्थान का जिक्र नहीं था, पर केंद्र और राज्य सरकारों के एक तिहाई बजट की प्राथमिकताओं का निर्धारण योजना आयोग करता रहा. आपने अपने कुछ अनुभवों के आधार पर योजना आयोग को खत्म किया और नीति आयोग बना दिया. नीति आयोग नए रूप में काम करने लगा है, लेकिन इस पूरे दौर में नियंत्रक महालेखाकार (सीएजी), जो कि एक संवैधानिक इकाई है, के द्वारा उजागर की गई बातों को केवल अनुशंसा मानकर छोड़ दिया जाता है. यह क्यों नहीं माना जाता है कि उनका काम अपनी व्यवस्था की कारगुजारियों को अक्सर सही ढंग से उजागर करता है.

अपने संविधान में बजट प्रस्तुति की भी व्यवस्था है. अपनी उम्र के जिस दौर में राज्य और व्यवस्था को समझ रहा था, तब सरकार द्वारा बजट की प्रस्तुति को बहुत सम्मान मिलता था. सरकार की एक विश्वसनीयता थी और नीयत पर शक नहीं होता था. पिछले कुछ सालों से इस बजट प्रस्तुति के क्या मायने रह गए हैं? रेल का भाड़ा साल में कभी भी बढ़ा दिया जाता है? आर्थिक नीति को सीधे प्रभावित करने वाले निर्णय वित्तीय वर्ष के बीचों-बीच कभी भी ले लिए जाते हैं? आप इसे उदारीकरण के नाम पर व्यवस्था का लचीलापन कहेंगे, पर मैं इसे “अर्थव्यवस्था पर सरकार की कमजोर पकड़” के रूप में देखता हूं. जहां सरकार को बार-बार ऐसे निर्णय लेने और बदलने पड़ते हैं, जिनका आम लोगों पर सीधा असर पड़ता है. देश का आर्थिक सर्वेक्षण एक बहुत महत्वपूर्ण नीतिगत दस्तावेज होता है. वह संसद में कब पेश किया जाता है? बजट प्रस्तुति के 1-2-3 दिन पहले? इसका मतलब है कि सरकारें नहीं चाहती हैं कि बजट को आर्थिक सर्वेक्षण के नजरिए से जाना-समझा जा सके, शायद इसीलिए वक्त कम दिया जाता है?

पिछले 26 सालों की आर्थिक नीतियों के तहत यह कहा जाता रहा है कि सरकार की भूमिका नियामक की है यानी सरकार पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, सामाजिक कल्याण आदि के काम न करे, बल्कि नीतियां-नियम बनाए और उनके क्रियान्वयन की निगरानी करे. नियामक की यह भूमिका मुझे बहुत घातक लगती है. मध्यप्रदेश में राज्य विद्युत नियामक आयोग है. वह बिजली की कीमतें तय करता है. जब यह आयोग बनाया गया था तब कहा यह गया था कि व्यवस्था बनाकर बिजली की चोरी रोकी जाएगी. इससे बिजली सस्ती होगी. जब से नियामक आयोग बना, तब से बिजली 400 प्रतिशत मंहगी हो गई. चलिए मान लिए इसके कुछ कारण होंगे; पर रोजगार-सामाजिक सुरक्षा-खाद्य सुरक्षा के अभाव से जूझ रहे 20 हजार गरीब परिवारों को 10 हजार रुपये से लेकर 50 हजार रुपये तक के बिल पहुंचाकर उन्हें प्रताड़ित किए जाने का क्या मतलब है? जो परिवार 1000 रुपये में अपना घर चलाते हैं, उनके लिए न्याय कहां है? उनके लिए तो बस अपमान ही है! ऐसा इसलिए भी हो रहा है क्योंकि बिजली का वितरण अब सरकार के हाथों में नहीं है, बल्कि कंपनी के हाथों में है; जिनका मकसद है केवल मुनाफा! वास्तव में नियामक बनने के दो मकसद होते हैं - एक यह कि सरकार को खुद अपने संसाधन खर्च न करने पड़ें और दूसरा निजी क्षेत्र को मुनाफा दिलाने वाली नीतियां बनाई जा सकें. रेलवे में प्रीमियम तत्काल टिकट से लेकर मध्यप्रदेश सरकार द्वारा तय जमीन के मूल्यों (ताकि पंजीकरण शुल्क खूब मिले) को दोगुना बढ़ा देने के उदाहरण हमारे सामने हैं.

शायद आप जानते होंगे कि मध्यप्रदेश में हर साल लगभग 4500 महिलाओं की मातृत्व मृत्यु होते है और सवा लाख बच्चे अपना पांचवा जन्मदिन नहीं मना पाते हैं; फिर भी मध्यप्रदेश में डाक्टरों के 5000 पद खाली “रखे गए हैं” ताकि बजट बचाया जा सके. जब नीति यह है कि मुझे या मेरे सरीखे लोगों को अपना इलाज निजी क्षेत्र में यानी खुले बाजार में करवाना होगा, जहां मलेरिया के उपचार का खर्चा लगभग 5000 रुपये और डेंगू के इलाज का खर्चा 80 से 120 हजार रुपये तक होता है. जब मुझे अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा के लिए निजी स्कूल कंपनियों में ले जाना है, जहां मुझे सालाना 35 से 50 हजार रुपये खर्च करना होते हैं. जब मुझे भोपाल से इंदौर जाने के लिए निजी कंपनी को उपभोक्ता शुल्क के रूप में हर बार 110 रुपये देना ही हैं, तो मुझसे “कर” क्यों लिया जाता है? मैं मानता हूं कि इससे अपनी सरकार स्कूल-अस्पताल चलाती है और वृद्धि के काम में निवेश करती है; लेकिन जिम्मेदारी तो नहीं लेती है न! मैं उस सरकार में विश्वास कैसे करूं जो एक दिन कहती है कि हमारे राज्य में 20 प्रतिशत की दर से खेती का विकास हो रहा है. दूसरे दिन वही सरकार केंद्र सरकार से कहती है कि 4500 करोड़ रुपये दीजिए, सूखा है, किसानों को देना है. आखिर में 12 रुपये और 65 रुपये के चैक मिलते हैं. यह झूठ सरकारों को छोड़कर बाकी सबकी समझ में आता है, पर बोल नहीं सकते क्योंकि चुप करा दिए जाएंगे.

सरकारों ने मुझे नीति निदेशक तत्वों और मौलिक अधिकारों के बीच पीसकर रख दिया है. जब-जब सरकार यह कहती है कि लोगों का जीवन अधिकार का नहीं बल्कि 'नीति' का विषय है और नीति के संदर्भ में सरकार बाध्य नहीं है; तब-तब “राज्य” में मेरा विश्वास कम होता जाता है. हमारी सरकार के पास एक धर्म विशेष के धार्मिक आयोजन के लिए 5000 करोड़ रुपये होते हैं, किन्तु औषधि युक्त मच्छरदानी के वितरण (जी, केवल वितरण) के लिए 1.30 करोड़ रुपये नहीं होते हैं. जिस राज्य में 45 लाख बच्चे कुपोषित हैं, वहां बच्चों के वजन की निगरानी करने के लिए पंजीयन नहीं छापी जाती है, क्योंकि 2 करोड़ रुपये नहीं होते हैं. हर साल राज्य में 3-4-5-7 लाख लोगों को राजधानी लाने का आयोजन होता है, ताकि मुख्यमंत्री अपनी लोकप्रियता और ताकत का सबको अहसास करवा सकें. शायद इसमें भी धन खर्च होता ही होगा. कितना, आप ही अंदाजा लगा सकते हैं. आपको यह तो पता ही होगा कि मध्यप्रदेश में कुपोषित बच्चों के लिए आवंटित बजट में से सरकार 30 प्रतिशत का मुनाफा कंपनियों को देती है और खुद “कर” के रूप में 14 प्रतिशत लेती है. क्या आर्थिक नीतियों का इंसानियत और मानवीयता से कहीं कोई जोड़ होता है? अपने यहां तो नहीं दीखता.

मैं समझ नहीं पाता हूं कि देश की सरकार की प्राथमिकता क्या है? बुलेट ट्रेन के लिए हम प्रतिबद्ध हैं, पर हर महिला को मातृत्व हक देने के लिए 16 हजार करोड़ रुपये का प्रावधान करने के लिए बिलकुल प्रतिबद्ध नहीं हैं. आप ही बताइए कि मैं सरकार में विश्वास कैसे रखूं? मुझे तो लगता है कि सरकार अपने समाज को ही नहीं पहचानती है. आपको बताऊं कि कुछ महीनों पहले मध्यप्रदेश में खूब सारा प्याज पैदा हुआ. किसान प्याज फेंकने लगा. सरकार ने कहा कि “मैं हूं न!” और 100 करोड़ की प्याज खरीद ली. रखने की जगह तो थी नहीं, तो प्याज सड़ गई. जब प्याज सड़ गई, तो उसे ठिकाने लगाने के लिए और कई करोड़ खर्च कर दिए. कहां है गवर्नमेंट और कहां है गवर्नेंस?

बहुत छोटी सी बात है कि जब गर्भवती महिला को अच्छा खाना और आराम नहीं मिलता है, जब छोटे बच्चों को मां का दूध और पोषण युक्त आहार नहीं मिलता है, तब वे कुपोषण के शिकार होते हैं. कुपोषण का उपचार है अच्छा खाना. आपको बताऊं कि भारत के लोगों की थाली का लगभग 65 प्रतिशत हिस्सा केवल अनाज होता है. सबसे गरीब लोगों की थाली में तो केवल रोटी या चावल ही होता है; जबकि विज्ञान कहता है कि उनके भोजन में 65 प्रतिशत हिस्सा दालों, तेल, दूध, अंडे, मछली, फल, सब्जियों, कंद आदि का होना चाहिए. उन्हें प्रोटीन तो मिल ही नहीं रहा है. मध्यप्रदेश में 153 लाख आदिवासी हैं. जिन्हें अंडे खाने में दिक्कत नहीं है. उनमें कुपोषण भी सबसे ज्यादा है क्योंकि उन्हें अपना पारंपरिक भोजन खाने नहीं दिया जा रहा है. ऐसा क्यों नहीं हुआ कि पोषण की नीति समुदाय की जरूरत और सोच के आधार पर बनती; क्यों “राजसत्ता” अपनी निजी मान्यताओं को लोगों पर थोपती है. इस पर भी जब दूध के पाउडर का विकल्प दिया गया, तो वह भी कचरे में ही गया. अब शायद सरकार सोच रही है कि बच्चों को ऐसा खाना देंगे जो स्थानीय नहीं होता, जिसमें समुदाय की कोई भूमिका नहीं होती. शायद बड़ी कम्पनियां इस धंधे को अपने हाथ में लेंगी.

जब अपन समाज और संस्कृति की बात करते हैं; तब उसमें सबसे महत्वपूर्ण होते हैं लोग, बच्चे, महिलाएं, पेड़, नदियां, चिड़ियाएं, पशुधन, जमीन, बीज आदि. मैं सोचता हूं कि अपनी विकास की नीति से ये सब बाहर क्यों हैं? इन्हें बाहर करके विकास कैसे किया जा सकता है? अपन भारत माता की रक्षा की शपथ लेते हैं, पर कुपोषण के मामले में अपन अपनी ही इंसानी माता पर शक करते हैं कि यदि उन्हें पोषण आहार पकाने का काम दिया गया तो वे बच्चों के लिए मिलावटी खाना बनाएंगी या जहर मिला देंगी? नीतियां और नजरिए में यह दोहरापन क्यों?     

केंद्र सरकार का कुल खर्चा लगभग 19 लाख करोड़ रुपये होता है. राज्यों का जोड़ लिया जाए तो शायद यह 70 लाख करोड़ रुपये से ऊपर जाएगा. यह व्यय किसी मकसद के लिए होता है, लेकिन इसकी निगरानी की व्यवस्था का क्या? हम सामाजिक सुरक्षा पेंशन योजना चलाते हैं, उसके लिए बजट आवंटित करते हैं, औपचारिकता पूरी करने के लिए उसका मूल्यांकन भी करते हैं....कैसा मूल्यांकन कि यह सवाल ही खड़ा नहीं होता कि निराश्रित बुजुर्गों या विधवा महिलाओं को हम 200 या 500 रुपये की पेंशन किस आधार पर देते हैं? यह तय होता है सरकार की प्राथमिकता और सोच से. मैं एक बात बताऊं कि मध्यप्रदेश में पिछले एक साल से लाखों सामाजिक सुरक्षा पेंशन धारक इस पेंशन के लिए भी जूझ ही रहे हैं. अपनी “व्यवस्था” के लोग बूढ़ों की 300 रुपये की पेंशन भी डकार जाते हैं. हमने जब शिकायत की, प्रमाण दिए; तो बताया गया कि सबको सबकुछ मिल रहा है. उन्ही बूढ़ों से स्थानीय स्तर पर ताकत रखने वाले कर्मचारियों ने कोरे कागज पर हस्ताक्षर भी करवा लिए और लिख लिया कि सबकुछ ठीक है. मैं शिकायत नहीं कर रहा हूं, न ही इसकी जांच की मांग कर रहा हूं. मैं तो आपको सिर्फ बता रहा हूं क्योंकि सातवें वेतन आयोग से देश में खुशी की लहर दौड़ रही है और वन रैंक-वन पेंशन का मुद्दा भी हरियाली ला रहा है, ऐसा बताया गया. मैंने सोचा कि मध्यप्रदेश के 26 लाख बूढ़ों, विधवा महिलाओं, विकलांगों, निराश्रितों की बात बता दूं कि सातवें वेतन आयोग द्वारा तय न्यूनतम पेंशन 9000 रुपये है और मध्यप्रदेश के सबसे गरीबों की 300 रुपये. यह भी उन्हें हर महीने ज्यादातर को बहुत कठिन परिश्रम और अपमान के बाद मिलती है. अपना संविधान तो आर्थिक असमानता को मिटाने की बात करता है, पर यह गैर बराबरी क्यों?

आपको बताऊं कि अपने यहां किसी भी मामले में ऐसी शिकायत निवारण व्यवस्था है ही नहीं जो स्वतंत्र हो! अपने यहां शिकायत लेकर उसी के पास जाना पड़ता है, जो उस विषय के क्रियान्वयन के लिए जिम्मेदार है. पिछले दिनों मध्यप्रदेश के रीवा जिले में कुपोषण से बच्चों की मृत्यु हुई. सरकार ने उन्हीं से जांच करवाई, जिनकी लापरवाही से बच्चों की मृत्यु हुई थी? समुदाय और बच्चों के माता-पिता ही झूठे साबित कर दिए गए. मुझे यह बताइए कि विदिशा-सागर राष्ट्रीय राजमार्ग पर मेरे खेत पर ही रोड बना दी गई. इतना ही नहीं जंगल विभाग वालों ने ही खेत पर अतिक्रमण कर लिया. जब मामले के निराकरण की कोशिश की, तो बताया गया कि अब कुछ हो नहीं सकता? मुझे लगता है कि 5 लाख लोगों को छोड़कर बाकी के लोग भी जीवन भर यही सुनते हैं कि अब कुछ हो नहीं सकता, चुप रहो, भूखे रहो!

आपने कम से कम सरकार और ज्यादा से ज्यादा शासन व्यवस्था का मुहावरा दिया था. विमुद्रीकरण के संदर्भ में अब वह मुहावरा मुझे बहुत डरा रहा है. एक तरफ तो आयकर वालों का डर, दूसरी तरफ यह डर कि मैं लेन-देन में तकनीक का उपयोग कैसे करूंगा? दो साल पहले मेरे खाते से एटीएम के जरिए 54 हजार रुपये निकाल लिए गए. जब बैंक से कहा तो पता चला कि बैंक की कोई जिम्मेदारी नहीं होती! जिस एटीएम से राशि निकली उसमें कैमरा नहीं था. फिर एक दिन अखबार में पढ़ा कि लाखों लोगों के खातों की जानकारी हैक कर ली गई है. मैं उस देश से सम्बंध रखता हूं, जिसमें कुछ पूंजी जमा करके रखने की प्रवृत्ति होती है. हम मानते हैं बैंक में रखो, धन सुरक्षित रहेगा. मैं उस दौर में पला-बड़ा, जब हर्षद मेहता बड़ी शख्सियत से रूप में उभरे. दो दशकों में मैंने अपने कई प्रियजनों को बाजार की सट्टाखोरी में बर्बाद होते देखा है. लेकिन सरकार की मौजूदा नीतियां मुझे उस बाजार में जबरदस्ती धकेलना चाहती हैं. क्या हम आर्थिक वृद्धि की विलासिता को अपनी जरूरतों के आसपास केंद्रित नहीं कर सकते हैं? यदि मैं बहुत साधारण जिंदगी जीना चाहता हूं और दूसरों की जिंदगी को बेहतर करने में थोड़ा योगदान देना चाहता हूं तो उस हिसाब से सरकारी नीतियां क्यों नहीं हो सकती हैं?

मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि यदि मेरे पास कुछ सीमित पूंजी है तो सरकार उसे जमा करके उचित ब्याज पर बैंक में क्यों नहीं रखने देना चाहती है? क्यों उस बाजार में डालने के लिए मजबूर कर रही है, जिसमें कोई भरोसा नहीं कर सकता? मैं अपनी पूंजी बचाकर रखना चाहता हूं क्योंकि मुझे लगता है कि जब मैं या मेरा कोई परिजन बीमार पड़ा, तो सरकार मेरे साथ खड़ी नहीं होगी. मैं किसानों को देख रहा हूं. वे बहुत जिम्मेदारी से उत्पादन कर रहे हैं. उन्हें अपने काम की सम्मानजनक मजदूरी भी नहीं मिलती है. वे तो सरकार पर ही विश्वास करते थे. जब विश्वास टूटा तो उन्हें आत्महत्या करना पड़ी. लाखों किसानों ने खुद को मार लिया. सरकार उन्हें “मुआवजा या राहत” देने का सोचती है, यह नहीं सोचना चाहती कि आखिर किसान आत्महत्या कर क्यों रहा है?

विमुद्रीकरण ने मेरी जिंदगी में भी बड़ी हलचल पैदा कर दी है. यदि आप 8 नवंबर 2016 के बाद के उन बयानों को देखें, जो जिम्मेदार लोगों ने दिए हैं, तो पता चलता है कि वे हर एक सामान्य व्यक्ति को कह रहे हैं कि तुम अपराधी, तुम भी अपराधी! लगभग हर रोज सार्वजनिक रूप से धमकी दी जा रही है कि अब मेरी खैर नहीं! आपने जोड़ लगाया होगा कि हर रोज दिए गए निर्देशों को मिलाया जाए तो कोई 45 बार संशोधन आ चुके हैं. दिक्कत संशोधन में नहीं है, दिक्कत इस बात में है कि मुझे यह संकेत दिया जाता है कि तुम्हारे कारण यह संशोधन आया? तुम बार-बार मुद्रा बदल रहे हो? तुम बार-बार मुद्रा निकाल रहे हो? तुमने हमारों जनधन खातों पर कब्ज़ा कर लिया है? यह समझना भी मुश्किल हो रहा है कि सरकार हर व्यक्ति को एक निगरानीशुदा उपभोक्ता (पेटीएम, आनलाइन लेन-देन आदि के जरिए) बनाना चाहती है या वास्तव में व्यवस्था सुधारना चाहती है! व्यवस्था में सुधार के लिए सबसे पहले यह स्वीकार करना होगा कि सरकारी सड़क के निर्माण का बजट उसकी मूल लागत से 4-5 गुना ज्यादा क्यों होता है? यह पूछना शुरू करना होगा कि “इन्वेस्टर समिट या सम्मेलन” के नाम पर जो आयोजन होते हैं, वास्तव में उनका परिणाम क्या निकल रहा है और वास्तव में निवेशक कौन है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि व्यवस्था से जुड़े लोग ही अपनी काली कमाई का निवेश करने में जुटे हैं? चूंकि पारदर्शिता और जवाबदेही नहीं है, इसलिए यह सवाल उठना लाजमी है.

मैं उस सरकार में कैसे विश्वास करूं, जिसमें वे लोग निर्णायक भूमिका में हैं, जो डाऊ केमिकल्स, एनरान, वोडाफोन, मोंसान्तों सरीखी कंपनियों के लिए पैरवी करते हैं. जिनके खुद के निजी स्कूल चलते हैं, वे ही शिक्षा के अधिकार का कानून बनाते हैं. इनकी प्रतिबद्धता कभी ऐसी नहीं होगी कि सरकारी शिक्षा व्यवस्था और स्वास्थ्य व्यवस्था श्रेष्ठ हो.

मैंने अखबारों में पढ़ा कि जून 2014 में भारत में नान परफार्मिंग असेट्स की राशि 234583 करोड़ रुपये थी. जो मार्च 2016 में बढ़कर 539955 करोड़ रुपये हो गई. हमारे अपने स्टेट बैंक आफ इंडिया की हालत खराब हो गई क्योंकि वह पूंजीपतियों के कर्जे माफ करने में जुटा है. यह जो कर्जा बांटा गया है, उसमें मेरा हिस्सा भी है. जब उसे माफ किया जाएगा, तो इसका मतलब है कि मेरी जमा-पूंजी मुझसे ले ली जा रही है. इसके बाद जब मैं काले धन को बाहर निकलवाने की नीति पर नजर डालता हूं, तो मेरे मन में शंका पैदा होती है कि कहीं हमारे बैंक बर्बाद तो नहीं हो गए हैं? जब पूंजीपतियों ने कर्जा नहीं लौटाया, तो सरकार हमसे हमारा धन लेने लगी है, ताकि बैंक बचे रह जाएं. ऐसा लगता है कि हम एक बार फिर निरीक्षक राज में प्रवेश कर रहे हैं. मैं आपको बताना चाहता हूं कि अब गवर्नेंस बहुत कम हो गया है और गवर्नमेंट मेरी नसों में घुस रही है. आपने जो सिर पकड़ा है, वह सही सिर नहीं है.

हो सकता है कि इस पत्र को राष्ट्र विरोधी या किसी की अवमानना का आधार साबित करने की कोशिश की जाए; पर मुझे लगता है कि अपने अहसासों और तर्कों को सामने लाना जरूरी है. हमें खुद पर अहंकार और अंध विश्वास नहीं होना चाहिए और सरकार पर भी; जिम्मेदार लोकतंत्र के लिए नागरिकों का खुद सोचना – समझना और कहना जरूरी है.

सचिन कुमार जैन


(सचिन जैन, शोधार्थी-लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं)

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