
- सहरसा जिले में स्थित विषहरा मंदिर में पुजारी ब्राह्मण नहीं, बल्कि नाई समाज के लोग हैं जो पूजा करते हैं
- मंदिर की मान्यता है कि भगवती की पांचों बहनें एक साथ यहां विद्यमान हैं और भक्तों की आस्था का केंद्र है
- प्रारंभ में मंदिर फूस की झोपड़ी में था , जिसे बाद में भक्तों ने ईंट-खपरैल का रूप देकर विकसित किया
क्या आपने कभी ऐसे मंदिर के बारे में सुना है, जहां पुजारी ब्राह्मण नहीं, बल्कि नाई समाज के लोग हों, यानी वे ही आने वाले श्रद्धालुओं को पूजा कराएं. अगर नहीं, तो इस खबर में आपको बिहार के एक खास मंदिर की कहानी के बारे में बताते हैं, जहां कई सालों से नाई समाज एक खास परंपरा को निभाता हुआ आ रहा है.

भगवती की पांचों बहन एक साथ विद्यमान
सहरसा जंक्शन से पांच किलोमीटर दूर दिवारी गांव में देवी का यह मंदिर अतिप्राचीन है. मान्यता है कि यहां भगवती की पांचों बहन एक साथ विद्यमान हैं. बिषहरा स्थान के नाम से विख्यात यह मंदिर प्राचीन काल में फूस की झोपड़ी में था. बाद में भक्तों ने ईंट व खपरैल का एक छोटा घर बनाकर उसे मंदिर का रूप दे दिया. इसके बाद लोगों की श्रद्धा बढ़ती गई और आज यह काफी विशाल और आकर्षक मंदिर का रूप ले चुका है.

क्या है मंदिर की कहानी?
सहरसा के इस मंदिर को यहां सैंकड़ों वर्षों से चली आ रही परंपरा देश के अन्य सभी मंदिरों से अलग करती है. जब छोटे से बड़े सभी मंदिरों में पुजारी के रूप में ब्राह्मण पुरोहित होने की जरूरत समझी जाती है या ब्राह्मण पुरोहित होने की बाध्यता बनी हुई है, वहां, इस मंदिर में पुजारी ब्राह्मण नहीं, नाई समाज के लोग हैं. बता दें कि इस विषहरा मंदिर में नाई समाज के दो दर्जन से अधिक पुजारी हैं, जो देवी की पूजा करते हैं और यहां आने वाले श्रद्धालुओं को पूजा कराते हैं.

श्रद्धालुओं ने इसे खपरैल घर का दिया रूप
मंदिर के पुजारी एवं ग्रामीणों के अनुसार प्रारंभ में देवी पांचों बहनों के साथ खुले स्थान में स्थापित हुईं. गांव सहित आसपास के लोगों की आस्था बढ़ती गई और भगवती की पूजा करने वालों की संख्या में भी लगातार बढ़ोतरी होती चली गई. पुजारी चंदन भगता ने बताया कि बाद में खुले स्थान को फूस की झोपड़ी का रूप दिया गया. देवी इस झोपड़ी में दशकों तक रहीं. फिर श्रद्धालुओं ने इसे खपरैल घर का रूप दिया.

मंदिर दक्षिण भारत की नागर शैली में बना
लगभग 35 साल पहले ग्रामीणों के सहयोग से एक चबूतरानुमा छतदार कमरा बना. साल 2011 में स्थानीय सांसद दिनेश चंद्र यादव ने इसे नव्य, भव्य और दिव्य रूप देने के प्रण के साथ शिलान्यास कर कार्य आरम्भ कराया. 13 सालों तक लगातार काम चलने के बाद 2024 में यह मंदिर दक्षिण भारत की नागर शैली में बनकर तैयार हुआ. 20 सितंबर 2024 को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस पुनर्निर्माण का लोकार्पण किया.

परंपरा से किसी को कोई आपत्ति नहीं
ग्रामीण डॉ राम बहादुर यादव ने बताया कि यहां प्रारंभ से ही नाई समाज के लोगों द्वारा देवी की पूजा की जाती रही है और यहां आने वाले श्रद्धालुओं की भी पूजा इन्हीं के द्वारा करायी जाती है. सैकड़ों वर्षों से चली आ रही इस परंपरा से किसी को कोई आपत्ति नहीं है.

सहरसा का यह दिवारी स्थान निश्चित रूप से आने वाले समय में भारत, नेपाल या भूटान ही नहीं, पूरी दुनियां के पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करेगा. इसे पर्यटन के मानचित्र पर स्थापित करने की जरूरत है. सहरसा के लोगों के जनसहयोग से इतनी बड़ी इबारत तो लिख दी है. अब सरकार की बारी है. देखने वाली बात है कि वो इस मंदिर को कितनी ऊंचाई दे पाती है.
NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं