बिहार की राजनीति में कुछ चेहरे ऐसे होते हैं, जिनकी कहानी सिर्फ राजनीतिक पदों की नहीं होती, बल्कि एक पूरे वर्ग, एक पूरे समाज की आकांक्षाओं और उम्मीदों को अपने साथ लेकर चलती है. विजय सिन्हा का उदय भी कुछ ऐसा ही है धीरे-धीरे, संघर्षों से भरा और आखिर में सत्ता के शिखर तक पहुंचने वाला. पटना में जब यह तय हुआ कि वे भारी मतों से जीत रहे हैं, तब यह सिर्फ एक सीट या एक व्यक्ति का विजय नहीं थी, यह उस समुदाय की आवाज थी जो लंबे समय से अपने निर्णायक प्रतिनिधित्व की प्रतीक्षा कर रहा था.
विजय सिन्हा किसी बड़े राजनीतिक घराने से नहीं आते. वे एक साधारण शिक्षक परिवार में पले-बढ़े.उनके अंदर का संयम, अनुशासन और मेहनत की समझ यह सब उनके परिवार की जड़ों से आया. डिप्लोमा करने के बाद उन्होंने तय किया कि असली काम जनता के बीच जाकर करना है. इसलिए उन्होंने अपने जीवन की दिशा राजनीति की ओर मोड़ दी.
छात्र राजनीति से संसदीय राजनीति
उनकी शुरुआत छात्र राजनीति से हुई. एबीवीपी में उन्होंने भाषण देने, संघर्ष करने और लोगों की समस्याओं को समझने और सुलझाने का तरीका सीखा. यह वह दौर था जहां उन्होंने खुद को तैयार किया बिना किसी दिखावे, बिना किसी गॉडफादर के.
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साल 2005 में, जब उन्होंने पहली बार लखीसराय विधानसभा सीट जीती, तभी लोगों को एहसास हो गया था कि यह चेहरा आने वाले लंबे समय तक बिहार की राजनीति के केंद्र में रहने वाला है. चुनाव रद्द हो गया, लेकिन उनकी पकड़ बनी रही.
फिर 2010 आया और उसके बाद से हर चुनाव में लगातार जीते. हर बार, बढ़ते हुए अंतर से और हर बार और मजबूत जनसमर्थन के साथ.
साल 2025 के चुनाव में उन्होंने फिर 25 हजार से अधिक वोटों के अंतर से जीत हासिल की है. यह जीत सिर्फ राजनीतिक नहीं थी; यह लोगों का यह विश्वास था कि हमारा आदमी भरोसेमंद है, और अपना वादा निभाता है.विजय सिन्हा के राजनीतिक जीवन में सबसे निर्णायक मोड़ तब आया, जब वे बिहार विधानसभा के अध्यक्ष बने.यह पद आसान नहीं होता. यहां व्यक्ति को कठोर भी होना पड़ता है और निष्पक्ष भी. लेकिन उनका कार्यकाल रिकॉर्ड बना गया. सदन में जितने भी प्रश्न आए, वे लगभग सभी पर चर्चा और जवाब सुनिश्चित करने में सफल रहे. सदन में उनकी सख्ती, नियमों के प्रति निष्ठा और विपक्ष के सामने बिना झुके खड़े रहने का अंदाज, इन सबने उन्हें एक निडर नेता की छवि दी. लोग कहने लगे,''अगर कोई अपने सिद्धांतों पर अडिग रह सकता है, तो वह विजय सिन्हा ही हैं.''
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नेता प्रतिपक्ष के रूप में सरकार पर बोला हमला
जब वे नेता प्रतिपक्ष बने, तब उन्होंने एक अलग ही तस्वीर पेश की. सरकार कोई भी रही हो वह अपनी आवाज दबने नहीं देते थे. वे बिहार की कानून-व्यवस्था, विकास और सरकारी कामकाज पर नजर रखकर चलते थे, और गलतियों पर खुलकर चोट करते थे. उनका यह तेजस्वी तेवर जनता को भरोसा देता था कि अगर यह आदमी सत्ता में आएगा, तो काम जरूर होगा.
भूमिहार जाति बिहार में सदियों से शिक्षित, संगठित और प्रभावशाली रहा है. लेकिन नेतृत्व के शीर्ष पर पहुंचने की उनकी आकांक्षाएं हमेशा थोड़ी अधूरी रह जाती थीं. विजय सिन्हा की उपमुख्यमंत्री बनने तक की यात्रा ने इस खालीपन को भर दिया.बीजेपी ने एक बड़ा सामाजिक संदेश भी दिया. सम्राट चौधरी (कुशवाहा) और विजय सिन्हा (भूमिहार) को एक साथ शीर्ष पर लाकर दिखाया कि यह पार्टी सभी वर्गों को बराबरी का महत्व देती है.
भूमिहार समाज के लिए यह सिर्फ एक राजनीतिक नियुक्ति नहीं बल्कि सम्मान, पहचान और प्रतिनिधित्व की नई उम्र की शुरुआत थी.उपमुख्यमंत्री के रूप में उनके सामने चुनौतियां बड़ी हैं, लेकिन उनका रवैया हमेशा समस्या बढ़ाने का नहीं, समाधान खोजने का रहा है. खनन राजस्व दोगुना करने की उनकी योजना, मक्का उत्पादन बढ़ाने पर जोर, सड़क और बिजली जैसे बुनियादी ढांचे को मजबूत करने की कोशिश ये सब दिखाता है कि वे सिर्फ बैठकें भर नहीं करते, बल्कि जमीन पर बदलाव चाहते हैं.
बिहार की उम्मीद
अब उनसे सिर्फ भूमिहार समाज ही नहीं, बल्कि पूरा बिहार उम्मीद लगाए बैठा है.यही वह सवाल है जो आने वाले समय में तय करेगा कि उनका नेतृत्व कैसा दर्ज किया जाएगा. हां, वे भूमिहार समाज के बड़े चेहरे बन चुके हैं, लेकिन अब चुनौती यह है कि वे सभी समुदायों को साथ लेकर चलें.
उनकी छवि दृढ़, साफ और निर्णय लेने वाली है. अब देखने की बात यह है कि इसी दृढ़ता के साथ वे बिहार को कितनी दूर तक ले जा पाते हैं. बिहार की राजनीति में किसी का उभार सिर्फ पदों से नहीं होता उसके पीछे संघर्ष, लोगों का भरोसा और लगातार किए गए काम जुड़े होते हैं. विजय सिन्हा का उठना सिर्फ व्यक्तिगत सफलता नहीं है, बल्कि एक पूरे सामाजिक ताने-बाने की नई दिशा है. यही कारण है कि आज उनका नाम सिर्फ एक नेता की तरह नहीं लिया जाता, बल्कि एक मजबूत, स्पष्ट और भरोसेमंद नेतृत्व के प्रतीक के रूप में लिया जाता है.
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