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बिहार चुनावः जनता इन मुद्दों पर करेगी विधायकों, प्रत्याशियों के भविष्य का फैसला

बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में वही पार्टी जीतेगी जो राज्य की मुश्किल चुनौतियों को समझते हुए जनता के दिलों में उम्मीद और अवसर की रोशनी जगा सकेगी.

बिहार चुनावः जनता इन मुद्दों पर करेगी विधायकों, प्रत्याशियों के भविष्य का फैसला
  • बिहार के चुनाव को वही पार्टी जीतेगी जो जनता के दिलों में उम्मीद और अवसर की रोशनी जगा सकेगी.
  • बिहार में बेरोजगारी, पलायन, जातीय पहचान, धर्म के आधार पर आबादी और लैंगिक राजनीति का मिलाजुला रूप दिखता है.
  • जीत उस दल की होगी जो बिहार की मौजूदा चुनौतियों का समाधान और उम्मीदों, अवसरों के विजन को अच्छे से पेश करेंगे.
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बिहार की बहुसांस्कृतिक राजनीतिक परिदृश्य में इस साल के विधानसभा चुनाव के नतीजे वो निर्णायक पल होंगे जिसे यहां के ध्यान देने और लाखों की संख्या में लोगों को प्रभावित करने वाले कई मुद्दे तय करेंगे. अगर आप इस पेचीदा ताने-बाने की गहराई में उतरें तो आपको यहां की राजनीति में बेरोजगारी, पलायन, जातीय पहचान, धर्म के आधार पर आबादी और लैंगिक राजनीति का एक मिलाजुला रूप दिखेगा. आपस में गूंथे इस बंधन का एक-एक धागा न केवल मतदाताओं की उम्मीदों को एक आयाम देता है बल्कि मुख्य राजनीतिक किरदारों के लिए भविष्य के संभावित रास्ते भी दर्शाता है.

बेरोजगारी की परती परछाई

इस साल यहां की चुनावी कहानी में बेरोजगारी का भूत मंडरा रहा है — ये उस राज्य के लिए एक ऐसी हकीकत है जहां की आधी से अधिक आबादी 40 साल से कम उम्र की है. बिहार की आबादी की औसत आयु केवल 22 साल है, ये पूरे देश में सबसे कम है, जबकि राष्ट्रीय औसत 28 साल है. राष्ट्रीय जनता दल के 35 वर्षीय नेता तेजस्वी यादव राज्य के हर परिवार के लिए एक सरकारी नौकरी का वादा करके खुद को उम्मीदों की जलती हुई एक मशाल की तरह पेश कर रहे हैं. उनका ये वादा केवल राजनीतिक नारा नहीं बल्कि युवाओं के लिए एक लाइफलाइन है, जो उम्मीद और निराशा के दोहरे द्वंद्व के बीच झूल रहे हैं.  

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हालांकि, तेजस्वी के इस वादे के साथ कई चुनौतियां जुड़ी हुई हैं. अगर वो सत्ता में आते हैं, तो पांच सालों में 1.25 करोड़ से अधिक सरकारी नौकरी कहां से देंगे? इतने बड़े खर्च की रकम कहां से आएगी?

इतना ही नहीं, केंद्र की सत्ता में बैठी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार जिस तरह से बिहार की वर्तमान नीतीश कुमार सरकार की मदद कर रही है, वैसे ही महागठबंधन की सरकार की मदद करेगी इसकी कोई संभावना नहीं है. साथ ही सरकारी नौकरी इजाद करने के मामले में नौकरशाही भी अपनी निष्क्रियता दिखाती है, जो अलग से एक बड़ी चुनौती होगी.

अगर तेजस्वी युवा आबादी की साफ दिखती निराशा का सही इस्तेमाल कर सके तो वो एक ऐसे आंदोलन को गति दे सकते हैं, जो पारंपरिक राजनीतिक सीमाओं को लांघ सकती है. इसके उलट, ऐसे लोकलुभावन वादों पर अगर खड़े नहीं उतरे तो न केवल जनता का विश्वास उन पर कम होगा बल्कि इसका सीधा फायदा लंबे समय से खुद को एक व्यावहारिक नेता के रूप में स्थापित करते आए नीतीश कुमार को मिल सकता है.

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मौके की तलाश में पलायन

बेरोजगारी की परछाई के बीच राज्य से हो रहे पलायन की सच्चाई चुनावी पहेली में एक और मुश्किल परत जोड़ता है. बेहतर मौके की तलाश में लाखों बिहारी युवा राज्य की सीमा के बाहर अन्य राज्यों और यहां तक कि देश की सीमा को भी पार करके अन्य देशों तक पहुंच गए हैं. बड़ी संख्या में मजदूरी और अन्य आम नौकरियों के लिए किया गया ये पलायन केवल आर्थिक आंकड़ा भर नहीं है; ये राज्य के लिए एक गहन भावनात्मक, बौद्धिक और सांस्कृतिक क्षति भी है. परिवार टूट रहे हैं, समुदाय सिमट रहे हैं, और ये सब अस्तित्व की मजबूरी के नाम पर हो रहा है.

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ये नैरेटिव मतदाताओं के मन को टटोलने और उन्हें एक फैसला लेने में अहम भूमिका निभा सकता है. तेजस्वी यादव और प्रशांत किशोर के लिए प्रवासी बिहारी युवाओं की पीड़ा को समझना और उससे जुड़ना जनता से एक मजबूत रिश्ता बनाने का जरिया बन सकता है- खासकर अगर दोनों एक ऐसे बिहार की स्पष्ट तस्वीर पेश करने में कामयाब हो जाएं जहां अवसरों की कमी न हो. साथ ही, इस मुद्दे के गरमाने से नीतीश कुमार की शासन शैली की प्रवासी संकट के चश्मे से जांच हो सकती है, जहां मतदाता ये सवाल उठा सकते हैं कि आखिर उनके युवा आजीविका की तलाश में पलायन के लिए अपनी मातृभूमि छोड़ने पर क्यों मजबूर हैं.

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जाति- एक न बदलने वाली सामाजिक व्यवस्था

जाति पर आधारित राजनीतिक बिहार की अमिट पहचान बनी हुई है. नीतीश कुमार सरकार के कराए जाति सर्वे के 2023 में आए नतीजों ने राजनीतिक दलों को उनकी चुनावी रणनीति इसके इर्द-गिर्द बुनने का अवसर दे दिया है. इस सर्वे में जाति के आधार पर राज्य की आबादी की बसावट और उसकी मौजूदा आर्थिक स्थिति ने न केवल सीटों के बंटवारे बल्कि चुनाव प्रचार में भी अहम किरदार निभाए हैं. कांग्रेस और आरजेडी से बने महागठबंधन को उन जातियों के गठबंधन का लाभ मिल सकता है जो बिहार में खुद को सामाजिक रूप से हाशिए पर मानते हैं.

हालांकि, ये नजरिया दोहरे धार की तलवार की तरह है. कुछ जातियां उन दलों की ओर रुख करेंगी जो उन्हें नेतृत्व देने का वादा करते हैं, वहीं कुछ अन्य जातियां खुद को अलग-थलग महसूस कर सकती हैं, और ये इनके वोटों में विभाजन की वजह बन सकता है. जाति के आधार पर मतदान कुछ दलों के पक्ष में झुकाव ला सकता है तो वहीं दूसरे के समीकरणों में यह अनिश्चितता की एक परत को जोड़ता है.

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मुस्लिम वोट- टूटा हुआ विश्वास

बिहार की आबादी में मुसलमान करीब 18 फीसद हैं, इसलिए उनका वोट बहुत अहम है. यह देखते हुए कि ऐतिहासिक तौर पर इनका झुकाव सेक्युलर पार्टी की तरफ होता है तो इस समुदाय के वोटों का एक बड़ा हिस्सा महागठबंधन के पाले में जाने की स्थिति दिखती है. हालांकि असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम और प्रशांत किशोर की जनसुराज जैसे अपेक्षाकृत नए दलों में मुसलमान समुदाय की रुचियों के संकेत मिले हैं. जेडीयू के पसमांदा मुसलमानों से वोट देने की अपील पूरी स्थिति को और भी जटिल बना सकती है. ऐसे में इस समुदाय के अगर वोट बंटे तो यह उनकी परंपरागत वोटिंग पैटर्न से मेल नहीं खाएंगी. अगर मुसलमान एकजुट होकर महागठबंधन के साथ रहे तो फायदा तेजस्वी यादव को होगा. वहीं अगर ये बंट गए तो एनडीए को लाभ होगा.

शराबबंदी से मिला महिलाओं का साथ

नीतीश कुमार की शराबबंदी नीति को महिलाओं का खासा समर्थन मिला, इसने तेजस्वी यादव की तुलना में उन्हें लैंगिक लाभ के मामले में कहीं आगे ला खड़ा किया. यह मुख्यमंत्री की चुनावी रणनीति का एक अहम हिस्सा साबित हो सकती है क्योंकि यह शराबबंदी जैसी लोक-कल्याणकारी पहल से जनमानस की भावनाओं पर असर डालने वाला कदम साबित हो सकता है. महिलाएं जो राज्य में अब निर्णायक क्षमता रखती हैं, वो नीतीश कुमार को अपने हितों की रक्षा करने वाला मान सकती हैं और इससे मुख्यमंत्री का अपना आधार और मजबूत हो सकता है.
हालांकि ये लाभ की स्थिति तेजस्वी यादव के लिए बहुत बड़ी बाधा नहीं बन सकती. बर्शते कि वो शराबबंदी से जुड़ी घटनाओं पर एक जोरदार कहानी पेश करें; सुरक्षा, रोजगार और नारी सशक्तिकरण से जुड़े व्यापक मुद्दों को मजबूती से उठाएं, तो उन्हें भी महिलाओं के वोट मिल सकते हैं, जो समुचित प्रतिनिधित्व नहीं मिलने से और वर्तमान स्थिति से निराश प्रतीत होती हैं.

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किस्मत किसकी चमकेगी?

जैसे-जैसे मतदान का दिन करीब आ रहे हैं; बेरोज़गारी, पलायन, जातीय पहचान, धर्म के आधार पर आबादी और लैंगिक राजनीति— ये सभी कारक, चुनावी परिदृश्य को जिस तरह बदलेंगे अभी हम उसकी बस कल्पना भर कर सकते हैं. सभी दलों को उत्कट इच्छाओं और समस्याओं के इस पेचीदे जाल से होकर गुजरना ही होगा, ऐसी रणनीति बनानी होगी जो मतदाताओं के दिलों की गहराई तक पहुंच सके.

उम्मीदों और अवसरों के विजन जीत दिलाएंगे

विधायक चुनने की इस कड़ी प्रतिस्पर्धा में जो दल बिहार के सामने मौजूदा विभिन्न चुनौतियों का समाधान करते हुए उम्मीदों और अवसरों के अपने विजन को अच्छी तरह पेश कर सकेगा, वो ही विजेता बनेगा. दांव बड़े हैं, मतदाता युवा और बेचैन हैं, और मुश्किलों से घिरा बिहार का भविष्य अनिश्चित है, जो संभावनाओं के पेंडुलम की भांति एक ओर से दूसरी ओर डोल रहा है.

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