देश में सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने वाले बड़े योद्धा कर्पूरी ठाकुर,लालू यादव के राज्य बिहार में अतिपिछड़ा के साथ इस बार के विधानसभा चुनाव में न्याय होते नहीं दिख रहा है. बिहार विधान सभा चुनाव 2025 में सामाजिक न्याय नारा दम तोड़ते हुए नजर आ रहा है. सामाजिक न्याय का सबसे बड़ा मूल मंत्र है 'जिसकी जितनी आबादी उसकी उतनी हिस्सेदारी'. टिकट बंटवारे के शोरगुल माहौल में सामाजिक न्याय का नारा कहीं न कहीं गुम हो गया है. सभी पार्टियों के टिकट वितरण के बाद तो कम से कम ऐसा प्रतीत होता दिख ही रहा है कि सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले दल अब अपने ही घोषणापत्र और नारों से पीछे हटते दिख रहे है.
यदि आप सभी पार्टियों के टिकट वितरण सूची को देखेंगे तो सत्ता में बराबरी की उम्मीद पालने वाली 36 प्रतिशत अति पिछड़ी, 19 प्रतिशत दलित आबादी, 17 प्रतिशत वाली मुस्लिम आबादी, आपको हाशिये पर खड़ी मिलेगी. सभी दलों ने सामाजिक न्याय के बदले जीत के समीकरण को तरजीह दी है. टिकट उन्हीं को दिए गए जिनके पास बाहुबल, धनबल और प्रभावशाली जनाधार था. यादवों के साथ दशकों से गठजोड़ कर बिहार की राजनीति को प्रभावित करने वाले मुस्लिम मतदाता भी इस बार अपने आपको ठगा हुआ महसूस कर रहा है. सामाजिक प्रतिनिधित्व की बदले जातीय प्रभुत्व,धनबल,बाहुबल ही टिकट वितरण में निर्णायक कारक रहा है.
लालू की पार्टी अतिपिछड़ा के साथ कितनी न्याय कर पाई?
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के लिए टिकट वितरण की प्रक्रिया पूरी होने के बाद राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस पर एक बड़ा आरोप लग रहा है. आरोप यह कि दोनों ही पार्टियां लंबे समय से पूरे देश में जाति आधारित जनगणना की मांग करते हुए 'जिसकी जितनी आबादी उसकी उतनी हिस्सेदारी' की बात करती रही हैं. बिहार में जाति जनगणना कराने वाली इन दोनों ही पार्टियों ने अपने टिकट बंटवारे में अपनी ही सरकार द्वारा करवाए गए जाति जनगणना का मजाक उड़ाया है. साफ लगता है कि टिकट बंटवारे का आधार गरीब और अति पिछड़ों को हिस्सेदारी देना नहीं बल्कि चुनाव जीतने के नाम पर कुछ खास जातियों को मौका दिया गया है. लालू प्रसाद यादव देश में सामाजिक न्याय के सबसे बड़े चेहरे कर्पूरी ठाकुर के बाद दूसरे बड़े नेता माने जाते रहे है. सामाजिक न्याय की बात करने वाली पार्टी राजद भी इस बार अतिपिछड़ा समाज के साथ न्याय करते नजर नहीं आ रही है.
महागठबंधन में राजद को कुल 143 सीटें मिलीं, जिनमें 21 अनुसूचित जाति-जनजाति के लिए आरक्षित हैं. बची 122 सीटों में यादव उम्मीदवारों की संख्या 52 है, जबकि उनकी आबादी मात्र 14 प्रतिशत है. मुस्लिम, जिनकी आबादी 17.7 प्रतिशत है, उन्हें सिर्फ 18 टिकट मिले हैं. यानी मुस्लिम एवं एससी-एसटी आरक्षित सीटों को हटाने पर बची 104 सीटों में से आधे से ज्यादा यादव प्रत्याशी हैं. जाहिर है सत्ता में हिस्सेदारी का सपना दिखाने वाले दलों ने अन्य पिछड़ी जातियों को इस समीकरण से बाहर रखा है.
राजद ने 143 सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा की है. इनमें 52 यादव उम्मीदवार हैं, जबकि 18 मुस्लिम हैं. सत्ताधारी दल के वोट में सेंध लगाने के लिए राजद ने 18 कुर्मी और कुशवाहा को भी उम्मीदवार बनाया है. आठ वैश्य तो 14 सवर्ण उम्मीदवार बनाए गए हैं. सवर्ण में छह भूमिहार, पांच राजपूत और तीन ब्राह्मण हैं. 19 दलितों को भी राजद ने उतारा है. पर दूसरी तरफ देखें तो सामाजिक न्याय की बात करने पार्टी राजद ने मात्र करीब 13 से 15 लोगों को टिकट दिया है, जो EBC समाज से आते है, जबकि राज्य की कुल आबादी में इनकी हिस्सेदारी 36 प्रतिशत से भी अधिक है.
मुस्लिम वर्ग टिकट वितरण में अपने अनदेखी से आहत
राजद की कुल 143 प्रत्याशियों की सूची में सिर्फ 19 मुसलमानों को ही टिकट दिया गया है. बिहार की कुल जनसंख्या की 17 प्रतिशत हिस्सेदारी रखने वाले मुस्लिम समुदाय को अपनी संख्या के हिसाब से बहुत के कम यानी 13 प्रतिशत ही टिकट मिला है. राजद के सबसे मजबूत आधार माने जाने वाली मुस्लिम समाज अपने आपको ठगा हुआ महसूस कर रही है.
कांग्रेस का सामाजिक न्याय का नारा या ढकोसला
राष्ट्रीय स्तर पर जातिवार जनगणना की मांग को लेकर सबसे ऊंची आवाज उठाने वाली कांग्रेस भी बिहार में टिकट देने के वक्त सामाजिक गणित को भूल गई. कुछ वर्षों से सबसे अधिक किस पार्टी ने सामाजिक न्याय का नारा दिया होगा तो वह है कांग्रेस और उसके नेता राहुल गांधी. जब पार्टी ने दलित समाज से आने मल्लिकार्जुन खड़गे को अध्यक्ष बनाया तो लगा कि पार्टी जो कहती है वह करती भी है. इन दिनों राहुल गांधी सबसे सक्रिय कहीं दिखे तो बिहार में दिखे. हर बैठक में सामाजिक न्याय की बात, दलित समाज की उचित भागीदारी देने का दंभ भरते नजर आए. कांग्रेस के प्रत्याशियों की सूची देखेंगे तो सामाजिक न्याय की लड़ाई दम तोड़ते हुए नजर आएगा. महागठबंधन में दूसरे नंबर की पार्टी कांग्रेस के 61 प्रत्याशियों की सूची को देखेंगे तो सवर्ण जाति का प्रतिनिधित्व अधिक दिखेगा.
61 सीटों पर चुनाव लड़ रही कांग्रेस के एक तिहाई से अधिक उम्मीदवार सवर्ण वर्ग से हैं. इनमें भूमिहार आठ, राजपूत पांच, ब्राह्मण सात और एक कायस्थ हैं. पार्टी ने 10 मुस्लिमों को भी टिकट दिया है. पांच यादव, चार कुर्मी-कुशवाहा, तीन वैश्य तो 12 दलित चुनावी मैदान में हैं. पर महतगठबंधन में 15 सीटो पर लड़ने वाले मुकेश सहनी की VIP ने सबसे अधिक 8 अतिपिछड़ों को टिकट दिया है.
सामाजिक न्याय पर फेल होती भाजपा
भाजपा ने भी संख्या आधार पर प्रतिनिधित्व देते हुए नहीं दिखे. भाजपा की 101 प्रत्याशियों की सूची को देखें तो पता चलेगा पार्टी ने सबसे अधिक सवर्ण समाज पर दाव लगाया है. पार्टी ने कुल जनसंख्या के लगभग 15 प्रतिशत आबादी वाले सवर्ण समाज को सबसे अधिक प्रतिनिधित्व दिया है. भाजपा उम्मीदवारों में एक भी मुस्लिम नहीं हैं. भाजपा की कुल 1010 उम्मीदवारों की सूची में 21 राजपूत, 16 भूमिहार, 11 ब्राह्मण, एक कायस्थ, 13 वैश्य, 12 अति पिछड़ा, 7 कुशवाहा, 2 कुर्मी, 12 दलित और 6 यादव हैं.
बिहार की कुल जनसंख्या में 36 प्रतिशत की महत्वपूर्ण हिस्सेदारी रखने वाले अतिपिछड़े समाज से आने वाले केवल 12 लोगों को टिकट दिया है. बिहार भाजपा के सबसे मजबूत अतिपिछड़ा चेहरा माने जाने वाले रामेश्वर चौरसिया जैसे लोगों का इस बार टिकट काट दिया है, जिसका नुकसान पार्टी को शाहबाद और उसके आस पास के क्षेत्रों में उठाना पड़ेगा. वहीं, भाजपा ने 2020 के विधानसभा चुनाव में 15 यादवों को टिकट दिया था, लेकिन इस बार आंकड़ा आधे से भी कम हो गया है.
सवर्णों के चिराग पासवान और उनके सामाजिक न्याय
दलितों की बात करने वाली लोजपा-आर ने भी सबसे ज्यादा अधिक सवर्णों को टिकट दिया है. कुल 29 लोगों की सूची में 10 लोगों को टिकट दिया गया है. लोजपा की सूची देखें तो राजपूत और यादव जाति के 5-5 उम्मीदवारों को टिकट दिया है. वहीं, पासवान एवं भूमिहार से 4-4, जबकि ब्राह्मण, तेली, पासी, सूढ़ी, रौनियार, कानू, रजवार, धोबी, कुशवाहा, रविदास और मुस्लिम समाज से एक-एक कैंडिडेट उतारा गया है. सामाजिक न्याय की बात करने वाले पार्टियों का नारा सिर्फ कागजी बनकर रहा गया है.
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