बिहार की जमीन एक बार फिर सियासी तपिश में झुलस रही है. हवा में ठंडक है, मगर दिलों में हलचल. पटना की भीड़भाड़ से लेकर सीमांचल की धूल भरी पगडंडियों तक, हर नुक्कड़ पर, हर चाय की दुकान पर बस एक ही सवाल गूंज रहा है- कौन जीतेगा? लेकिन इस बार का सवाल केवल जीत या हार का नहीं है. असली सवाल यह है कि जनता ने आखिर किस पर अपना भरोसा जताया है, और क्या इस बार बिहार की जनता ने वाकई अपनी राजनीति की दिशा बदल दी है.
महिलाओं के आत्मविश्वास का वोट
मतदान खत्म हो चुका है. इस बार 66.91% का रिकॉर्ड तोड़ मतदान हुआ है, जिसमें महिलाओं ने 71.6% की भागीदारी दिखाकर इतिहास रच दिया. यह केवल आंकड़ा नहीं, बल्कि एक मौन संदेश है. जनता चुप है, लेकिन उसका वोट बोल चुका है. यह चुप्पी किसी डर की नहीं, बल्कि आत्मविश्वास की है. एक ऐसी खामोशी है, जो कहती है कि बिहार का मतदाता अब नारे नहीं, नतीजे चाहता है.
साख, रणनीति और सोच की लड़ाई
बिहार की राजनीति हमेशा जातीय समीकरणों, सामाजिक गठजोड़ों और भावनात्मक नारों पर टिकी रही है. लेकिन इस बार माहौल कुछ बदला-सा है. लोग कम बोल रहे हैं, पर सोच गहरी हो गई है. हर इलाका, हर चेहरा किसी न किसी राजनीतिक कहानी को दोहरा रहा है. एनडीए और महागठबंधन के बीच यह लड़ाई सिर्फ सीटों की नहीं बल्कि साख, रणनीति और सोच की है.

डिप्टी सीएम की राजनीतिक परीक्षा
सबसे बड़ी और चर्चित टक्कर उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी (NDA) और अरुण शाह (RJD) के बीच है. कोइरी समाज से आने वाले सम्राट चौधरी के लिए यह चुनाव उनकी राजनीतिक विरासत की परीक्षा है. उन्होंने सघन प्रचार, संगठन की मजबूती और प्रशासनिक अनुभव पर दांव लगाया, पर बेरोजगार युवाओं की बेचैनी और उम्मीदों ने समीकरण बदल दिए. पटना के एक युवा मतदाता का कहना था, “हम नेता का चेहरा नहीं, काम देख रहे हैं. वक्त आ गया है कि कोई हमारे लिए नौकरी की बात करे, न कि सिर्फ नारे दे.”
वहीं दूसरे डिप्टी सीएम विजय सिन्हा लखीसराय से एक बार फिर मैदान में हैं. सख्त और प्रशासनिक छवि के लिए प्रसिद्ध सिन्हा के सामने स्थानीय असंतोष और लोगों में बदलाव की चाहत के रूप में इस बार चुनौती बड़ी है. उनके प्रतिद्वंद्वी अमरेश कुमार (RJD) ने युवा और रोजगार के मुद्दे को केंद्र में रखकर माहौल को संतुलित कर दिया है.
मिथिलांचल में जाति नहीं, काम को भी तरजीह
मिथिलांचल की लड़ाई इस बार ‘विकास बनाम सुशासन' की बहस में तब्दील हो गई है. विजय चौधरी (NDA) का शांत और संयमित चेहरा यहां विकास की राजनीति का प्रतीक बन चुका है. गांवों में लोग सड़क, बिजली और सिंचाई योजनाओं को याद करते हैं. मगर अरविंद कुमार साहनी (RJD) का जनसंपर्क और पुराने जातीय समीकरण अब भी मजबूत है. दरभंगा और मधुबनी में नीतीश मिश्रा (NDA) बनाम राम नारायण यादव (RJD) की लड़ाई ने यह साबित किया कि यहां जनता अब सिर्फ जाति नहीं, बल्कि काम को भी तवज्जो दे रही है. एक किसान ने कहा, “हमारे बच्चे बाहर कमाने जाते हैं, अगर कोई यहीं रोजगार दे, वही हमारा नेता है.”
कोसी और सीमांचल में महिलाएं करेंगी खेल
कोसी और सीमांचल के मैदानों में महिला मतदाताओं ने खेल पलट दिया लगता है. धमदाहा की लेसी सिंह (NDA) अपनी नीतियों और महिला सशक्तिकरण योजनाओं के लिए जानी जाती हैं, पर विपक्ष के संतोष कुमार (RJD) ने इस बार विकास के वादों को नए सिरे से चुनौती दी है. सीमांचल के मुस्लिम बहुल इलाकों में जमा खान (NDA) की परीक्षा AIMIM जैसी पार्टियों की मौजूदगी से कठिन हो गई है, जबकि बृज किशोर बिंद (RJD) ने भावनाओं की राजनीति से नई रफ्तार दी है.
मंगल पांडे (NDA) की सीट पर भी सबकी निगाहें हैं. उनकी ब्राह्मण वोटबैंक पर पकड़ मजबूत मानी जाती है, पर इस बार जनता सिर्फ पहचान नहीं, काम देख रही है. स्वास्थ्य सेवाओं और नौजवानों की नाराज़गी ने उन्हें चुनौती दी है. अवध बिहारी चौधरी (RJD) का सधा हुआ प्रचार उन्हें मुश्किल दे सकता है.

आरक्षित सीटों पर भी मुकाबला दिलचस्प है. रतनेश सदा (NDA) सरकारी योजनाओं के बेहतर क्रियान्वयन के दम पर आगे दिखते हैं, मगर सावित्री देवी (RJD) की जमीनी पकड़ चौंका सकती है. निर्दलीय से मंत्री बने सुमित सिंह (NDA) अब भी अपनी जनता के भरोसे पर टिके हैं, और यही उनका सबसे बड़ा बल है.
चुनाव की तीन सबसे बड़ी आवाज
इस बार के चुनाव की तीन सबसे बड़ी आवाज़ें हैं- युवाओं की नाराज़गी, महिलाओं की खामोश भागीदारी और जातीय समीकरणों का बदलता स्वरूप. बेरोज़गारी अब बिहार की सबसे बड़ी राजनीतिक सच्चाई बन चुकी है. “नेता चाहे जो भी आए, नौकरी नहीं मिली तो कुछ नहीं बदला,” भागलपुर के एक युवक की यह लाइन पूरे राज्य की भावना बयां करती है.
महिलाओं की भूमिका पहले से कहीं अधिक निर्णायक रही. शराबबंदी और सामाजिक योजनाएं उनके जीवन में ठोस परिवर्तन लाई हैं. अब वे नारे नहीं, नतीजे देख रही हैं. एक महिला मतदाता ने कहा, “जो घर का भला करेगा, उसी को वोट देंगे.” यही साइलेंट वोट इस बार कई सीटों की तस्वीर बदल सकता है.
14 नवंबर को मतगणना केवल यह तय नहीं करेगी कि अगला मुख्यमंत्री कौन होगा, बल्कि यह भी बताएगी कि क्या बिहार आखिरकार जातीय राजनीति की जकड़न से बाहर निकल पाया है या नहीं. यह चुनाव नेताओं की परीक्षा जरूर था, पर उससे भी बढ़कर यह जनता की परिपक्वता की कहानी है. अबकी बार शायद बिहार यह साबित कर रहा है कि लोकतंत्र में सबसे बड़ी ताकत नारे या चेहरों में नहीं, बल्कि एक मतदाता की उंगली पर लगी स्याही में है, जो चुप रहकर भी इतिहास बदलने की कुव्वत रखती है.
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