
- बिहार चुनाव में बीजेपी की पहली सूची एक राजनीतिक दस्तावेज है जो आने वाले चुनावी समीकरणों की दिशा बताता है.
- BJP ने पुराने कैडर के साथ स्थानीय प्रभावशाली जातियों और अति पिछड़ा वर्ग को साधने का सुनियोजित प्रयास किया है.
- पार्टी की रणनीति में सामाजिक प्रतिनिधित्व, जातीय ताकत का संतुलन और सामाजिक समीकरणों का संकेत भी दिया गया है.
भाजपा ने बिहार विधानसभा चुनाव के लिए अपनी पहली उम्मीदवार सूची जारी कर दी है. यह सूची केवल नामों का समूह नहीं, बल्कि एक राजनीतिक दस्तावेज है जो आने वाले चुनावी समीकरणों की दिशा बताता है. पहली ही निगाह में यह स्पष्ट दिखाई देता है कि भाजपा ने अनुभवी पुराने कैडर को बनाए रखते हुए स्थानीय प्रभावशाली जातियों और अति पिछड़ा वर्ग यानी EBC वर्ग को साधने का सुनियोजित प्रयास किया है. पार्टी की इस रणनीति में सामाजिक प्रतिनिधित्व के साथ-साथ जातीय ताकत का गूढ़ संतुलन भी झलकता है. सूची में जहां अनुभवी कार्यकर्ताओं और पूर्व विधायकों को जगह मिली है, वहीं कई पुराने दिग्गजों की टिकट काटकर नई सामाजिक समीकरणों का संकेत भी दिया गया है.
पुराने चेहरे, नए समीकरण
पूर्व आईआरएस अधिकारी सुजीत कुमार सिंह का नाम चर्चा में है, उन्होंने अपनी पत्नी की जगह टिकट प्राप्त किया है. दूसरी ओर, भाजपा के वरिष्ठ नेता, कई बार के विधायक, पूर्व मंत्री और मौजूदा विधानसभा अध्यक्ष नंद किशोर यादव का टिकट काटकर पार्टी ने एक कुशवाहा चेहरे को उतारा है. यह संकेत है कि भाजपा अब शुद्ध संगठनात्मक अनुशासन से आगे बढ़कर सामाजिक प्रभावशाली वर्गों की ओर देख रही है.
अति पिछड़ा वर्ग पर नया दांव
भाजपा का यह रुझान आकस्मिक नहीं है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय उद्भव के बाद से उत्तर भारत की अति पिछड़ी जातियों में भाजपा को व्यापक स्वीकृति मिली है. यह तथ्य 2014 के बाद के बिहार और उत्तर प्रदेश के चुनावों के परिणामों से स्पष्ट होता है. बिहार में यह वर्ग, जिसकी जनसंख्या लगभग 36% है, लंबे समय से नीतीश कुमार के राजनीतिक प्रभाव क्षेत्र में था. नीतीश जी ने दो दशकों तक इस वर्ग में किसी नए राज्यस्तरीय नेतृत्व के उभार को रोक कर रखा. मगर अब भाजपा इस सामाजिक आधार में स्थायी पैठ बना चुकी है, भले ही उसने अभी तक बिहार से इस वर्ग का कोई राज्यव्यापी चेहरा खड़ा न किया हो.
उम्मीदवार सूची की सामाजिक रचना
इस सूची में भाजपा का समीकरण स्पष्ट दिखाई देता है, पुराने संगठनात्मक कैडर के साथ स्थानीय जातीय प्रभावशाली चेहरों का संतुलन और उनके साथ अति पिछड़े वर्ग का समर्थन जोड़ना. यह रणनीति भाजपा के राष्ट्रीय अभियानों के अनुरूप है, जिसमें पार्टी सामाजिक न्याय की नई परिभाषा 'सबका साथ, सबका विश्वास' के माध्यम से पिछड़ों और अतिपिछड़ों को वैचारिक रूप से जोड़ने की कोशिश करती है.
दिग्गजों और संतुलन का संदेश
पहले ही अनुमान था कि बिहार भाजपा के वरिष्ठ नेता और स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय इस बार प्रत्यक्ष चुनावी रणभूमि में उतरेंगे. भाजपा की पहली सूची ने इस संभावना की पुष्टि की है.
उसी तरह, “हिंदू हृदय सम्राट” और केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह की राजनीतिक पसंद बेगूसराय की कुर्सी पर कायम है, उनके सहयोगी कुंदन कुमार को फिर टिकट मिला है. परंतु समीपवर्ती तेघड़ा सीट से रजनीश कुमार की उम्मीदवारी एक महत्वपूर्ण संकेत है, यह भाजपा की अंदरूनी राजनीति में क्षेत्रीय और जातीय संतुलन बनाए रखने की सूक्ष्म रणनीति है.
गोपालगंज का चौंकाने वाला निर्णय
गोपालगंज जिले के बैकुंठपुर को अक्सर “राजपूतों का चित्तौड़गढ़” कहा जाता है. किंतु इस बार संभावित राजपूत उम्मीदवार की जगह भाजपा ने मिथिलेश तिवारी को टिकट देकर सबको चौंका दिया. यह और भी दिलचस्प है क्योंकि मिथिलेश तिवारी हाल ही में बक्सर लोकसभा चुनाव में हार गए थे. यह निर्णय भाजपा की परंपरागत 'विजय की संभावना' की गणना से हटकर राजनीतिक संदेश की दिशा में उठाया गया कदम प्रतीत होता है.
कुल मिलाकर, भाजपा की यह पहली सूची यह स्पष्ट करती है कि पार्टी अब बिहार में जातीय समीकरणों की नई परिभाषा गढ़ने की कोशिश कर रही है — जहां ब्राह्मण-राजपूत-बनिया का पारंपरिक ढांचा अब कुशवाहा, निषाद, पासवान और धानुक जैसे अति पिछड़े समूहों के साथ राजनीतिक समरसता की कहानी कहने लगा है. भाजपा की यह सूची केवल प्रत्याशियों की नहीं, बल्कि बदलते बिहार के सामाजिक-सांस्कृतिक बदलाव की भी घोषणा है — जहां अब राजनीति जाति की पुरानी जड़ता से निकल कर सामाजिक समावेश की तरफ बढ़ती दिख रही है.
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