
सीमांचल का इलाका आम तौर पर गरीबी, पिछड़ेपन, पलायन, अशिक्षा के लिए जाना जाता है लेकिन, राजनीतिक रूप से संवेदनशील इस इलाके को 'राजनीति की प्रयोगशाला' भी कहा जाता है. इस उपनाम को समय-समय पर यहां के मतदाताओं ने साबित भी किया है. एनडीए हो या महागठबंधन इस इलाके में सबों को ताज मिलता रहा है. वर्ष 2020 के विधानसभा चुनाव में इसी इलाके में एआईएमआईएम ने पांच सीटें जीतकर कई राजनीतिक मिथकों को तोड़ने में कामयाबी हासिल की थी. बसपा सुप्रीमो मायावती ने बिहार विधानसभा की सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ने की आहट सीमांचल में भी महसूस की जा रही है. बुधवार को बसपा के बिहार प्रभारी और नेशनल कोऑर्डिनेटर सांसद रामजी गौतम पूर्णिया पहुंचे. यहां उन्होंने रोड शो और आमसभा में हिस्सा लिया. ऐसे में राजनीतिक गलियारे में यह चर्चा तेज है कि अब तक उत्तर प्रदेश से सटे सीमावर्ती इलाके में सीमित रही बसपा का क्या अगला ठिकाना सीमांचल होगा! सवाल यह भी उठ रहे हैं कि अगर सीमांचल के सभी सीटों पर बसपा अकेले चुनाव लड़ती है तो किसकी राह कठिन और किसकी आसान हो जाएगी!
क्यों महत्वपूर्ण है सीमांचल में बसपा की दस्तक
बसपा 10 सितंबर से बिहार में चीफ नेशनल कोऑर्डिनेटर आकाश आनंद के नेतृत्व में 'सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय, जागरूकता यात्रा' निकाली. उसके इस अभियान को विधानसभा चुनाव का शंखनाद माना जा रहा है. इसी बहाने पार्टी अपने सांगठनिक ढांचे को खड़ा करना चाहती है. इस यात्रा का हिस्सा सीमांचल भी बना जहां आनंद के बाद पार्टी के सबसे मजबूत स्तंभ सांसद रामजी गौतम का पूर्णिया दौरा कई कयासों को जन्म दे रहा है. कयास इसलिए भी की ठीक इसी समय एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी भी सीमांचल के दौरे पर हैं. एक चर्चा तो यह भी है कि, अकेले चुनाव लड़ने का दावा करने वाली बसपा एआईएमआईएम के साथ भी चुनावी गठबंधन कर सकती है. अगर ऐसा होता है तो सीमांचल के इलाके में बड़े उलटफेर से इनकार नहीं किया जा सकता है. ऐसे कयास में इसलिए भी दम है कि 2020 विधानसभा चुनाव में ओवैसी, मायावती और ओमप्रकाश राजभर की पार्टी ग्रैंड डेमोक्रेटिक सेक्युलर फ्रंट बनाकर चुनाव लड़ चुकी हैं.
पूर्णिया में पहली बार बसपा ने बुधवार को रोड शो के जरिए अपना शक्ति प्रदर्शन किया. इसमें राज्यसभा सांसद रामजी गौतम और प्रदेश अध्यक्ष शंकर महतो समेत प्रदेश स्तर के कई नेता शामिल हुए. इस दौरान गौतम ने कहा कि बसपा बिहार के सभी सीटों पर स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ेगी. हम यूपी की सबसे बड़ी पार्टी रह चुके हैं. हमारी पार्टी ने चार बार विधानसभा चुनाव जीता और सरकार बनाई. वहीं, कॉर्डिनेटर अनिल कुमार ने कहा कि बसपा सीमांचल के सभी विधानसभा सीटों से चुनाव लड़ने का मन बनाया है. उन्होंने कहा कि निश्चित रूप से परिणाम सकारात्मक और चौंकाने वाले होंगे. मतलब बसपा सीमांचल की सभी 24 सीटों पर चुनाव लड़ेगी.

बसपा के राज्य सभा सांसद रामजी गौतम ने बुधवार को पूर्णिया में रोड शो किया था.
बसपा क्यों अकेले लड़ना चाहती है चुनाव
बसपा का बिहार में भी खासकर सीमावर्ती क्षेत्र रोहतास, कैमूर, बक्सर आदि में राजनीतिक प्रभाव रहा है. वर्ष 2020 में कैमूर के चैनपुर से बसपा के जमा खान ने जीत दर्ज की थी. वो बाद में जेडीयू में शामिल हो गए थे. इस समय वो नीतीश सरकार में कैबिनेट मंत्री हैं. अब सवाल यह है कि सीमावर्ती क्षेत्र से बाहर सीमांचल तक बसपा क्यों राजनीतिक दस्तक दे रही है. वजह साफ है कि बसपा राजनीतिक अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है. बहरहाल, उसके आधार प्रदेश उत्तर प्रदेश में मात्र एक विधायक हैं. वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में तो उसका खाता ही नहीं खुला. इसके बाद हुए महाराष्ट्र, हरियाणा, दिल्ली और झारखंड के चुनाव में भी बसपा का बेहद निराशाजनक प्रदर्शन रहा. ऐसे में राष्ट्रीय दल का दर्जा बरकरार रखने के लिए बिहार में उसका प्रदर्शन बेहतर होना जरूरी है. नियमानुसार, राष्ट्रीय दल के लिए किसी चार राज्य में लोकसभा या विधानसभा चुनाव में न्यूनतम 06 फीसदी वोट हासिल करना जरूरी है या लोकसभा में चार सांसद होना चाहिए या किसी चार राज्य में क्षेत्रीय दल का दर्जा प्राप्त होना चाहिए.
किसे फायदा और किसे नुकसान पहुंचाएगी बसपा
बसपा दलित, अल्पसंख्यक, पिछड़ा और अति पिछड़ा को साथ लेकर चलने की बात करती है. बिहार में दलितों पर चिराग पासवान और जीतनराम मांझी का अधिक प्रभाव है. वहीं पिछडों और अतिपिछड़ों की बात करें तो इसपर नीतीश कुमार का प्रभाव सर्वाधिक माना जाता है. पिछड़ों का कुछ हिस्सा राजद के साथ भी है. अल्पसंख्यकों पर महागठबंधन और एआईएमआईएम की दावेदारी सर्वविदित है. इस इलाके में दलितों में रविदास (चमार) एक ऐसी जाति है जो महागठबंधन के साथ जाती रही है. सीमावर्ती इलाके में यह वर्ग बसपा के साथ मजबूती के साथ खड़ी रहती है. ऐसे में अगर सीमांचल में अगर बसपा अपना उम्मीदवार मैदान में उतारती है तो निश्चित तौर पर इसका अधिक नुकसान महागठबंधन को उठाना पड़ सकता है. लेकिन, बसपा की राह इतनी भी आसान नहीं है. कमजोर संगठन, बड़े चेहरे का अभाव और जिताऊ उम्मीदवार की कमी बसपा की सफलता की राह में रोड़ा साबित हो सकता है. इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि बसपा की भले ही मंशा पूरी न होने पाए लेकिन वह कई कि मंशा पर पानी फेर दे तो किसी को आश्चर्य नही होना चाहिए.
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