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This Article is From Sep 14, 2015

बिहार चुनाव : आखिरकार मान गई 'हम', क्या है जीतन राम मांझी होने का मतलब?

बिहार चुनाव : आखिरकार मान गई 'हम',  क्या है जीतन राम मांझी होने का मतलब?
बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी (फाइल फोटो)
अगले महीने होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव के लिए एनडीए ने सीटों का ऐलान कर दिया है, जिसमें राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी की 'हिन्दुस्तान अवाम मोर्चा-सेक्युलर' (हम) पार्टी 20 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। महज़ 10 महीने के लिए मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे मांझी पर इस चुनाव में सबकी नज़र रहेगी। आइये समझें 20 सीटों पर लड़ने से अधिक क्या जीतन राम मांझी और उनके महादलित होने का इस चुनाव पर असर।

पिछले लोकसभा चुनाव में करारी हार झेलने के बाद नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया और दलितों की मुसहर जाति से ताल्लुक रखने वाले मांझी को अपनी कुर्सी पर बैठा दिया, लेकिन नीतीश को कहां पता था कि एक कामचलाऊ व्यवस्था के तहत मुख्यमंत्री बनाए गए इस महादलित से एक दिन उन्हें सीधे ही टक्कर मिलेगी।
 
मांझी का बिहार की कुर्सी पर बैठना और उतरना
2015 के बिहार चुनाव में एक ख़ास जगह रखने वाले मांझी का गांव महाकार बिहार के गया जिले से करीब 40 किमी पूर्व में है और वह मुसहर जाति से ताल्लुक रखते हैं, जो भारतीय समाज में हाशिये पर बैठी एक दलित श्रेणी है। जैसा की नाम से जाहिर है, इस जाति का काम चूहे पकड़ने का रहा है, यही वजह है कि मांझी के मुख्यमंत्री बनने के बाद चूहे अक्सर मज़ाक का केंद्र बने रहते थे।

लंबे समय से बिहार राजनीति में सक्रिय रहे मांझी, बिहार के महादलित मुख्यमंत्री बनाए गए और आगामी विधानसभा चुनाव में दलित वोटरों को लुभाने के उद्देश्य से भी नीतीश की पार्टी जेडीयू को मांझी से बेहतर कोई नहीं सूझा। हालांकि कुछ समय बाद मांझी ने नीतीश और उनकी पार्टी पर आरोप लगाया कि सरकार में उनके पद को अहमियत नहीं दी जा रही। फरवरी 2015 में पार्टी में हालात मांझी के विरोध में होते गए और परिस्थितिवश उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। नीतीश कुमार दोबारा मुख्यमंत्री पद पर आसीन हो गए।

एनडीए ने मिलाया मांझी से हाथ
विधानसभा चुनाव में दलितों के वोटों को लेकर जेडीयू ने जो रणनीति तय की थी, मांझी के पार्टी से निकलने के बाद वह सब गड़बड़ा गई है, लेकिन 'किसी का नुकसान तो किसी का फायदा' की तर्ज पर अब एनडीए के लिए यह महादलित, बिहार चुनाव के बैलट बॉक्स में दलितों की उंगलियों तक पहुंचने का रास्ता बन गया है।
 
जानकारों का कहना है कि सर्वाधिक वंचित जातियों को 'महादलित' का नाम देने वाले नीतीश कुमार को मांझी को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाना भारी पड़ सकता है। मांझी के मुख्यमंत्री बनने के बाद दलितों ने काफी सपने बुन लिए थे जिसे नीतीश ने झटके में ही तोड़ दिया, इसका असर जेडीयू के वोटों पर पड़ सकता है।

गौरतलब है कि जीतन राम मांझी, बिहार में मुसहर जाति के सबसे बड़े नेता हैं और इस जाति के वोटों का प्रतिशत करीब 5.5 है। इंडिया टुडे में छपी रिपोर्ट के अनुसार राज्य की कुल आबादी का 15.9 प्रतिशत हिस्सा अनुसूचित जाति का है जो कुल मतदाताओं का 18.44 प्रतिशत है। अनुसूचित जाति का करीब 70 फीसदी हिस्सा रविदास, मुसहर और पासवान जाति का है।

मांझी और दलितों की उम्मीद
एक बंधुआ मज़दूरों के परिवार में जन्मे मांझी ने अपने सीमित मुख्यमंत्री कार्यकाल में अपनी जाति के उद्धार से जुड़े कुछ अहम फैसले किए जैसे दलितों को ज़मीन मुहैया करना, दलित लड़कियों के लिए मुफ्त शिक्षा और पासवानों को महादलित में शामिल करना है। इन फैसलों के बाद विधानसभा चुनाव में दलितों को मांझी से और ज्यादा उम्मीदें हो गईं हैं और इसी आस का फल है कि एनडीए ने पहली बार चुनाव लड़ने वाली मांझी की (हम-एस) पार्टी को 20 सीटों का आवंटन किया है।
 

हालांकि अपनी लोकप्रियता के लिए मांझी अपने पूर्व पार्टी के नेता नीतीश कुमार को धन्यवाद दे सकते हैं, जिन्होंने हालात वश ही सही मुख्यमंत्री की कुर्सी पर उन्हें बिठाया। इससे पहले मांझी जूडीयू की सरकार में अनुसूचित जाति-जनजाति कल्याण मंत्रालय संभाल रहे थे। 80 के दशक में सक्रिय राजनीति का हिस्सा बने मांझी को करीब 30-35 साल बाद अपने वर्चस्व को दिखाने का मौका मिला है, देखना होगा कि जीतन से उम्मीद लगाने वाले दलित एकमत होकर इस लड़ाई को जीत पाते हैं या नहीं।

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