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पश्चिमी यूपी में जाट समुदाय को सभी पार्टियों से शिकायत है
जाटों के बीच नोटबंदी और आरक्षण के मुद्दे को लेकर नाराज़गी है
इसके बावजूद उन्हें लगता है कि बीजेपी के अलावा कोई और विकल्प नहीं है
इसके ठीक बाद दिए गए एक इंटरव्यू में राणा ने साफ किया कि उनका मतलब मुसलमानों के खिलाफ कोई कार्यवाही करने से नहीं था, बल्कि कर्फ्यू लाने से उनका मतलब उन इलाकों में कानून और व्यवस्था में सुधार लाने से था जहां अपराध ज्यादा होते हैं. विधायक की कर्फ्यू वाली बात का सभागार में मौजूद 2 हज़ार लोगों ने तो स्वागत किया लेकिन बाहर विधायक की स्पीच को ज्यादा तवज्जो नहीं दी गई. हम कुछ लोगों से मिले जो बीजेपी घोषणा पत्र में किए गए उन वादों पर बात करना चाहते थे जिसमें मैकेनिकल बूचड़ खाने पर प्रतिबंध और कैराना जैसी जगहों से हिंदुओं के 'पलायन' की जांच की बात कही गई थी.
वैसे जाटों के बीच मुज्जफ्फरनगर के सांसद और जाट नेता संजीव बालियान के उस वादे को लेकर ज्यादा उत्साह नज़र आया जिसमें उन्होंने कहा कि अगर बीजेपी की सरकार बनती है तो गन्ना किसानों को 14 दिनों के अंदर भुगतान किया जाएगा. गौरतलब है कि ज्यादातर इस भुगतान में चीनी मिल के मालिक साल-साल भर लगा देते हैं.

यह देखा गया कि राणा की सभा में शामिल बहुत सारे जाट किसान धर्म के इर्द-गिर्द घूम रहे एजेंडे को स्वीकार करने के मूड में नहीं हैं. गौरतलब है कि पश्चिमी यूपी में 17 प्रतिशत आबादी जाटों की है यानि 403 सीटों में से 77 सीटों पर उनका कब्ज़ा है. कहा जाता है कि राज्य की करीब 50 सीटों का फैसला जाट समुदाय के हाथ में है.
सालों से जाट समुदाय, अजीत सिंह और उनकी पार्टी राष्ट्रीय लोकदल का समर्थन करती आई है. आरएलडी, मनमोहन सिंह की गठबंधन सरकार का हिस्सा भी रह चुका है. लोकसभा चुनाव से ठीक पहले यूपीए ने उत्तरप्रदेश के जाटों को ओबीसी में शामिल करके केंद्रीय सरकार द्वारा नौकरियों में दी जाने वाले आरक्षण का हकदार बनाने का फैसला किया था. लेकिन अजीत सिंह और उनके बेटे जयंत चौधरी दोनों ही चुनाव हार गए. युवा जाट जो सरकार द्वारा बेहतर नौकरी के वादों से ऊब चुकी थी, वह उस वक्त बीजेपी के पीएम उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के विकास संबंधित वादों से ज्यादा उत्साहित लगे.

लेकिन पिछले साल हरियाणा में हुए जाट आंदोलन जिसमें 19 लोग मारे गए और 170 घायल हुए, उसने इस समुदाय को चिंता में डाल दिया है. वह निराश है कि इस उग्र आंदोलन के बावजूद वह सरकारी नौकरी और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण नहीं पा सके हैं.
कुछ और बड़ी शिकायतें भी हैं. जीतेंद्र सिंह, मुज्जफ्फरनगर के पास पिन्ना गांव में छोटे से किसान हैं. उनकी छोटी सी बचत के साथ वह एक हार्डवेयर का व्यापार शुरू करना चाते थे लेकिन कृषि बदहाली और नोटबंदी ने उन्हें उलटा कर्जे में डाल दिया है. उन्होंने कहा 'हमने सोचा था कि 280 रुपये से गन्ने का दाम बढ़कर 350-500 रुपये प्रति क्विंटल हो जाएंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ. इस बीच चीनी मिल वाले हमें भुगतान करने में बहुत ज्यादा देरी लगाते हैं, जबकि सरकार उन्हें ब्याज मुक्त लोन दे रही है.' जीतेंद्र आगे कहते हैं 'इससे कमाई पर बहुत बड़ी मार पड़ी है. हमें मजबूरन 3400 रुपये क्विंटल की जगह गुड़ को 2500 रुपये क्विंटल से भी कम में बेचना पड़ा है.'

लेकिन इन सबके बावजूद जाट समुदाय के पास बीजेपी के अलावा कोई और विकल्प नज़र नहीं आ रहा. जाटों ने कभी भी दलितों के साथ वोट नहीं दिया, न ही मायावती की बीएसपी का समर्थन किया. सपा-कांग्रेस गठबंधन को लेकर भी जाट काफी उत्साहित नहीं है क्योंकि वहां मुसलमान वोटों को ज्यादा तवज्जो दी जा रही है. हालांकि उन्हें लगता है कि अजीत सिंह किसानों की समस्या पर गौर कर सकते हैं लेकिन कईयों को 77 साल के आरएलडी प्रमुख में अब वो बात नहीं रही. यही नहीं, अजीत सिंह की पार्टी ने इस इलाके में कई मुसलमान उम्मीदवारों को भी उतारा है - इन सबको देखकर कुछ जाटों को लगता है कि उनके पास बीजेपी को सपोर्ट करने के अलावा कोई चारा नहीं बचता. हालांकि जाटों के इस इलाके में एक बात जो बार बार सुनने को मिल रही है वो यह कि - इसका मतलब ये नहीं है कि हम सब सांप्रदायिक हैं या हम केंद्र में बीजेपी सरकार के काम से खुश हैं. लेकिन कोई भी पार्टी हमें आगे रखकर नहीं सोच रही है.'
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