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This Article is From Mar 12, 2015

दोस्ती की कलम से आईएएस बनने का लक्ष्य!

धमतरी:

साठ के दशक में बनी फिल्म 'दोस्ती' में आंख और पैर से नि:शक्त दो मित्रों की कहानी को बेहतर तरीके से फिल्मांकित किया गया था। फिल्म काफी सफल रही और आज भी उसके सदाबहार गीत गुनगुनाए जाते हैं। ऐसी ही एक दोस्ती पिछले तीन साल से निभाई जा रही है और जिसका लक्ष्य है भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) के लिए चयनित होना।

पीजी कॉलेज धमतरी में रविशंकर विश्वविद्यालय की परीक्षाएं शुरू हो चुकी हैं। लोगों की नजर कक्षाओं में परीक्षा दे रहे विद्यार्थियों पर थी तो जिज्ञासा इस बात पर थी कि दो छात्राओं को कक्षा से बाहर क्यों कर दिया गया है। पहले तो लगा कि जगह के अभाव में ऐसा किया गया होगा। फिर एक ही टेबल और बेंच पर दो छात्राओं का मामला समझ में नहीं आया। क्योंकि कुरूद की दोनों बेटियां प्रथमदृष्टया में किसी भी तरह से शारीरिक रूप से अक्षम नहीं लग रही थीं। परीक्षा के तीन घंटे पूरे होने का इंतजार किया गया जिसके बाद जो हकीकत सामने आया वह सचमुच में बेटियों के नाम से सीना चौड़ा करने वाला था।

कुरूद के टिकेश्वर चन्द्राकर की बेटी कुमारी आकांक्षा चन्द्राकर जन्मजात दृष्टिहीनता की शिकार है। लेकिन पढ़ाई-लिखाई के साथ बाकी कामकाज में उसकी कोई सानी नहीं है। पिता ने बेटी की कुशाग्रता को परखा और कोई कसर नहीं छोड़ा उसके आगे बढ़ने में। आज आकांक्षा बीए अंतिम की परीक्षा दे रही है। पिछली दो वर्षों में करीब 55 प्रतिशत का अंक अर्जित उसने किया था। उसे पूरा विश्वास है कि इस बार भी वह 55 प्रतिशत तक अंक तो अर्जित कर ही लेगी।

आकांक्षा ने बताया कि उनके पिता के मित्र खेम चन्द्राकर पुस्तकों को पढ़कर सीडी में रिकार्ड करते हैं। जिसके बाद उसे प्लेयर में चलाकर आकांक्षा अपना कोर्स पूरा करती है। परिवार के सभी सदस्य आकांक्षा को पुरजोर मदद करते हैं।

पिछले तीन सालों से आकांक्षा की कलम बनी हुई कुरूद के समीपस्थ ग्राम भाठागांव की सरिता विश्वकर्मा और आकांक्षा का मिलाप भी विशेष खोजबीन का नतीजा है जो उसके पिता टिकेश्वर और मित्रों के सहयोग से संभव हो सका। कक्षा 12वीं की परीक्षा दिला रही सरिता को आकांक्षा का सहयोग करने में कोई भी दिक्कत नहीं आती। जब आकांक्षा से पूछा गया कि वह इतना कठिन परिश्रम कर स्नातक की उपाधि क्यों लेना चाहती है तो उसने बताया कि ईश्वर ने उसे आंखें देने में त्रुटि कर ली, लेकिन बुद्धि पर्याप्त दी है। फिर आईएएस बनने और पद को निभाने के लिए बुद्धि की ही तो जरूरत पड़ती है।

कहने का आशय है कि आकांक्षा पीएससी की तैयारी कर सीधे कलेक्टर की कुर्सी पर बैठकर उन नि:शक्तों के लिए प्रेरणा बनना चाहती है जो अपनी कमजोरियों को अपनी ताकत नहीं बना सकते। इधर आकांक्षा की सहयोगी सरिता का सपना भी कुछ कम नहीं है। वह आकांक्षा के नक्शेकदम पर चलकर आईपीएस बनना चाहती है।

उसका मानना है कि देश में कानून एवं व्यवस्था की स्थिति को जितनी भलीभांति महिलाएं बनाए रख सकती हैं उतना दूसरा और कोई नहीं कर सकता। फिलहाल इन प्रेरणादायी बच्चियों का हौसला काबिले तारीफ है।

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