उत्तर प्रदेश के दूर-दराज़ के गांव में रहनेवाले एक आम रिक्शा चालक की ज़िंदगी में आख़िर किसकी रूचि हो सकती है भला? लेकिन निर्देशक राज आशु ने ना सिर्फ़ एक रिक्शा चालक की साधारण सी जिंदगी पर फ़िल्म बनाई है, बल्कि उसे बड़े ही असाधारण अंदाज़ में पेश भी किया है. अपनी पत्नी और बेटी से बेहद प्यार करनेवाले रिक्शा चालक रामभरोसे रोज़ाना अपनी साधारण सी कमाई के बूते परिवार को पालते-पोसते ज़रूर हैं मगर उनकी ज़िंदगी में बदलाव लाने के सपने से वो कोसो दूर हैं. अपनी मेहनतकश ज़िंदगी के जाल में उलझे रामभरोसे को एक दिन ऐसी सवारी मिलती है जो उनकी साधारण सी ज़िंदगी को उलट-पलट के रख देता है. 3 दिन के लिए अपनी रहस्यमयी सवारी के साथ तमाम जगहों पर जाने के बाद रामभरोसे रोमांच की एक ऐसी दुनिया में पहुंच जाता है कि उसे ख़ुद भी यकीन नहीं होता है कि आख़िर उसके साथ क्या हो रहा है. कहानी को देखें तो इस फिल्म को 3.5 स्टार मिलनी चाहिए. अपनी अनूठी सवारी के साथ गुज़रनेवाले रिक्शा चालक के 'वो 3 दिन' फ़िल्म को एक अलग मकाम पर ले जाते हैं.
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एक रिक्शा चालक के किरदार में संजय मिश्रा ने कमाल का अभिनय किया है. संवाद बोलने का उनका सधा हुआ अंदाज़, हर परिस्थिति को मन की गहराई से महसूस करने के बाद अभिनय करने की उनकी ख़ासियत एक एक्टर के तौर पर उन्हें बाक़ी कलाकारों से अलग ठहराती है. 'वो 3 दिन' उनके फ़िल्मी सफ़र का एक ऐसा अहम पड़ाव है जिसे लम्बे समय तक याद किया जाता रहेगा.
पंचम सिंह द्वारा निर्मित 'वो 3 दिन' में राजेश शर्मा, चंदन रॉय सान्याम, पूर्वा पराग, पायल मुखर्जी, अमज़द क़ुरैशी ने भी बढ़िया अभिनय किया है. सीपी झा का लेखन और राज आशु का निर्देशन 'वो 3 दिन' की साधारण सी कहानी को असाधारण और दर्शनीय बनाता है.
इस में कोई दो राय नहीं है कि गांव की मिट्टी में रची-बसी, गांव की साधारण सी ज़िंदगियों को दिलचस्प तरीके से उकेरती फ़िल्म 'वो 3 दिन' को देखने के बाद दर्शक एक बेहतरीन फ़िल्म देखने के एहसास के साथ सिनेमघरों के बाहर निकलेंगे और यही फ़िल्म की सबसे बड़ी कामयाबी होगी. आप भी किसी भी क़ीमत पर इस फ़िल्म को देखना ना भूलें.
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