नई दिल्ली:
करगिल युद्ध को 13 बरस पूरे हो गए, लेकिन इससे जुड़ी कुछ यादें ऐसी हैं, जो कल ही की बात लगती हैं। जल्दी घर आने, मकान की मरम्मत कराने का वादा कर या फिर संतान के रूप में एक बार फिर अपना बचपन जीने की उम्मीद लिए कई फौजी मातृभूमि की रक्षा के लिए प्राण न्योछावर कर गए और पीछे छोड़ गए कभी न खत्म होने वाला इंतजार।
1999 में हुए करगिल युद्ध में विजय की 13वीं वषर्गॉंठ मनाई जा रही है और इन दिनों नई दिल्ली में पदस्थ मेजर चक्रधर को अपने दोस्त 31 वर्षीय मेजर पद्मपाणि आचार्य की याद ताजा हो गई, जो करगिल अभियान में दुश्मन की गोलाबारी में शहीद हो गए थे।
21 जून, 1968 को हैदराबाद में जन्मे पद्मपाणि ने उस्मानिया विश्वविद्यालय से स्नातक किया था। उनके सहयोगी और सहपाठी मेजर चक्रधर ने बताया, हम 1993 में साथ-साथ सेना में शामिल हुए थे। मद्रास में प्रशिक्षण के बाद पद्मपाणि को राजपूताना रायफल में कमीशन मिला और असम तथा दिल्ली में उनकी पोस्टिंग हुई।
मेजर चक्रधर ने बताया, मैं कंप्यूटर इंजीनियर हूं और मुझे पहले दिल्ली भेजा गया और फिर कश्मीर। जब पद्मपाणि की कश्मीर में पोस्टिंग हुई, तब हम दोनों मिले। 1996 में उनकी शादी हुई थी। वह पिता बनने वाले थे कि करगिल युद्ध शुरू हो गया। वह शहीद हो गए। उनके पिता जगन्नाथम भारतीय वायुसेना में थे और अब सेवानिवृत्त हो चुके हैं। उन्हें अपने बेटे की शहादत पर गर्व होता है। पद्मपाणि का छोटा भाई कैप्टन संभव आचार्य भी सेना में है।
दिल्ली की एक कंपनी में काम कर रहे भवानी सिंह की आंखें अपने पिता सूबेदार भंवर सिंह राठौर को याद कर नम हो जाती हैं। भवानी सिंह कहते हैं, राजस्थान के पाली जिले के बेहसाना गांव में हमारे पुश्तैनी मकान पर आज भी बापूसा के नाम की तख्ती लगी है। उनका सामान उसी तरह रखा है, जैसा वह खुद रखते थे। उनका स्कूटर भी खड़ा है, जिस पर उन्होंने बहुत शौक से 'आर्मी' लिखवाया था।
भवानी कहते हैं, मेरे पिता भंवर सिंह करगिल सेक्टर में 17 जून को दुश्मन की गोलाबारी में शहीद हुए थे। तब उनके सेवानिवृत्त होने में मात्र 44 दिन बाकी थे। 31 जुलाई को उन्हें सेवानिवृत्त होना था और मेरी बड़ी बहन की शादी की तैयारी करनी थी। मेरी तीन बहनें हैं। दादी और मां मेरे पिता की वापसी का इंतजार कर रही थीं। वह इंतजार, इंतजार ही रहा। सूबेदार भंवर सिंह राठौर के भाई लांसनायक गिरधारी सिंह राठौर राजपूताना राइफल्स रेजिमेंट में हैं।
बिहार रेजीमेंट के गणेश यादव करगिल युद्ध से तीन माह पहले ही अपने घर आए थे। पटना जिले के पांडेचक गांव में रह रहे उनके पिता रामदेव प्रसाद ने फोन पर बताया, उसने वादा किया था कि वह अगस्त में छुट्टी लेकर आएगा और मकान की मरम्मत करवाएगा। वह तो नहीं आया, करगिल की लड़ाई में उसकी शहादत की खबर आ गई। उन दिनों उसका बेटा डेढ़ साल का था।
प्रसाद कहते हैं, वह तीन भाइयों में सबसे बड़ा था। उसकी याद बहुत आती है। कोई भी त्योहार या खुशी का मौका उसकी मौजूदगी से यादगार बन जाता था। मुझे खुशी है कि वह देश की खातिर शहीद हुआ। मई 1999 में शुरू हुआ करगिल युद्ध दो माह चला और यह भारत की पर्वत चोटियों पर कब्जा कर चुके पाकिस्तानी सैनिकों को खदेड़े जाने के बाद ही खत्म हुआ था।
इस लड़ाई में भारतीय सेना के 527 अधिकारी, सैनिक और जवान वीरगति को प्राप्त हुए थे, जिनमें से बहुतों को मरणोपरांत वीरता पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
1999 में हुए करगिल युद्ध में विजय की 13वीं वषर्गॉंठ मनाई जा रही है और इन दिनों नई दिल्ली में पदस्थ मेजर चक्रधर को अपने दोस्त 31 वर्षीय मेजर पद्मपाणि आचार्य की याद ताजा हो गई, जो करगिल अभियान में दुश्मन की गोलाबारी में शहीद हो गए थे।
21 जून, 1968 को हैदराबाद में जन्मे पद्मपाणि ने उस्मानिया विश्वविद्यालय से स्नातक किया था। उनके सहयोगी और सहपाठी मेजर चक्रधर ने बताया, हम 1993 में साथ-साथ सेना में शामिल हुए थे। मद्रास में प्रशिक्षण के बाद पद्मपाणि को राजपूताना रायफल में कमीशन मिला और असम तथा दिल्ली में उनकी पोस्टिंग हुई।
मेजर चक्रधर ने बताया, मैं कंप्यूटर इंजीनियर हूं और मुझे पहले दिल्ली भेजा गया और फिर कश्मीर। जब पद्मपाणि की कश्मीर में पोस्टिंग हुई, तब हम दोनों मिले। 1996 में उनकी शादी हुई थी। वह पिता बनने वाले थे कि करगिल युद्ध शुरू हो गया। वह शहीद हो गए। उनके पिता जगन्नाथम भारतीय वायुसेना में थे और अब सेवानिवृत्त हो चुके हैं। उन्हें अपने बेटे की शहादत पर गर्व होता है। पद्मपाणि का छोटा भाई कैप्टन संभव आचार्य भी सेना में है।
दिल्ली की एक कंपनी में काम कर रहे भवानी सिंह की आंखें अपने पिता सूबेदार भंवर सिंह राठौर को याद कर नम हो जाती हैं। भवानी सिंह कहते हैं, राजस्थान के पाली जिले के बेहसाना गांव में हमारे पुश्तैनी मकान पर आज भी बापूसा के नाम की तख्ती लगी है। उनका सामान उसी तरह रखा है, जैसा वह खुद रखते थे। उनका स्कूटर भी खड़ा है, जिस पर उन्होंने बहुत शौक से 'आर्मी' लिखवाया था।
भवानी कहते हैं, मेरे पिता भंवर सिंह करगिल सेक्टर में 17 जून को दुश्मन की गोलाबारी में शहीद हुए थे। तब उनके सेवानिवृत्त होने में मात्र 44 दिन बाकी थे। 31 जुलाई को उन्हें सेवानिवृत्त होना था और मेरी बड़ी बहन की शादी की तैयारी करनी थी। मेरी तीन बहनें हैं। दादी और मां मेरे पिता की वापसी का इंतजार कर रही थीं। वह इंतजार, इंतजार ही रहा। सूबेदार भंवर सिंह राठौर के भाई लांसनायक गिरधारी सिंह राठौर राजपूताना राइफल्स रेजिमेंट में हैं।
बिहार रेजीमेंट के गणेश यादव करगिल युद्ध से तीन माह पहले ही अपने घर आए थे। पटना जिले के पांडेचक गांव में रह रहे उनके पिता रामदेव प्रसाद ने फोन पर बताया, उसने वादा किया था कि वह अगस्त में छुट्टी लेकर आएगा और मकान की मरम्मत करवाएगा। वह तो नहीं आया, करगिल की लड़ाई में उसकी शहादत की खबर आ गई। उन दिनों उसका बेटा डेढ़ साल का था।
प्रसाद कहते हैं, वह तीन भाइयों में सबसे बड़ा था। उसकी याद बहुत आती है। कोई भी त्योहार या खुशी का मौका उसकी मौजूदगी से यादगार बन जाता था। मुझे खुशी है कि वह देश की खातिर शहीद हुआ। मई 1999 में शुरू हुआ करगिल युद्ध दो माह चला और यह भारत की पर्वत चोटियों पर कब्जा कर चुके पाकिस्तानी सैनिकों को खदेड़े जाने के बाद ही खत्म हुआ था।
इस लड़ाई में भारतीय सेना के 527 अधिकारी, सैनिक और जवान वीरगति को प्राप्त हुए थे, जिनमें से बहुतों को मरणोपरांत वीरता पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
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