यह ख़बर 28 जून, 2012 को प्रकाशित हुई थी

प्रणब... ऐसी शख्सियत जिसके लिए गठबंधन पीछे छूट गए

खास बातें

  • इसे प्रणब का जादू ही कहा जाएगा कि जब उनका पर्चा भरा गया, तो समाजवादी पार्टी और बहुजन समाजवादी पार्टी एक साथ दिखीं। ऐसी शख्सियत, जिसके लिए पार्टियां गठबंधन को दरकिनार करती दिखीं।
नई दिल्ली:

देश के राष्ट्रपति पद के लिए पर्चा भरकर प्रणब मुखर्जी जिंदगी और सियासत के एक अहम मुकाम पर पहुंच गए। इस मौके पर पूरी यूपीए एकजुट देखने को मिली। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी समेत सहयोगी दलों के नेता भी दिखे।

इसे प्रणब का जादू ही कहा जाएगा कि जब उनका पर्चा भरा गया, तो समाजवादी पार्टी और बहुजन समाजवादी पार्टी भी एक साथ बैठी दिखी। एक ऐसी शख्सियत, जिसके लिए राजनीतिक पार्टियां गठबंधन को दरकिनार करती दिखीं। अब इसे दादा का दम कहिए या फिर उनकी लोकप्रियता, जिसका अहसास हर किसी को है। तभी तो जब रायसीना की रेस में नामों को लेकर अटकलें लगनी लगीं, तो कांग्रेस ने प्रणब को उतारने का फैसला किया।

एक ऐसा नाम, जिस पर सहयोगियों के ऐतराज की गुंजाइश सबसे कम थी। लिहाजा यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी ने राष्ट्रपति पद के लिए प्रणब मुखर्जी के नाम का ऐलान किया। इसके साथ ही देश के सबसे अनुभवी और कद्दावर नेता प्रणब मुखर्जी रायसीना की राह पर चल पड़े।

प्रणब मुखर्जी के लंबे राजनीतिक करियर और अनुभवों का हवाला देते हुए यूपीए गठबंधन ने देश की सभी पार्टियों के सांसदों और विधायकों से भी समर्थन की अपील भी की है। और खुद प्रणब मुखर्जी को भी इस बात का पूरा यकीन है कि उन्हें हर तरफ से मदद मिलेगी। बीते 30 सालों में वक्त का असर भले ही देखने को मिला हो, लेकिन प्रणब के अंदाज जस के तस हैं। प्रणब के बजट भाषणों पर पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने एक बार कहा था कि भारत के सबसे छोटे वित्तमंत्री ने सबसे लंबा भाषण दिया।

जहां तक पढ़ाई की बात है प्रणब मुखर्जी ने इतिहास, राजनीति शास्त्र और कानून की पढ़ाई की है। लेकिन बजट मैनेज करने का काम वह शुरुआत से ही करते रहे हैं। उनके बड़े भाई के मुताबिक बचपन में मां सामान लाने के लिए गिनकर पैसे देतीं, फिर भी प्रणब उसमें से मिठाइयां खरीद लाते थे। एक बार जब बड़े भाई ने पूछा, तो प्रणब का जवाब मिला, मां पैसे तो हमेशा गिन कर देती है, लेकिन सामान को हमेशा तोलती थोड़े ही है।

नपे-तुले संसाधनों में कटौती के जरिए दूसरी जरूरतें पूरी करने का यह तरीका प्रणब आज भी लागू करते हैं। प्रणब अपने तीन भाई बहनों में सबसे छोटे हैं। पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले के एक छोटे से गांव मिराती में पले-बढ़े प्रणब के पिता एक शिक्षक थे, जो कांग्रेस से भी जुड़े रहे। उनके पिता स्वतंत्रता सेनानी थे, जो आजादी से पहले जेल भी गए।

प्रणब मुखर्जी को घर के बड़े बुजुर्ग प्यार से पोल्टू पुकारते हैं। हर किसी को इस बात पर हैरानी होती कि प्रणब अगर किसी चीज को एक बार देख लेते, तो वह उन्हें हमेशा के लिए याद हो जाती। तभी तो आज की तारीख में उनके करीबी प्रणब मुखर्जी की तुलना किसी चलते फिरते इनसाइक्लोपीडिया से करते हैं।

प्रणब दा ने राजनीति की शुरुआत 60 के दशक में बांग्ला कांग्रेस से की। और जल्द ही यानी 1969 में वह राज्यसभा के सदस्य बनकर पहली बार दिल्ली पहुंचे। तब दिल्ली में उनकी कोई खास पहचान नहीं थी और वह सदन की पिछली लाइन में बैठने वालों में थे, लेकिन सदन में उनका दूसरा भाषण ही लाजवाब रहा। खचाखच भरे सदन में बैंकों के राष्ट्रीयकरण के मुद्दे पर भाषण देते प्रणब को देखकर इंदिरा गांधी प्रभावित हो गईं और इसके बाद इंदिरा तथा प्रणब की पहली मुलाकात हुई।

फिर 1972 में जब बांग्ला कांग्रेस टूटकर कांग्रेस से जा मिली, तो प्रणब मुखर्जी, इंदिरा गांधी के करीबी और भरोसेमंद लोगों में शुमार हो गए। इसके अगले ही साल यानी 1973 में वह उद्योग उपमंत्री बने। तब से लेकर अभीतक अगर अपवाद के तौर पर राजीव सरकार को छोड़े दें, तो जब भी कांग्रेस सत्ता में रही, प्रणब मुखर्जी के पास अहम मंत्रालय रहे सिर्फ गृह मंत्रालय को छोड़कर।

अपने लंबे सियासी करियर और बेशुमार अनुभवों की वजह से प्रणब अक्सर सेकेंड प्राइम मिनिस्टर कहे जाते हैं और कई बार प्रधानमंत्री की जिम्मेदारियां भी उठाई है, लेकिन खुद कभी प्रधानमंत्री नहीं बन सके। हो सकता है प्रणब दा इसे अपनी हसरत के तौर पर देखें, लेकिन उनके परिवार को इस बात का जरा भी मलाल नहीं रहा। बेटे का कहना है कि वह तो उनके लिए हमेशा से ही पीएम रहे हैं। और जब मौका उनके राष्ट्रपति बनने का आया, तो घर से लेकर गांव तक हर तरफ खुशी की लहर दौड़ गई।

रायसीना की रेस में उतरते ही दादा नंबर वन पर आ गए। जब चाहने वाले इतने खुश हैं, तो घर वालों की पूछिये ही मत। देश के सबसे हाईप्रोफाइल पदों को संभालने वाले प्रणब मुखर्जी का परिवार बेहद लो प्रोफाइल रहता है। इस बात से भी पर्दा उठा कि कभी-कभार अगर दादा अपने गुस्से को लेकर चर्चा में आए, तो इसके पीछे की वजह उनका जिम्मेदारियों की वजह से खानपान और आराम से हुए समझौते रहे हैं। प्रणब के बेटे अभिजीत सरकारी नौकरी छोड़कर राजनीति में कूदे हैं। पिता की वजह से राजनीति की डगर इतनी कठिन नहीं रही, लेकिन राजनीतिक रिश्तों को बनाए रखने की अहमियत खूब समझते हैं।

पर सवाल सिर्फ सियासी रिश्तों को बनाए रखने का ही नहीं, अपनी जमीन से जुड़ाव का भी है, जिसमें कभी कोई बदलाव नहीं आया। राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनने के बाद प्रणब जब वक्त निकालकर अपने गांव पहुंचे, तो वहां उनका जोरदार स्वागत हुआ। कतार में खड़े बच्चे बूढ़े और महिलाओं ने फूल बरसाकर उनका स्वागत किया। बात आस्था और विश्वास की भी है, तभी तो गांव के शिवमंदिर में इस दौरान प्रणब दा के नाम से पूजा जारी रही।

देश की बड़ी जिम्मेदारियां निभा रहे प्रणब न तो अपने गांव को कभी भूले और न ही गांववालों को। स्कूल के दिनों के दोस्त रहे बलदेव राय बताते हैं कि प्रणब जब भी गांव आते हैं, उनका हालचाल जरूर लेते हैं। प्रणब मुखर्जी ने किन्नरहाता शिवचंद्र स्कूल से अपनी पढ़ाई की। और बाद में इसकी नई इमारत बनवाने में मदद भी दी। स्कूल ने भी अपने होनहार छात्र से जुड़े दस्तावेज बचा कर रखे हैं। रिकार्ड्स के मुताबिक 3 जुलाई, 1948 को प्रणब मुखर्जी ने यहां दाखिला लिया था। स्कूल का फैसला अब सही साबित हो रहा है। उनके बीच पला-पढ़ा पोल्टू अब प्रणब मुखर्जी के नाम से देश का पहला नागरिक बनने वाला है।

हालांकि कायदे से देखा जाए, तो यह काम पांच साल पहले यानी 2007 में ही हो जाना चाहिए था। लेकिन माना जाता है कि कुछ पुरानी गांठे रास्ते का रोड़ा बन गई। कांग्रेस यही कहती रही कि वह पार्टी के ऐसे संकटमोचक हैं, जिनके बिना काम चलना मुश्किल है।

अगर किसी नेता की अहमियत को उसकी ज़िम्मेदारियों से तौला जाए, तो कांग्रेस में प्रणब दा के आस−पास भी कोई नहीं है। यूपीए के द्वारा अब तक बनाए गए 183 मंत्री समूह यानी मंत्रियों के समूह में से 80 की अध्यक्षता प्रणब मुखर्जी ने की है। सबसे विवादित माने जाने वाले मुद्दों जैसे लोकपाल और तेलंगाना पर बनाए गए मंत्रियों के समूह की अगुवाई भी प्रणब मुखर्जी ने की है। और प्रणब मुखर्जी हमेशा से सरकार के संकटमोचक रहे हैं।

उन्हें विपक्षी पार्टियों में कांग्रेस के सबसे स्वीकार्य चेहरे का दर्जा भी हासिल है। यह सही है कि राजनीतिक दलों के बीच प्रणब मुखर्जी की लोकप्रियता का कोई मुकाबला नहीं है, लेकिन कहीं न कहीं अपनी ही पार्टी की टॉप लीडरशिप के साथ उनके संबधों में कोई पेंच जरूर रहा है। कांग्रेसी भी मानते हैं कि सोनिया गांधी ने मुश्किल राजनीतिक हालात में हमेशा प्रणब पर भरोसा किया, लेकिन उन्हें कभी प्रधानमंत्री का पद नहीं देंगी। लेकिन अब वक्त बदल रहा है। आने वाले दिनों में बतौर राष्ट्रपति उनकी चुनौतियां बिल्कुल नई तरह की होंगी, लेकिन इस बात पर भी शक नहीं कि हमेशा की तरह वह आगे भी कामयाब रहेंगे।

रायसीना की रेस में प्रणब मुखर्जी सबसे आगे हैं, जिन्हें यूपीए गठबंधन के अलावा दूसरे दलों से भी समर्थन हासिल है। गठबंधन में अगर किसी का विरोध है, तो वह नाम ममता बनर्जी का है, जिसे लेकर प्रणब ने अभी तक उम्मीद नहीं छोड़ी है। उधर, दूसरी तरफ प्रणब के मुकाबले में पीए संगमा मैदान में हैं, जिन्हें बीजेपी, बीजेडी और जयललिता की एआईएडीएमके का समर्थन हासिल है। लेकिन ममता को लेकर दोतरफा खींचतान जारी है।

दरअसल इस बार के राष्ट्रपति चुनावों की बात करें तो शुरुआत ही धमाकेदार रही, जिसकी शायद ही किसी को उम्मीद रही हो। मुलायम और ममता ने जब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के सुझाए नाम खारिज कर अपने तीन विकल्प दिए, तो देश में एक तरह से सियासी सुनामी आ गई। गठबंधन सरकार के हिलते-डुलते रिश्तों से मीडिया के कैमरे चिपक गए। ममता ने तो बाकायदा कलाम को जीत की बधाई तक दे दी। यह अलग बात है कि कलाम ने रेस में उतरना मंजूर ही नहीं किया।

हकीकत तो यह है कि राष्ट्रपति के नाम पर सारी अटकलबाजियां तभी तक रहीं, जबतक प्रणब मुखर्जी के नाम का ऐलान नहीं हुआ। उसके फौरन बाद ही तस्वीर साफ होने लगी। मुलायम ने फौरन प्रणब के नाम पर मुहर लगा दी। हालात के मुताबिक फैसला लेना प्रणब मुखर्जी की खासियत रही है। खासकर कब, कहां और क्या बोलना है, इसमें भी उनका जवाब नहीं।

प्रणब दा को हिन्दी बोलते लोगों ने शायद ही कभी सुना हो, पर चुनाव प्रचार इलाहाबाद में करना हो तो बंगाली या अंग्रेजी बोलने का कोई मतलब नहीं बनता। इसलिए दादा ने हिन्दी में भाषण दिया। यह वही दादा हैं, जिन्होंने एक बार कहा था कि वह प्रधानमंत्री नहीं बन सकते, क्योंकि उन्हें हिन्दी नहीं आती। वैसे हिन्दी आना, न आना अलग बात है, पर उन्हें बोलना आता है, जो सबसे पते की बात है। लंबे और नजदीकी रिश्ते के बावजूद ममता बनर्जी के कड़े विरोध को देखकर जहां घरवाले तक हैरान दिखे, उतने पर भी प्रणब मुखर्जी का बड़ा ही संजीदा और नपा-तुला बयान आया कि वह मेरी छोटी बहन जैसी हैं।

मौजूदा आंकड़ों के तहत प्रणब की राह बहुत मुश्किल नहीं दिखती। दरअसल यूपीए के 42 फीसदी वोट हैं, जिनमें तृणमूल के 4.4 फीसदी वोट शामिल हैं। अगर उसे हटाकर समाजवादी पार्टी के 6.2 फीसदी जोड़ दें, तो आंकड़ा 43.8 फीसदी होगा। इसमें लेफ्ट के 4.7 फीसदी जोड़ने पर 48.5 फीसदी वोट हो जाते हैं। और अब बीएसपी के 3.8 फीसदी का समर्थन मिलने से समर्थन 52.3 फीसदी यानी प्रणब की जीत पक्की हो जाती है। जबकि एनडीए के पास सिर्फ 28 फीसदी वोट है।

हालांकि इन आंकड़ों में थोड़ी बहुत फेरबदल हो सकती है, क्योंकि आंध्र प्रदेश में हुए उपचुनावों के नए नतीजों से इसमें थोड़ा बदलाव आएगा। लेकिन जो बड़ा बदलाव आएगा, वह है प्रणब का रुतबा। वैसे सच कहा जाए तो मौजूदा हालात में प्रणब के लिए राष्ट्रपति भवन सबसे माकूल जगह है। वक्त के साथ उनका सब्र भी कहीं न कहीं जवाब दे रहा था। इस दौरान वह कई बार कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मुलाकात कर साफ कर चुके थे कि अब वह अगला चुनाव नहीं लड़ेंगे।

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साथ ही 77 साल की उम्र में अब वह टीम राहुल का भी हिस्सा नहीं बन सकते। ऐसे में गठबंधन की इस राजनीति में काफी कम विकल्प बचते हैं। और सबसे अहम बात यह कि मौजूदा हालात में प्रणब मुखर्जी जैसी स्वीकायर्ता किसी और की नहीं है।