यह ख़बर 31 जुलाई, 2012 को प्रकाशित हुई थी

भ्रष्टाचार के खिलाफ बेहद सख्त थे छत्रपति शिवाजी

खास बातें

  • छत्रपति शिवाजी के सौतेले मामा मोहिते ने रिश्वत ली, यह जानकारी महाराज को मिली तो उन्होंने तत्काल उसे कारागार में डाल दिया और छूटने पर पिता शाह जी के पास भेज दिया।
नई दिल्ली:

भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे का आंदोलन हाल में शुरू हुआ है, लेकिन इतिहास गवाह है कि यह समस्या कोई नयी नहीं है और इस मुद्दे को लेकर पहले भी छत्रपति शिवाजी जैसे कई शासकों ने कड़ा रूख अख्तियार किया था।

अनिल माधव दवे ने अपनी पुस्तक ‘शिवाजी एंड सुराज’ में लिखा है, ‘‘महाराज को राज व्यवहार में भ्रष्टाचार, चाहे वह आचरण में हो या अर्थतंत्र में, बिल्कुल अस्वीकार्य था। उनके सौतेले मामा मोहिते ने रिश्वत ली, यह जानकारी महाराज को मिली तो उन्होंने तत्काल उसे कारागार में डाल दिया और छूटने पर पिता शाह जी के पास भेज दिया।’’

बीते दिनों रिलीज हुई पुस्तक के अनुसार, ‘‘इसी प्रकार एक दबंग ने गरीब किसान की भूमि हड़पने की कोशिश की। शिवाजी ने अपने पद एवं शक्ति का गलत प्रयोग करने वाले उस बड़े किसान को न केवल दंडित किया, बल्कि गरीब की भूमि भी सुरक्षित करवा दी।’’

अपने अधिकारियों को लिखे 13 मई 1671 के एक पत्र में शिवाजी लिखते हैं, ‘‘अगर आप जनता को तकलीफ देंगे और कार्य संपादन हेतु रिश्वत मांगेंगे तो लोगों को लगेगा कि इससे तो मुगलों का शासन ही अच्छा था और लोग परेशानी का अनुभव करेंगे।’’

राज्यसभा सदस्य दवे ने कहा, ‘‘छत्रपति शिवाजी भ्रष्टाचार के सख्त खिलाफ थे। इसमें केवल आर्थिक नहीं, बल्कि चारित्रिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार भी शामिल था। उनकी भ्रष्टाचार की परिभाषा बेहद व्यापक थी, जिसकी हिमायत सभी देश भक्त नागरिक कर रहे हैं।’’

पुर्तगाल के वायसराय कॉल डे सेंट विंसेंट ने 20 सितंबर 1667 के पत्र में लिखा है, ‘‘धूर्तता, साहस, संचालन और सैन्य सूझबूझ में शिवाजी की तुलना सीजर एवं अलेक्जेंडर से की जा सकती है।’’

किताब में दवे ने लिखा है, ‘‘शिवाजी जानते थे कि भ्रष्टाचार एक तरह से विषकन्या है और विरोधी अपने हित साधने के लिए इस मार्ग का भरपूर प्रयोग करते हैं। राजमहल में सेंध एवं राज्यकर्ताओं का व्याभिचार अंत में राज्य की पराजय का कारण बनता है। अत: इस तरह के भ्रष्टाचार के प्रति उन्होंने अत्यंत कठोर व्यवहार रखा।’’
किताब के मुताबिक, ‘‘शिवाजी सर्वत्यागी सन्यासी नहीं थे। वे शासक थे। उन्होंने अपने राज्य विस्तार के लिए युद्ध लड़े, हमले किए, दुर्गों को जीता और अन्य राज्यों से संधि तथा वार्ताएं कीं। ऐसा करते समय उन्होंने साम, दाम, दंड, भेद का भरपूर प्रयोग किया। उन्होंने विजय प्राप्ति हेतु दुश्मनों को जहां आवश्यक लगा, सभी प्रकार के प्रलोभन दिए लेकिन स्वयं को नारी एवं किसी भी प्रकार के प्रलोभन से न केवल मुक्त रखा बल्कि अपने सहयोगी को भी ऐसा नहीं करने दिया।’’

उन्होंने लिखा है, ‘‘शिवाजी का स्वराज्य हो या गांधी का स्वदेशी। भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम हो या फ्रांस की क्रांति। रूस में मिखाइल गोर्बाचोव द्वारा प्रारंभ ग्लासनॉट अथवा पेरेस्त्रोइका का सुधार आंदोलन हो या अमेरिका का स्वतंत्रता संग्राम, सभी समाज में घुमड़ती ‘स्व’ के भाव की अभिव्यक्तियां ही हैं, जिसका जन्म किसी नायक से या नायक के बगैर हुआ।’’

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मुगल दरबार के इतिहासकार गफी खान जैसा उनका विरोधी भी लिखता है, ‘‘शिवाजी अपनी प्रजा में मान मर्यादा बनाए रखने के लिए हमेशा सावधान रहे। वे दुश्मन को लूटते और उनके क्षेत्रों में विद्रोह खड़ा करते थे, लेकिन अशोभनीय कामों से वह हमेशा दूर रहते थे। जब भी कोई मुस्लिम महिला या बच्चे युद्ध या मुहिम में उनके कब्जे में आते तो वह उनके सम्मान का पूरा ध्यान रखते थे। उनकी यह दृष्टि राजदर्शन का अंग थी।’’