संरक्षित वन क्षेत्र में उद्योगों को आवंटन का मामले में उत्तर प्रदेश सरकार को सुप्रीम कोर्ट में फटकार लगी है. दरअसल राज्य सरकार ने संरक्षित जंगल क्षेत्र में उद्योग और अन्य गतिविधियों की सितंबर 1994 में इजाज़त दी थी. जस्टिस अरुण मिश्रा की अगुआई वाली बेंच ने नाराजगी भरे अंदाज़ में कहा कि 30 साल तक इन्हीं 'गलत' दावों पर सरकार ने कुछ नहीं किया और अब सरकार इनको दी गई इजाज़त कैंसिल करने की गुहार लगा रही है. हैरत की बात है कि राज्य सरकार के पास इन आवंटियों की सूची तक नहीं है. जब सरकार ने कोर्ट को ये बात बताई तो जस्टिस मिश्रा ने कहा कि फिर किस आधार पर अधिकारी उन आवंटियों के दावे पास कर रहे हैं? सुप्रीम कोर्ट ने फटकारते हुए कहा कि 26 साल पहले इजाज़त देने के बाद सरकार इतने साल तक सोती रही और अब अचानक रद्द करने की मांग कर रही है.
कोर्ट ने कहा कि यूपी सरकार का अपने अधिकारियों पर तो नियंत्रण है नहीं और उल्टे कोर्ट में कह रही है कि वो दूसरे पक्ष को सुने बगैर आवंटन रद्द कर दे. कोर्ट ने यूपी की योगी सरकार को कहा कि वो दरयाफ्त करे कि कौन-कौन से इलाकों में अभी भी नए प्रोजेक्ट्स को इजाज़त दी गई है. कोर्ट ने ये भी कहा कि NTPC,UPEC जैसे संस्थानों को आंख मूंदकर प्रोजेक्ट्स के लिए जमीन दे दी. अब जब 26 साल बाद वो जमीन पर दावा कर रहे हैं तो एकतरफा दावा रद्द करने पर उतारू है. कोर्ट ने कहा कि वह बिना अलॉटी कम्पनियों और लोगों को सुने बगैर इस मामले में कोई फ़ैसला या आदेश नहीं दे सकते. कोर्ट ने कहा कि आपकी इस लापरवाही के गंभीर परिणाम होंगे.
आपको बता दें कि उत्तर प्रदेश सरकार रेनुकूट-मिर्जापुर के संरक्षित जंगल के क्षेत्र में जुलाई 1994 में उद्योगों और अन्य संस्थानों को भूमि आवंटित करने के आदेश को अब खारिज करने की गुहार सुप्रीम कोर्ट से लगा रही है. सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि वन अधिकारी और जिला अदालतें अभी भी उन संस्थानों के दावे को मंज़ूरी दे रही हैं जबकि सुप्रीम कोर्ट 19 जुलाई 1994 को आदेश जारी कर संरक्षित वन भूमि के अतिक्रमण पर रोक लगा दी थी. साथ ही यह भी कहा था कि इस संरक्षित वन भूमि पर अगस्त 1994 के बाद किसी का कोई भी दावा मान्य नहीं होगा. यानी 26 साल पुराने सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की अनदेखी और अवमानना करते हुए जिला अदालत और वन अधिकारी अपनी मनमानी 26 साल से करते रहे और राज्य सरकारें सब चुपचाप देखती रही.
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