छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले के सारकेगुड़ा में जून 2012 में हुई मुठभेड़ में गांव वालों ने गोलियां नहीं चलाईं. इस बात के भी सबूत नहीं मिले हैं कि इस मुठभेड़ में नक्सली शामिल थे. यह खुलासा मामले की जांच में जुटे जस्टिस वीके अग्रवाल की न्यायिक रिपोर्ट से हुआ है. सन 2012 में 28-29 जून को हुई इस कथित मुठभेड़ में सुरक्षा बल के जवानों ने 17 नक्सलियों के मारे जाने का दावा किया था. उनके शव भी बरामद किए गए थे. इस मुठभेड़ की जांच के लिए जांच आयोग का गठन किया गया था. 78 पन्नों की इस रिपोर्ट से सुरक्षाबलों को दावों पर गंभीर सवाल खड़े हुए हैं. इस मुठभेड़ को तत्कालीन गृहमंत्री पी चिदंबरम फर्जी मानने को तैयार नहीं थे, लेकिन छत्तीसगढ़ कांग्रेस अध्यक्ष नंदकुमार पटेल अपनी यूपीए सरकार और गृहमंत्री चिदंबरम के खिलाफ उठ खड़े हुए थे.
एक सदस्यीय न्यायिक आयोग की रिपोर्ट में कहा गया है कि गांव वालों को प्रताड़ित किया गया और बाद में उन्हें काफी करीब से गोलियां मारी गईं. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि ऐसा लगता है कि सुरक्षाबलों ने हड़बड़ाहट में फायरिंग की. रात में कई घंटों की कथित मुठभेड़ के बाद इनमें से हिरासत में लिए गए एक ग्रामीण को अगली सुबह गोली मारी गई.
रिपोर्ट के कुछ अहम बिंदु -
1. मीटिंग खुले मैदान में हो रही थी, न कि घने जंगल में - ऐसा प्रतीत होता है कि यह घटना तीन गांवों (सरकेगुडा, कोट्टागुडा और राज पेंटा) के बीच खुली जगह में हुई थी जो जंगल से सटा है.
2. बैठक के दौरान नक्सलियों की मौजूदगी का कोई सबूत नहीं, हालांकि आयोग ग्रामीणों की इस बात पर सहमत नहीं कि बैठक अगले दिन होने वाले बीज पंडुम त्योहार की तैयारी के लिए बुलाई गई थी, लेकिन मीटिंग में नक्सलियों की मौजूदगी का कोई संतोषजनक सबूत नहीं है.
उक्त परिस्थितियों से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि बैठक अहानिकर नहीं थी और बीज पंडुम महोत्सव की व्यवस्था करने के उद्देश्य से नहीं बुलाई गई थी, जैसा कि शिकायतकर्ताओं की ओर से दावा किया गया है. हालांकि यह सच है कि बैठक में इकट्ठे हुए लोग या तीन गांवों - सरकेगुडा, कोट्टागुडा और राज पेंटा से मारे गए या घायल लोग नक्सली थे, इस बात को पुख्ता सबूतों के आधार पर रिकॉर्ड में स्थापित नहीं किया गया है. हालांकि उनमें से कम से कम कुछ लोगों का आपराधिक रिकॉर्ड था जो कि रिकॉर्ड पर मौजूद साक्ष्य से पता लगता है.
3. छह घायल सुरक्षाकर्मी दूसरे सुरक्षा कर्मियों की फायरिंग से घायल हुए थे. सुरक्षा बलों को लगी चोटों का गहराई से विश्लेषण करने के बाद, आयोग का निष्कर्ष है कि उनकी चोटें किसी अन्य पार्टी/लोगों द्वारा दूर से फायरिंग के कारण नहीं हो सकती थीं, और संभवतः वे अपनी ही पार्टी के सदस्यों की क्रॉस फायरिंग के कारण हुई थी. जिस तरह की चोटें घायल सुरक्षा कर्मियों को आई हैं, वह दूर से फायरिंग के कारण नहीं हो सकती थी, जैसे कि दाहिने पैर के अंगूठे पर या टखने के पास चोट. दूसरी बात, गोली से लगी चोटें... केवल क्रॉस फायरिंग के कारण हो सकती हैं, यह अधिक मुमकिन प्रतीत होता है, क्योंकि घटना के स्थान पर चारों ओर अंधेरा था और इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है कि सुरक्षा बलों के साथी सदस्यों द्वारा चलाई गई गोलियों से ही टीम के अन्य सुरक्षाकर्मियों को गोली लगी.
4. पुलिस की जांच दोषपूर्ण हैं एवं उसमें हेरा-फेरी की गई है: छर्रों आदि का जब्ती नामा ठीक से नहीं बनाया गया था. कथित रूप से इब्राहि खान द्वारा तैयार किए गए जब्ती ज्ञापन में जब्त किए गए सामानों का पूरा विवरण नहीं है. इसके अलावा, जब्त की गई वस्तुओं को ठीक से सील नहीं किया गया था. इस प्रकार, जब्ती कानून के द्वारा स्वीकृत प्रक्रिया के अनुसार नहीं थी, जो अत्याधिक विलंब से और मानदंडों के अनुसार नहीं था.
5. इस बात का कोई सबूत नहीं कि सुरक्षाबलों पर फायरिंग छर्रों से हुई थी : आयोग का निष्कर्ष है कि इस बात का कोई सबूत नहीं है कि सुरक्षा बलों को छर्रों (जो भरमार में प्रयोग होते हैं) से गोली लगी न कि कारतूस (सुरक्षा बालों द्वारा प्रयोग होने वाली बंदूकों से) से. “… यह नहीं कहा और निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि घायल सुरक्षा बलों को छर्रों से मारा गया था और कारतूस से नहीं. इस प्रकार, इस बात की प्रबल संभावना है कि घायल सुरक्षाकर्मियों पर गोली क्रॉस-फायरिंग (उनकी खुद की गोलियों) हुई, जैसा की शिकायतकर्ताओं द्वारा बोला गया है.”
6. सुरक्षाबलों द्वारा की गई गोलीबारी आत्मरक्षा में नहीं थी, बजाय फायरिंग अनुचित और अत्यधिक थी. कम से कम छह मृतक ग्रामीणों के सिर में बंदूक की चोटें थीं. मृतकों में से 11 को उनके धड़ पर गोली लगने की चोटें थीं. 17 में से 10 मृतकों को पीठ पर बंदूक की चोटें थीं, जो स्पष्ट रूप से इंगित करता है कि सुरक्षा बलों ने आत्मरक्षा में गोली नहीं चलाई थी, बल्कि जब मीटिंग में मौजूद लोग गोलियां चलने के बाद घटना स्थल से भाग रहे थे, उस वक़्त उन पर गोली चलाई.” एक व्यक्ति को उसके सिर के ऊपर से गोली मार दी गई थी और बर्स्ट फायरिंग का भी सबूत है, हालांकि सीआरपीएफ ने इससे इनकार किया है.
गांव वालों को सुरक्षा बलों के जवानों ने पीटा और शारीरिक रूप से प्रताड़ित किया
गांव वासियों पर गोलीबारी करने के अलावा, सुरक्षा कर्मियों ने उन्हें पीटा व शारीरिक रूप से प्रताड़ित किया. तथापि यह भी नोट करना जरूरी है कि बंदूकों की गोलियों से हुई चोटों के अलावा मृतकों तथा घायल व्यक्तियों के शरीरों पर कई अन्य प्रकार की चोटें भी हैं. इससे यह स्पष्ट होता है कि उन पर शारीरिक रूप से वार कर घायल किया गया.” “… उपरोक्त लिखीं सभी चोटें गोली चलने से नहीं हुई हैं बल्कि मार पीट होने के कारण लगी हुई चोटें हैं जो सुरक्षा कर्मियों के अलावा कोई नहीं कर सकता.” “इसलिए यह नि:संदेह कहा जा सकता है कि यह घटना बंदूकें चलने तक सीमित नहीं थी और न ही तब समाप्त हुआ. बल्कि, यह स्पष्ट होता है कि सुरक्षा दलों द्वारा की गई गोलीबारी भी, जैसे पहले चर्चा की गई है, अकारण थी. साथ ही, एकत्रित गांव वालों को जवानों ने शारीरिक रूप से प्रताड़ित किया व बहुत बुरी तरह पीटा जो कि मृत व घायल लोगों के शरीरों पर चोटों से स्पष्ट होता है.”
एक गांव वासी की अगली सुबह उसके घर के सामने हत्या की गई
फायरिंग के कई घंटों बाद, अगले दिन सुबह गांव के एक व्यक्ति इरपा रमेश को सुरक्षा कर्मियों द्वारा बड़ी बेरहमी से पीटकर मार डाला गया था. “इस प्रकार, यह सिद्ध है कि मृतक इरपा रमेश की पिटाई व हत्या दिनांक 29/06/2012 की सुबह हुई, यानी कि 28/06/2012 की वारदात के काफी बाद. इससे, विपरीत पक्ष – सुरक्षा दल द्वारा दिए गए घटना के विवरण पर गंभीर शंका उठती है.”
सुरक्षाबलों द्वारा अनुचित/अकारण और जानबूझकर घातक बल का उपयोग किया गया
रिपोर्ट के इस खंड के समापन अनुच्छेद में, आयोग स्पष्ट शब्दों में कहता है कि घटना उस तरह से नहीं हुई है जैसा कि सुरक्षा बलों द्वारा बताया गया है. बल्कि, ग्रामीणों को करीब से गोली मारी गई और गोली भी जान से मारने के इरादे से सर और धड़ पर मारी गई थी, साथ ही गोलियां मारने के बाद वहां लोगों की पिटाई भी की गई थी.
“उपरोक्त…. रिकॉर्ड पर मौजूद परिस्थितियों को आंकने पर यह प्रतीत होता है कि मृतकों के धड़ों पर जैसे कि सिर के शीर्ष पर गोली से पता चलता है कि उन्हें करीब से गोली मारी गई है, और यह दूर से फायरिंग का परिणाम नहीं हो सकता है, जैसा कि सुरक्षा बल का कहना है. बंदूक की चोटों की प्रकृति और स्थान सहित उपरोक्त परिस्थितियों को विचार में रखते हुए यह स्पष्ट दिखता है कि घटना उस तरह नहीं हुई थी जिस तरह विपरीत पक्ष-सुरक्षा बलों द्वारा बताया गया है. यह भी प्रतीत होता है कि सुरक्षा बलों द्वारा फायरिंग दूर से नहीं की गई थी और न ही जब उन पर हमला हुआ, बल्कि ऐसा प्रतीत होता है कि सुरक्षा बलों ने बैठक के सदस्यों को देखा, उनके पास गए और फिर करीब से गोलियां चलाईं जिसके कारण कुछ लोगों के सिर के शीर्ष पर, जबकि दूसरों के धड़ और पीठ पर गोलियां लगी. इसके अलावा, बैठक के सदस्यों के साथ मारपीट भी की गई, जिसके कारण उनके शरीर पर घाव हुए थे. ये चोटें (बुलेट की चोटों के अलावा) केवल करीब से हो सकती हैं- तेज धार वाले हथियारों से या कठोर या भोथरा (कुंठित) वस्तू जैसे बंदूक या राइफल के बट से हो सकती हैं.”
28 जून 2012 की रात को सीआरपीएफ और छत्तीसगढ़ पुलिस को नक्सलियों की मौजूदगी की सूचना मिली थी जिसके बाद उनकी टीमों ने संयुक्त अभियान शुरू किया था. सुरक्षाबलों के मुताबिक, दो टीमें बासागुडा से रवाना हुईं और तीन किलोमीटर दूर सरकेगुडा में एक माओवादी बैठक में पहुंची थीं. इस बैठक में हिस्सा ले रहे ग्रामीणों ने पुलिस वालों को देखकर उन पर गोलियां चलानी शुरू कर दी थीं. जवाब में पुलिस ने भी उन पर गोलियां चलाईं. इस मामले में छत्तीसगढ़ की तत्कालीन रमन सिंह सरकार ने 11 जुलाई 2012 को न्यायिक जांच के आदेश दिए थे.
वैसे रिपोर्ट मीडिया में लीक होने से पूर्व मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह ने इसे विधानसभा की अवमानना बताते हुए इसकी जांच कर दोषियों पर कार्रवाई की जाने की मांग की है. जस्टिस अग्रवाल ने वैसे अपनी रिपोर्ट में ये भी कहा है कि दोनों पक्षों की ओर से गवाहों के बयानों में विसंगतियां हैं. रिकॉर्ड में दर्ज साक्ष्यों और परिस्थितियों पर दोबारा विचार करने और इन पर चर्चा करने की जरूरत है.
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(बस्तर से विकास तिवारी के इनपुट के साथ)
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