प्रवीण कुमार के पहले कहानी संग्रह 'छबीला रंगबाज़ का शहर' को हिंदी में जितनी चर्चा मिली, उतनी कम पहले संग्रहों को नसीब होती है. निस्संदेह इस चर्चा के पीछे कहीं यह अनुभव शामिल था कि इक्कीसवीं सदी में कथा-लेखन की पारंपरिक प्रविधियों के सामने आई चुनौतियों के बीच प्रवीण कुमार इस विधा में कुछ नया कर रहे हैं, वे अपना एक मुहावरा बनाने की कोशिश कर रहे हैं. इस मुहावरे में वे बतकही की पुरानी शैली को एक मौलिक संस्पर्श से जोड़ते हुए ऐसी कहानी रच रहे हैं जिसमें वर्तमान की विडंबनाएं भी हैं और उनके पीछे की वे परिस्थितियां भी, जिनकी वजह से ये विडंबनाएं बनीं.
अब प्रवीण कुमार का दूसरा कहानी संग्रह 'वास्कोडीगामा की साइकिल' राजपाल प्रकाशन से प्रकाशित होकर आया है. ज़ाहिर है, इस संग्रह से पाठकों की अपेक्षाएं कुछ ज़्यादा हैं और प्रवीण कुमार की चुनौतियां भी.
प्रवीण कुमार के इस नए संग्रह में कुल सात कहानियां हैं. इनमें से कुछ कहानियों में प्रवीण कुमार ने साहसपूर्वक अपने शिल्प में नए प्रयोग जोड़े हैं. कुछ मिथ, कुछ फंतासी, कुछ स्वप्न और काफी कुछ यथार्थ को फेंटकर बनता है इन कहानियों का संसार. प्रवीण की किस्सागोई में बतकही अब भी एक महत्वपूर्ण तत्व है जिसकी मदद से वे सिर्फ़ कहानी नहीं, उसके आसपास का पूरा माहौल भी बुनते हैं और उसे इस तरह कहानी से अनुस्युत करते हैं कि वह कथा का अनिवार्य-अपरिहार्य हिस्सा लगने लगता है- कथा के ढांचे के ऊपर बनी मांस मज्जा की उस परत जैसा, जिसके होने से कंकाल देह बनती है, देह स्पर्श करना, चलना, सूंघना, सुनना, देखना और सच से आंख मिलाना जानती है. जब कथावस्तु में यह प्राणवत्ता पैदा होती है तो एक जीवंत कहानी बनती है, नहीं तो कहानी की जगह एक नाटकीय स्थिति बनकर रह जाती है.
संग्रह की सात कहानियों में दो कमज़ोर कहानियां हैं. 'पवनजी का प्रेम और प्रेजेंट टेन्स' में लेखक की बतकही और नाटकीयता अंततः कोई बड़ा या संपूर्ण प्रभाव छोड़ने में विफल साबित होती हैं क्योंकि कथा सूत्र ऐसा नहीं है जो किसी बड़े तनाव का संवहन कर सके- बस एक जानी पहचानी प्रेम कहानी है और अपने परिवारों के दबाव की अनदेखी कर अंतरजातीय विवाह करने का फैसला सुनाने का साहस. निस्संदेह कहानी इससे भी बनती है लेकिन यह खयाल आता है कि प्रेम या अंतरजातीय विवाह अपने अभी तक चले आ रहे सामाजिक विरोध के बावजूद ऐसी अनूठी या अजूबी प्रक्रिया नहीं हैं जिसे किसी बड़े किस्से की तरह बताया जा सके. हमारे समय में प्रेम की विडंबनाएं पहले से बड़ी हुई हैं. अंतरधार्मिक प्रेम या शादियों पर अब लव जेहाद जैसी फूहड़ कल्पना का हमला है. प्रेम पर ही सयाने उपभोक्तावाद की मार है. इन सबके बीच प्रवीण कुमार की कहानी किसी बदलते हुए यथार्थ की ओर इशारा नहीं करती, बस दो प्रेमीजनों के आपसी निश्चय से कांपती हुई दुनिया का खयाल करती है. प्रवीण कुमार के अंदाज़ ए बयां से फिर भी पठनीय बन गई कहानी की यह बड़ी सीमा है. दूसरी कमज़ोर कहानी' हाफपैंट' है. हालांकि यह बड़ी संभावनाओं से भरी कहानी हो सकती थी, लेकिन लेखक जैसे इसको विस्तार देते हुए किसी दुविधा का शिकार हो गए. एक किशोर लड़की के साथ होने वाले किसी असामान्य व्यवहार की कहानी लिखना वैसे भी काफ़ी जटिल काम है. किसी भी लेखक के लिए वह सूक्ष्म संतुलन साधना आसान नहीं है जिसमें उस लड़की की प्रतिक्रिया विश्वसनीय ढंग से अंकित हो और उसके साथ हो रहे व्यवहार की भयावहता भी ठीक से पकड़ में आ जाए. प्रवीण कुमार इस कहानी में यहीं कहीं चूक जाते हैं. वे शायद तय नहीं कर पाते कि कितनी कहानी बतानी है और कितनी छुपानी है.
लेकिन इन दो कहानियों को छोड़ दें तो बाक़ी कहानियों में प्रवीण का कथावैभव उरूज़ पर दिखाई पड़ता है. हिंदी में अपनाघर-अपनी ज़मीन छूटने के मध्यमवर्गीय दुख की कहानियां कई हैं लेकिन इनका संदर्भ दिल्ली नहीं है. प्रवीण की कहानी 'बसईदारापुर की संतानें' इस लिहाज से विशेष उल्लेखनीय है. यह कहानी दिल्ली के सिकुड़ते हुए देहातों के बीच लगातार पीछे छूट रही उस खेतिहर पीढ़ी के दर्द की कहानी है जिसकी निगाहों के सामने उसके बच्चे उसकी पुश्तैनी ज़मीन बेच रहे हैं. इस कहानी का बूढ़ा नायक अपनी ज़मीन बेचने को तैयार नहीं है. बेटे, दोस्त, पड़ोसी, हालात- सब दबाव बना रहे हैं कि ज़मीन बेचने में ही फायदा है.एक मोड़ पर लगता है, बूढ़ा सरेंडर कर देगा. लेकिन अंत आते-आते पता चलता है, दिल्ली का यह देहाती मानुष इतनी जल्दी घुटने टेकने को तैयार नहीं.
कह सकते हैं, यह कहानी धारा के विरुद्ध है, कि यह सारी ज़मीन एक दिन बिक जानी है- बल्कि वह बिक रही है, कि अंततः सारे खेतों की नियति मॉल और अपार्टमेंट बन जाना है, लेकिन इस बहुत ठोस लगती दलील के पीछे बाज़ार के दानवी आलिंगन की जकड़ में दम तोड़ती जो गंवई सभ्यता है, उसकी ख़बर यह कहानी देती है. जिस सहजता से प्रवीण कुमार ने यह कहानी लिखी है, वह भी इसकी ताकत है. यह बात इस लिहाज से भी महत्वपूर्ण है कि लगातार मुनाफ़े के आधार पर अपने आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक फ़ैसले कर रही और फ़ायदे को ही जीवन का इकलौता तर्क मानने की ओर बढ़ रही इस दुनिया में आने वाले दिनों में एक कहानी होगी जो बताएगी कि कुछ सनकी बूढ़े तब भी ऐसे थे जो इस नई बाज़ार-संस्कृति के हामी नहीं थे. 'रामलाल फ़रार है' में प्रवीण फिर अपने शिल्पगत सधाव के साथ एक नई कथा-भूमि पर चलते दिखाई पड़ते हैं. उनकी कहानी का किरदार रामलाल कहानी से निकल भागा है. वह चाहता है कि उसकी कहानी नए सिरे से लिखी जाए. लेखक और किरदारों की यह भिड़ंत हालांकि साहित्य में नई नहीं रह गई है. लगभग सौ बरस पहले इतालवी लेखक लुइगी पिरांदेलो के नाटक 'सिक्स कैरेक्टर्स इन सर्च ऑफ़ ऐन ऑथर' के मंचन के बाद से कई लेखकों ने यह युक्ति आज़माई है. प्रवीण कुमार जब अपने किरदार को लेखक की पकड़ से भागने और फिर लौटने देते हैं तो इसके पीछे सिर्फ किरदार का व्यक्तिगत द्वंद्व ही नहीं होता, उसका एक सामाजिक पक्ष भी होता है. प्रवीण कुमार अपने एक किरदार की कहानी पलटकर याद दिलाते हैं कि तथाकथित लेखकीय प्रतिबद्धता का भी अपना वर्गचरित्र होता है, कि लेखक जो कहानी गढ़ता है, उसमें भी उसके वर्ग हित सबसे पहले अभिव्यक्त होते हैं.
'सिद्धपुरुष' भी एक अलग तरह की कहानी है. एक बेईमान आदमी की हत्या हुई है जिसके लिए एक ईमानदार आदमी को ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है. उसका कसूर बस इतना है कि उसने अनजाने में हत्यारों को बता दिया था कि उनका शिकार अभी कहां मिलेगा. इससे पैदा उहापोह इतना जटिल हो जाता है कि इस रिटायर्ड ईमानदार बूढ़े की पूरी ज़िंदगी बदल जाती है. कहानी को लेखक जिस मोड़ पर छोड़ता है वहां जैसे इस हत्या को लेकर एक अपराधबोध नायक के भीतर अपने चरम पर है.
बेशक, यह कहानी इतनी सपाट नहीं है जितनी ऊपर के वर्णन में दिखती है. इसके अपने फैलाव भी हैं और अपनी जटिलताएं भी. नायक कभी-कभी अतिरिक्त संवेदनशील लगता है और कथा कहीं-कहीं अतिरिक्त विस्तार पाती हुई. लेकिन यह एक ईमानदार आदमी के अंततः अकेले पड़ते जाने और अपने आत्मपरीक्षण को बिल्कुल सांघातिक हदों तक ले जाने की मार्मिक कथा है- उदय प्रकाश के कुछ किरदारों की याद दिलाती हुई जिनको उनके अकेलेपन ने बुरी तरह तोड़ दिया. बहरहाल,फिर दुहराना होगा कि इस कहानी में भी प्रवीण कुमार की क़िस्सागोई का जाना पहचाना रंग है.
अब उन दो कहानियों का ज़िक्र, जिनसे इस संग्रह की पहचान भी बनती है और इसका वजन भी बनता है. ये दोनों इस संग्रह की सबसे लंबी कहानियां हैं. जिस कहानी से किताब का नाम लिया गया है, वह ‘वास्को डी गामा की साइकिल' वाकई एक दिलचस्प कहानी है. इसे एक राजनीतिक कहानी की तरह भी पढ़ा जा सकता है, लेकिन यह उससे ज़्यादा है. यह गांव से दिल्ली आए एक मज़दूर की कहानी है जो दिल्ली में अपने कुचले हुए वजूद को अनजाने ही स्वाभिमान की लड़ाई में बदलना चाहता है. इस काम में राजनीति कभी उसकी मदद भी करती है और कभी उसके साथ छल भी. एक छोटे से कारख़ाने का यह फोरमैन किसी स्थानीय नेता के साथ लगा हुआ है जो किसी बड़े नेता का आदमी है. घर-परिवार, नौकरी को जैसे ताक पर रखकर यह शख़्स राजनीति कर रहा होता है, बस्ती और सड़क पर अपनी इज़्ज़त में इज़ाफ़े का थोड़ा-बहुत हिसाब लगाता रहता है. एक अवसर उसे बड़े नेता तक पहुंचने और उसकी दुनिया को क़रीब से देखने का मिलता है. वह पूरी तरह अभिभूत है.
इस फोरमैन के पास एक साइकिल है-एक मज़बूत साइकिल जो उसने किसी दुकान से बरसों पहले ख़रीदी है. दुकानदार बताता है कि इस साइकिल का लोहा बहुत मज़बूत है, वास्को डी गामा जिस नाव से भारत आया था, उसके लोहे से बनी यह साइकिल है. लेकिन यह मज़बूत साइकिल फोरमैन से बात करती है- जैसे वह उसकी अंतरात्मा हो. उसे याद दिलाती रहती है कि यह राजनीति उससे कितना कुछ ले रही है. साइकिल छोड़ कर वह नेता जी की कार में घूमता रहता है तब भी साइकिल उसे नहीं छोड़ती. धीरे-धीरे वह पाता है कि उसकी सामाजिकता का जो वास्तविक संसार है और उसकी राजनीति का जो वैचारिक संसार है- दोनों के बीच फ़ासला बहुत है. उसका जीवन समावेशी है जबकि राजनीति उसे लगातार अलग होने, दूसरों को संदेह और हिकारत से देखने को मजबूर कर रही है. कहानी का अंत आते-आते मौजूदा राजनीति का सांप्रदायिक पक्ष उसके सामने खुलता जाता है और अंततः वह राजनीति को छोड़ अपने समाज के पक्ष में खड़ा होता है.
कहने की ज़रूरत नहीं कि कहानी इतने सपाट ढंग से नहीं लिखी गई है. प्रवीण यह काम कभी नहीं करते. वे बस इशारे छोड़ते रहते हैं. उनकी वाकचपलता कहानी को बोझिल नहीं होने देती. पूरी होते-होते कहानी बहुत सारे पक्षों पर रोशनी डाल जाती है- व्यक्तिगत संबंधों पर, निम्नमध्यवर्गीय जीवन की तकलीफ़ों पर, राजनीति के साथ कमज़ोर आदमी के रिश्ते पर और अंततः एक बड़े शहर में बहुत सीमित साधनों में जी रहे लोगों के संघर्ष और सपनों पर.
सबसे अंत में वह पहली कहानी जिसकी चर्चा के बिना यह टिप्पणी अधूरी रहेगी. दरअसल यह कहानी जितनी लेखक के लिए चुनौती भरी है उतनी ही आलोचक के लिए भी. ‘एक राजा था जो सीताफल से डरता था' नाम की यह कहानी हालांकि संग्रह के प्रकाशन से पहले भी चर्चित हो चुकी है. यह पूरी तरह फंतासी से पैदा हुई कथा है- इसमें कुछ लोककथा का रंग शामिल है, लेकिन यह लोककथा नहीं है. ऐसा नहीं कि ऐसी कहानियां पहले नहीं लिखी गई हैं. कुछ साल पहले प्रकाशित मृणाल पांडे की किताब ‘हिमुली हीरामणि कथा' में लोकतत्व और फंतासी के मेल से मिली कई अद्भुत कथाएं मिलती हैं. उन कहानियों में नोटबंदी का भी ज़िक्र मिल जाता है और दूसरे समकालीन संदर्भों का भी. दरअसल ऐसी कथाओं से यह स्वाभाविक अपेक्षा होती है कि वे वर्तमान के आईने की तरह आएं- उनमें वे राजनीतिक-सामाजिक विडंबनाएं झिलमिलाएं जिन्हें अन्यथा सीधे ढंग से कह पाना आसान नहीं है. बहुत सारी कहानियां यह काम करती भी हैं.
लेकिन प्रवीण कुमार की कहानी ऐसी किसी प्रतीकात्मक प्रविधि से किसी जाने-पहचाने या अनजाने सच को कहने के चक्कर में नहीं पड़ती. वह बस अपने-आप में एक संपूर्ण कथा है. इस कथा में एक राजा ने अपने नगर का ऐसा विकास किया है कि वहां 24 घंटे चमकती-दमकती रोशनी में दिन और रात का अंतर मिट गया है. राजा बिना सोए चौबीस घंटे राज्य की फिक्र में लगा रहता है जिसका नैतिक दबाव महसूस करते हुए प्रजा भी सोने से बचती है. इस राज्य में दंड-विधान बहुत प्रबल है जिस पर बहुत सख़्ती से अमल होता है. राजा के बहुत सारे जासूस हैं जो इस बात पर नज़र रखते हैं कि राज्य में कोई प्रकाश-विरोधी हरकत तो नहीं हो रही. राज्य के अपने ज्योतिषी, वैज्ञानिक, संगीतज्ञ, नर्तक और कलाकार भी हैं जो जनता के लिए ज्ञान से लेकर मनोरंजन तक की सामग्री परोसते रहते हैं.
यह बहुत लंबी कहानी है- बहुत सारे वक्र मोड़ पार करती हुई. राजा अपनी छवि का बहुत खयाल रखता है, प्रजा का बहुत ख़याल रखता है, संतों का बहुत ख़याल रखता है, उसका अपना नाई किसी संदिग्ध स्थिति में मारा जाता है तो विह्वल होता है, लेकिन धीरे-धीरे पीपल के एक कोटर से आने वाली ध्वनि उसे परेशान करती है. उस कोटर में आग लग जाती है (या लगा दी जाती है), उसमें रहने वाली गिलहरियां झुलस कर मर जाती हैं. एक अपाहिज गिलहरी का बच्चा किसी तरह एक खेत में भाग कर दम तोड़ देता है और उसके मुंह में दबा सीताफल का बीज अचानक एक जादुई सीताफल के रूप में फूलता है. आगे की कहानी इस सीताफल के ख़तरे से निबटने की कहानी है. लेकिन सारी सख़्ती, एहतियात और अय्यारी के बावजूद न सीताफल ख़त्म होते हैं और न उनसे निकलने वाली ध्वनियों का अंत होता है. अंत में पता चलता है कि वे ध्वनियां बता रही हैं कि राजा को सींग है. कहानी के अंत में नगर शापित होता दिखाई पड़ता है और राजा अपना राजमुकुट उछाल कर परकोटे से ग़ायब हो जाता है.
इस पूरी कथा में और भी पेचोख़म हैं. संकट यह है कि इस कहानी से कोई सपाट राजनीतिक अर्थ नहीं निकलता. फिर हम ऐसी कहानी क्यों पढ़ें? क्योंकि सपाट अर्थों के पार जाकर भी कहानियां हमसे कुछ कहती हैं. प्रकाश के अतिरेक, सम्राट की सनक, प्रजा के साथ उसके व्यवहार, राज्य की अवधारणा, सत्ता के प्रपंच और प्रबंध, व्यापारियों से राजा के रिश्ते और अंततः इस समूची चमक-दमक का मोल- यह सब इस कहानी के भीतर महसूस किया जा सकता है. इस लिहाज से इस लंबी कहानी में एक काव्यात्मकता है जो हमारे संसार में कुछ प्रासंगिक सूचनाएं भले न जोड़े, लेकिन उसे एक मूल्यवान अनुभव दे जाती है. इसे पढ़ते हुए संभव है, किसी को मारियो वार्गास ल्योसा के उपन्यास ‘क़िस्सागो' की याद आए जिसकी संकेतबहुलता में छुपे अर्थ उसे मूल्यवान बनाते हैं. बल्कि लातीन अमेरिकी साहित्य में बहुत सारी कहानियां ऐसी हैं जिनमें इस तरह की फंतासी का उपयोग होता है.
लेकिन फिर भी कहना मुश्किल है कि प्रवीण की इस कहानी को हिंदी की दुनिया किस तरह लेगी. इस कथा और इसके शिल्प में अपनी तरह का जोखिम है जिसके लिए आस्वाद का अभ्यास भी बदलना होगा और आलोचना की दृष्टि भी. मगर ऐसे ही जोखिम भरे प्रयत्नों से कहानियों- या साहित्य- की दुनिया आगे बढ़ती है, नए प्रस्थान बिंदु बनाती है. कहना न होगा कि प्रवीण कुमार ने अपने इस कहानी संग्रह से एक बार फिर साबित किया है कि क्यों उन्हें इस दौर के महत्वपूर्ण युवा कथाकारों में शुमार किया जा रहा है.
वास्को डी गामा की साइकिल: प्रवीण कुमार; राजपाल प्रकाशन; 175 पृष्ठ; 250 रुपये.
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