सन् सैतालीस की आजादी ने हमारे समाज में राजनीतिक सक्रियता बढ़ा दी, और वह आज भी बनी हुई है. विकास का मापकयंत्र वही है. साहित्य, संस्कृति, विज्ञान और जीवन से जुड़े अन्य विषयों के प्रतिभाओं को हम उनका समुचित दाय देने से वंचित करते रहे. इन्हीं प्रतिभाओं में से एक प्रबोध कुमार भी थे. वे अंतरराष्ट्रीय स्तर के मानवविज्ञानी थे और साहित्य से भी उसी पैशन के साथ जुड़े थे. लमही पत्रिका ने जनवरी-जून, 2022 के संयुक्त अंक को प्रबोध कुमार पर केंद्रित किया है.
शर्मिला जालान और संपादक ने उनके लिखे-पढ़े को इस तरह संयोजित किया है कि हम प्रबोध कुमार के व्यक्तित्व, स्वभाव और उनके जीवन-दृष्टि के सामाजिक पक्ष से परिचित होते हैं. शंख घोष, कमलेश, कृष्णा सोबती जो उनके शुरुआती सहयात्री लेखक रहे हैं, उनके लेख में एक पीड़ा है कि उन्हें जितना जाना जाना चाहिए था, नहीं जाना गया. प्रयाग शुक्ल कहते हैं कि मुझे तो कमलेश जी के बताने से मालूम हुआ कि प्रबोध का नाम उनके काम के लिए नोबेल पुरस्कार के लिए भी प्रस्तावित हुआ था. योगेंद्र आहूजा तो प्रबोध जी के उपन्यास निरीहों की दुनिया की चर्चा न होने को हिंदी की दुनिया के सिकुड़ते दिल-दिमाग़ पर नयी बनती साहित्यिक संस्कृति समझ पर अफ़सोस जताते हैं.
वहीं रणेंद्र इस उपन्यास के बारे में कहते हैं कि प्रबोध कुमार अपनी अनूठी सादगी भरी शैली और कहन से हमें वंचितों की संताप भरी दुनिया में ले जाते हैं. इस सुखांत किंतु करुण कथा की अनुगूँज बहुत देर तक हमारे अंतर्मन में गूँजती रहती है. उदयन वाजपेयी उन्हें अपने श्रेष्ठ पूर्ववर्ती सर्जकों की श्रेणी में रखते हैं और यह भी कहने से नहीं चूकते कि इन्होंने मुझे लिखना सिखाया, और लेखन की सहज पवित्रता का बोध कराया है.
जयंशकर, नदीम हसनैन, प्रभाकर सिन्हा और आग्नेय के लेखों और टिप्पणियों के साथ प्रबोध कुमार के लिखे पर्याप्त लेखन से भी लमही का यह अंक समृद्ध है. अंत में शर्मिला जालान को लिखे पत्र का एक अंश–जिस साहित्य की समाज के निम्नतर स्तर तक पहुँच नहीं है वह महान भी हो तो उसके बिना मेरा काम चल जाएगा. अंत में जो साहित्य टिकनेवाला है वह वही साहित्य है, जो बेबी हालदारों तक पहुँचता है.
(समीक्षक: मनोज मोहन)
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