लमही पत्रिका में मशहूर लेखक व व्यंगकार ज्ञान चतुर्वेदी पर विशेषांक
नई दिल्ली:
हिंदी में व्यंग्य विधा से आज शायद ही कोई अपरिचित हो. आज भी व्यंग्य की परंपरा में हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, रवीन्द्र नाथ त्यागी, श्रीलाल शुक्ल एवं ज्ञान चतुर्वेदी का नाम सम्मान से लिया जाता है. सच कहा जाए तो जिस विट और व्यंजना से लैस इन व्यंग्यकारों का रचना संसार रहा है उसकी झलक इससे आगे की पीढ़ी में बहुत कम दिखाई पड़ती है. इस वक्त व्यंग्य के सर्वाधिक लोकप्रिय लेखक ज्ञान चतुर्वेदी हैं जिन पर प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाने वाली पत्रिका लमही ने विशेषांक निकाल कर उन्हें वर्ष 2018 के लमही सम्मान से भी विभूषित किया है.
व्यंग्य की परंपरा में ज्ञान चतुर्वेदी
मऊरानीपुर (झांसी) उत्तर प्रदेश में 2 अगस्त, 1952 को जन्मे डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी एक विख्यात हृदयरोग विशेषज्ञ हैं तथा उन्होंने मेडिकल की तालीम के दौरान सभी विषयों में स्वर्ण पदक प्राप्त करने वाले छात्र होने का गौरव हासिल किया है. लेखन की शुरुआत ज्ञान चतुर्वेदी ने सत्तर के दशक से 'धर्मयुग' से की. यों तो छिटपुट व्यंग्य लेख तो लिखते ही हैं पर वे अपने उपन्यासों के लिए जाने जाते है. जिस तरह श्रीलाल शुक्ल अपने स्फुट व्यंग्य के अलावा अपनी किस्सागोई एवं सर्वाधिक लोकप्रिय ‘रागदरबारी' से जाने जाते हैं उसी तरह ज्ञान चतुर्वेदी का पहला ही उपन्यास 'नरक-यात्रा' खासा चर्चा में रहा जो भारतीय चिकित्सा-शिक्षा और व्यवस्था पर आधारित रहा है और उसमें भी व्यंग्य व विट उसी तरह घुले दिखते हैं जैसा रागदरबारी की कथा संरचना में. इसी क्रम में उनके 'बारामासी' तथा 'मरीचिका' व 'हम न मरब' जैसे उपन्यास आए और हाल ही में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित पागलखाना उनका उपन्यास विशेष चर्चा में है.
वे दस वर्षों तक 'इंडिया टुडे' में व्यंग्य स्तंभ लिखते रहे हैं तथा 'नया ज्ञानोदय' में भी कई वर्षों तक नियमित स्तम्भ लिखा है. इसके अतिरिक्त राजस्थान पत्रिका और 'लोकमत समाचार' दैनिकों के लिए भी वे व्यंग्य स्तंभ लिखते रहे हैं.
अब तक हजारों व्यंग्य रचनाओं के रचयिता ज्ञान चतुर्वेदी के कई व्यंग्य संग्रह 'प्रेत कथा', 'दंगे में मुर्गा', 'मेरी इक्यावन व्यंग्य रचनाएं', 'बिसात बिछी हैं', 'खामोश! नंगे हमाम में हैं', 'प्रत्यंचा' ओर 'बाराखड़ी' इत्यादि प्रकाशित हो चुके हैं तथा व्यंग्य विधा को उनके योगदान के लिए उन्हें 'राष्ट्रीय शरद जोशी सम्मान' हिंदी अकादमी सम्मान', अन्तर्राष्ट्रीय इन्दु शर्मा कथा-सम्मान (लन्दन) तथा 'चकल्लस पुरस्कार' एवं हाल ही में लमही सम्मान के अलावा कई विशिष्ट सम्मान हासिल हो चुके हैं.
क्या-क्या है 'लमही' के इंस अंक में
‘लमही' का यह विशेषांक कथाकार एवं व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी के लेखन के विपुल आयाम को उनके समकालीन विभिन्न लेखकों के माध्यम से उद्घाटित करता है. उनके हाल में आए उपन्यास ‘पागलखाना' पर गौतम सान्याल एवं ईशमधु तलवार ने लिखा है. सान्याल जहां कहते हैं कि इसके गद्य को आराम कुर्सी पर बैठ कर नहीं पढ़ा जा सकता वहीं तलवार ने बाजार की चकाचौंध के बीच चेहरों की स्याह झुर्रियों को बारीकी से पकड़ने के ज्ञान के कौशल की सराहना की है. ‘हम न मरब' में प्रभाकर श्रोत्रिय ने दर्शन के दर्शन किए हैं जिसमें बब्बा और अम्मा दो छोर हैं और तीसरी तरफ दुनिया की वे संकीर्णताएं जिनके घिनौनेपन को ज्ञान ने बखूबी उधेड़ा है. ‘मरीचिका' पर समर्थ कथाकार स्वयं प्रकाश एवं आलोचक पल्लव ने डूब कर लिखा है तो ‘बारामासी' पर श्रीलाल शुक्ल एवं आनंद मालवीय की समीक्षाएं ज्ञान चतुर्वेदी के लेखकीय बारीकियों की व्याख्या करती हैं.
उनके स्फुट व्यंग्य संग्रहों पर आलोक पुराणिक, वीरेन्द्र सक्सेना, शांतिलाल जैन, प्रेम जनमेजय, प्रताप दीक्षित, सुशील सिद्धार्थ, सुभाष चंदर व सीमा शर्मा ने लिखा है तो प्रेम जनमेजय, अश्विनी कुमार दुबे व उनकी जिगरी दोस्त प्रभु जोशी ने उन्हें अपने संस्मरणों में टांका है. अंत में ज्ञान चतुर्वेदी के कुछ लघु व्यंग्य आलेख शामिल हैं जिन्हें जितनी बार पढा जाए, पहली पहली बार पढे जाने जैसा सुख होता है. इस अंक का एक रोचक पहलू है ज्ञान चतुर्वेदी से शांतिलाल जैन की बातचीत जो पूरी गंभीरता से उनकी रचना प्रक्रिया खास तौर पर फैंटेसी केंद्रित पागलखाना की रचना की मनोभूमि से उतरने से लेकर पागलखाना की भयावह स्थितियों, उर्दू की हास्य व्यंग्य की दुनिया, हम न मरब में मृत्यु की हंसी उड़ाने की स्पिरिट, जीवन में उपस्थित शानदार नरक व व्यंग्य की विराट संरचना में न्यस्त करुणा व व्यंग्य के विधान में भी अक्षुण्ण किस्सागोई तक के मुद्दे तथा किन मामलों में वे परसाई, शरद जोशी आदि से अलग दिखते हैं---तक ले जाती है.
समकालीनों के लिए कसौटी
जैसा कि ‘लमही' संपादक विजय राय अपने संपादकीय में कहते हैं, व्यंग्य पर जिस तरह अखबारीपन हावी रहा है और ज्यादातर लेखक अखबारी चमक में ही खोए रहे हैं, ज्ञान चतुर्वेदी इस अखबारीपन और सतही खिलखिलाहटों से दूरी बरतते हुए कथानक और व्यंग्य के विरल संतुलन को साधते हुए इस वक्त के एक मात्र ऐसे कथाकार बन गए हैं जिसके ढांचे में व्यंग्य और किस्सागोई एक दूसरे से गलबहियां डाल कर रहते हैं. कथा पत्रिका ‘लमही' ने ज्ञान चतुर्वेदी पर अंक केंद्रित कर अपने ही विशेषांक ‘औपन्यासिक' से एक कदम आगे बढ़ कर हमारे समय के एक ऐसे जीवंत कथाकार का मानवर्धन किया है जो अपने समकालीनों के लिए एक कसौटी है.
डॉ ओम निश्चल हिंदी के कवि, गीतकार एवं सुपरिचित समालोचक हैं.
व्यंग्य की परंपरा में ज्ञान चतुर्वेदी
मऊरानीपुर (झांसी) उत्तर प्रदेश में 2 अगस्त, 1952 को जन्मे डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी एक विख्यात हृदयरोग विशेषज्ञ हैं तथा उन्होंने मेडिकल की तालीम के दौरान सभी विषयों में स्वर्ण पदक प्राप्त करने वाले छात्र होने का गौरव हासिल किया है. लेखन की शुरुआत ज्ञान चतुर्वेदी ने सत्तर के दशक से 'धर्मयुग' से की. यों तो छिटपुट व्यंग्य लेख तो लिखते ही हैं पर वे अपने उपन्यासों के लिए जाने जाते है. जिस तरह श्रीलाल शुक्ल अपने स्फुट व्यंग्य के अलावा अपनी किस्सागोई एवं सर्वाधिक लोकप्रिय ‘रागदरबारी' से जाने जाते हैं उसी तरह ज्ञान चतुर्वेदी का पहला ही उपन्यास 'नरक-यात्रा' खासा चर्चा में रहा जो भारतीय चिकित्सा-शिक्षा और व्यवस्था पर आधारित रहा है और उसमें भी व्यंग्य व विट उसी तरह घुले दिखते हैं जैसा रागदरबारी की कथा संरचना में. इसी क्रम में उनके 'बारामासी' तथा 'मरीचिका' व 'हम न मरब' जैसे उपन्यास आए और हाल ही में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित पागलखाना उनका उपन्यास विशेष चर्चा में है.
वे दस वर्षों तक 'इंडिया टुडे' में व्यंग्य स्तंभ लिखते रहे हैं तथा 'नया ज्ञानोदय' में भी कई वर्षों तक नियमित स्तम्भ लिखा है. इसके अतिरिक्त राजस्थान पत्रिका और 'लोकमत समाचार' दैनिकों के लिए भी वे व्यंग्य स्तंभ लिखते रहे हैं.
अब तक हजारों व्यंग्य रचनाओं के रचयिता ज्ञान चतुर्वेदी के कई व्यंग्य संग्रह 'प्रेत कथा', 'दंगे में मुर्गा', 'मेरी इक्यावन व्यंग्य रचनाएं', 'बिसात बिछी हैं', 'खामोश! नंगे हमाम में हैं', 'प्रत्यंचा' ओर 'बाराखड़ी' इत्यादि प्रकाशित हो चुके हैं तथा व्यंग्य विधा को उनके योगदान के लिए उन्हें 'राष्ट्रीय शरद जोशी सम्मान' हिंदी अकादमी सम्मान', अन्तर्राष्ट्रीय इन्दु शर्मा कथा-सम्मान (लन्दन) तथा 'चकल्लस पुरस्कार' एवं हाल ही में लमही सम्मान के अलावा कई विशिष्ट सम्मान हासिल हो चुके हैं.
क्या-क्या है 'लमही' के इंस अंक में
‘लमही' का यह विशेषांक कथाकार एवं व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी के लेखन के विपुल आयाम को उनके समकालीन विभिन्न लेखकों के माध्यम से उद्घाटित करता है. उनके हाल में आए उपन्यास ‘पागलखाना' पर गौतम सान्याल एवं ईशमधु तलवार ने लिखा है. सान्याल जहां कहते हैं कि इसके गद्य को आराम कुर्सी पर बैठ कर नहीं पढ़ा जा सकता वहीं तलवार ने बाजार की चकाचौंध के बीच चेहरों की स्याह झुर्रियों को बारीकी से पकड़ने के ज्ञान के कौशल की सराहना की है. ‘हम न मरब' में प्रभाकर श्रोत्रिय ने दर्शन के दर्शन किए हैं जिसमें बब्बा और अम्मा दो छोर हैं और तीसरी तरफ दुनिया की वे संकीर्णताएं जिनके घिनौनेपन को ज्ञान ने बखूबी उधेड़ा है. ‘मरीचिका' पर समर्थ कथाकार स्वयं प्रकाश एवं आलोचक पल्लव ने डूब कर लिखा है तो ‘बारामासी' पर श्रीलाल शुक्ल एवं आनंद मालवीय की समीक्षाएं ज्ञान चतुर्वेदी के लेखकीय बारीकियों की व्याख्या करती हैं.
उनके स्फुट व्यंग्य संग्रहों पर आलोक पुराणिक, वीरेन्द्र सक्सेना, शांतिलाल जैन, प्रेम जनमेजय, प्रताप दीक्षित, सुशील सिद्धार्थ, सुभाष चंदर व सीमा शर्मा ने लिखा है तो प्रेम जनमेजय, अश्विनी कुमार दुबे व उनकी जिगरी दोस्त प्रभु जोशी ने उन्हें अपने संस्मरणों में टांका है. अंत में ज्ञान चतुर्वेदी के कुछ लघु व्यंग्य आलेख शामिल हैं जिन्हें जितनी बार पढा जाए, पहली पहली बार पढे जाने जैसा सुख होता है. इस अंक का एक रोचक पहलू है ज्ञान चतुर्वेदी से शांतिलाल जैन की बातचीत जो पूरी गंभीरता से उनकी रचना प्रक्रिया खास तौर पर फैंटेसी केंद्रित पागलखाना की रचना की मनोभूमि से उतरने से लेकर पागलखाना की भयावह स्थितियों, उर्दू की हास्य व्यंग्य की दुनिया, हम न मरब में मृत्यु की हंसी उड़ाने की स्पिरिट, जीवन में उपस्थित शानदार नरक व व्यंग्य की विराट संरचना में न्यस्त करुणा व व्यंग्य के विधान में भी अक्षुण्ण किस्सागोई तक के मुद्दे तथा किन मामलों में वे परसाई, शरद जोशी आदि से अलग दिखते हैं---तक ले जाती है.
समकालीनों के लिए कसौटी
जैसा कि ‘लमही' संपादक विजय राय अपने संपादकीय में कहते हैं, व्यंग्य पर जिस तरह अखबारीपन हावी रहा है और ज्यादातर लेखक अखबारी चमक में ही खोए रहे हैं, ज्ञान चतुर्वेदी इस अखबारीपन और सतही खिलखिलाहटों से दूरी बरतते हुए कथानक और व्यंग्य के विरल संतुलन को साधते हुए इस वक्त के एक मात्र ऐसे कथाकार बन गए हैं जिसके ढांचे में व्यंग्य और किस्सागोई एक दूसरे से गलबहियां डाल कर रहते हैं. कथा पत्रिका ‘लमही' ने ज्ञान चतुर्वेदी पर अंक केंद्रित कर अपने ही विशेषांक ‘औपन्यासिक' से एक कदम आगे बढ़ कर हमारे समय के एक ऐसे जीवंत कथाकार का मानवर्धन किया है जो अपने समकालीनों के लिए एक कसौटी है.
डॉ ओम निश्चल हिंदी के कवि, गीतकार एवं सुपरिचित समालोचक हैं.
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