भारतीय दलित साहित्य में ओमप्रकाश वाल्मीकि बड़ा नाम हैं. उनके लेखन में सिर्फ दलित विमर्श ही नहीं, लेखन की बारीकियां और साहित्य से सरोकार भी मौजूद है. उनके लेखन व साहित्य में दलित विमर्श और अन्य मुद्दों पर उनके विचारों का उपयोगी संकलन है 'ओमप्रकाश वाल्मीकि का अंतिम संवाद.' यह पुस्तक उनसे भंवरलाल मीणा की लंबी बातचीत पर आधारित है. मीणा राजस्थान के आदिवासी क्षेत्र में अध्यापन कार्य करते हैं. किताब में समाज, जाति और धर्म से जुड़े अनेक प्रासंगिक सवाल हैं जिनका वाल्मीकि ने तार्किक एवं बेबाक जवाब दिया है. दसअसल, यह किताब मात्र संवाद भर नहीं, साहित्य में दलित विमर्श और समाज में दलितोत्थान के प्रयासों का एक पारदर्शी चेहरा है, जिसमें उनकी कमियां एवं अच्छाइयां सब स्पष्ट हो गई हैं. खास तौर पर दलित विमर्श की बात की जाए तो वाल्मीकि ने पूरे इतिहास को ही खंगालकर उदाहरण पेश किए हैं. बड़े-बड़े लेखकों एवं पाठकों की चूक पर उन्होंने दृढ़ता से न सिर्फ उंगली रखी है बल्कि सही क्या होना चाहिए, यह भी सुझाया है. इस लिहाज से किताब और भी विचारणीय हो जाती है.
धर्म और जाति से जुड़े प्रश्न हमारे देश में हमेशा ही ज्वलंत रहे हैं. शिक्षा के इतने विस्तार के बावजूद गांवों और शहरों में जातिवाद कायम है. जाति के नाम पर चुनाव लड़े और जीते जाते हैं. वाल्मीकि हमारे समाज की संरचना एवं सोच से भली-भांति वाकिफ थे. इस किताब में उन्होंने जातिवाद के अलग-अलग रूपों की चर्चा की है. शहरों के शिक्षित लोगों के बीच भी जातिवाद की मजबूत जड़ें हैं. यहां तक कि जो विदेश में रह आए हैं वे भी भारत में आकर वैसा ही रवैया अपना लेते हैं. किस तरह सदियों से चली आ रही जातिवादी व्यवस्था अब भी लोगों के मन में किसी न किसी रूप में जिंदा है- इसके अनेक उदाहरण दिए हैं. मार्क्सवाद के वर्गीय अवधारणा को नकारते हुए उनका कहना है कि भारत में जाति एक सामाजिक सचाई है. कई उदाहरण उन्होंने इसे साबित किया है. एक उदाहरण के तौर पर वे बताते हैं, 'जगजीवन राम उप-प्रधानमंत्री बन चुके थे. बनारस यूनिवर्सिटी में संपूर्णानंद की मूर्ति का उद्घाटन करने जाते हैं, जब उद्घाटन करके आ जाते हैं, तब उस मूर्ति को गंगाजल से धोया जाता है... यहां पर कहां है वर्ग और वर्ग का आधार क्या है?भारत में वर्ग हैं ही नहीं, यहां पर वर्ण है. जब तक वर्ण नहीं टूटेगा, वर्ग नहीं बन सकता. भारतीय मार्क्सवादी घर के बाहर वर्गवादी और घर के अंदर वर्णवादी हैं.'
ये कुछ इतिहास से लिये गए उदाहरण हैं लेकिन उन्होंने भारत के शहरों में व्याप्त जाति व्यवस्था को दर्शाते हुए कुछ समकालीन उदाहरण भी पेश किए हैं. 'जब वह आया है दिल्ली जैसे शहर में उसने क्या अनुभव अर्जित किये हैं? जब वो किराये का मकान लेने जाता है, तब उससे जात पूछी जाती है, जब वह अपने आप को दलित कहता है या एसटी, एससी कहता है, तब उसे मकान नहीं मिलता है.' जीवन के अंतिम क्षणों में बातचीत के माध्यम से समाज का पथ प्रदर्शन करने वाले विचार देकर उन्होंने अपने पाठकों और चिंतकों को एक नायाब तोहफा दिया है.
किताब: ओमप्रकाश वाल्मीकि का अंतिम संवाद
लेखक/बातचीत: भंवरलाल मीणा
प्रकाशक: राजपाल एन्ड सन्ज़
कीमत: 160/-
(पुस्तक समीक्षकः सरस्वती रमेश)
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