यह अब रूढ़ि हो गई है कि जब भी हिन्दी ग़ज़लों की बात हो, दुष्यंत कुमार के ज़िक्र से शुरू हो. दूसरी रूढ़ि यह भी है कि जब भी हिन्दी ग़ज़लों का ज़िक्र किया जाए, इस बात का भी उल्लेख किया जाए कि हिन्दी की शास्त्रीय आलोचना ने कैसे हिन्दी ग़ज़लों की अवहेलना की है. दुर्भाग्य से इस टिप्पणी में भी इन रूढ़ियों से मुक्ति संभव नहीं है. हिन्दी ग़ज़लों पर दुष्यंत की छाया इतनी बड़ी है कि हर किसी पर उसका कुछ असर खोजा जा सकता है. इसी तरह यह शिकायत भी वैध है कि आधुनिक हिन्दी कविता की जो मुख्यधारा रही है, वह गीतों-नवगीतों या ग़ज़लों को कुछ संदेह से देखती रही है.
लेकिन यह समझने के लिए भी कि हिन्दी ग़ज़ल इन दोनों रूढ़ियों से बाहर आ रही है, इनका ज़िक्र ज़रूरी है. निश्चय ही आज की हिन्दी ग़ज़ल अपने लिए बातचीत का बिल्कुल नया मुहावरा तलाशने की कोशिश में है. इसी तरह आलोचना की सारी उपेक्षा के बावजूद ग़ज़लकारों की शोहरत बड़ी हो रही है - बल्कि अब तो उन पर पत्रिकाओं के विशेषांक आ रहे हैं. वर्ष 2016 में 'अलाव' का बहुत मोटा अंक ग़ज़लों पर केंद्रित रहा है. कुछ साल पहले 'नया ज्ञानोदय' ने भी अपना ग़ज़ल महाविशेषांक प्रकाशित किया था. इस दौर में हिन्दी के कई ऐसे शायर हैं, जिन्होंने अपनी अलग पहचान बनाई है. आलोक श्रीवास्तव और गौतम राजर्षि के अलावा इस कतार में जो तीसरा नाम फौरन ध्यान में आता है, वह प्रताप सोमवंशी का है, जिनकी ग़ज़लों का एक संग्रह 'इतवार छोटा पड़ गया' बिल्कुल हाल में आया और उसका पहला संस्करण ख़त्म होने की ख़बर आ रही है.
'इतवार छोटा पड़ गया' की ग़ज़लों से गुजरते हुए जो सबसे पहली बात ध्यान खींचती है, वह है प्रताप सोमवंशी के बयान की सादगी. कई बार लगता है कि प्रताप कुछ लिख नहीं, बस, कह रहे हैं और इसमें कुछ ख़ास बात नहीं है. मगर यह धोखादेह सादगी है - क्योंकि उनके यहां बिल्कुल आमफ़हम लगने वाले शेरों के बीच अचानक मर्म को छू लेने वाली चीज़ें चली आती हैं. जब वह कहते हैं, 'राम तुम्हारे युग का रावण अच्छा था, दस के दस चेहरे सब बाहर रखता था' तो लगता है कि वह हमारे समय की एक विडम्बना को मंचीय और तालीपिटाऊ आकर्षक भाषा में रखने की तरकीब जानते हैं, लेकिन इसी ग़ज़ल में अचानक कई शेर जैसे क़दम रोक लेते हैं - अपने-आप को देखती, अपना सच और साहस संजोती पंक्तियां सामने आ खड़ी होती हैं - 'शाम ढले ये टीस तो भीतर उठती है, मेरा ख़ुद से हर इक वादा झूठा था, ये भी था कि दिल को कितना समझा लो, बात गलत होती थी तो वो लड़ता था, भूल भटक कर सबको ही याद आता है, पुरखों का सच हर पीढ़ी में बोला था...'
ये जादुई ग़ज़लें नहीं हैं, ये अनायास आपको आकर्षित नहीं करतीं, लेकिन इनका मोल दूसरा है. ये हमारे समय की कशमकश को, अपने इंसान को बचाए रखने की दुविधा को, अपने ईमान को दांव पर न लगाने के धीरज को बहुत ईमानदारी से पकड़ती हैं - इनको पढ़ते हुए समझ में आता है कि इनका जादू देर से खुलता है और फिर देर तक टिकता है.
अनायास हमारे सामने एक ऐसा शायर खड़ा है, जो जैसे बहुत मेक-अप नहीं करता. ऐसा नहीं कि हिन्दी या उर्दू में इसके पहले ऐसी ग़ज़लें नहीं लिखी गईं, जिनमें आत्मनिरीक्षण, आत्मचिंतन या आत्मशोध हो, लेकिन इन तमाम ग़ज़लों के बीच प्रताप सोमवंशी की ग़़जलें कुछ होने, कुछ कहने का दिखावा किए बिना जिस सहजता से अपनी बात रख जाती हैं, वह उन्हें कुछ अलग करता है. वह नकली आभामंडल में नहीं पड़ते. उन्हें मालूम है कि 'लायक कुछ नालायक बच्चे होते हैं, शेर कहां ही सारे अच्छे होते हैं.' लेकिन जो अच्छे शेर होते हैं, वे बहुत चीखते हुए नहीं होते, यह भी उनको मालूम है. उन जैसा शायर ही लिख सकता है - 'तय हो जाता है तब किस्तों में मरना, जब अपने अंदर ही क़ातिल होता है, नींद बड़ी अच्छी आई कल रात मुझे, सच कहने से ये तो हासिल होता है, दिन कुछ उल्टी-सीधी हरकत करता है, इसलिए मन रात को बोझिल होता है...'
ऐसी ग़ज़लें इस पूरे संग्रह में ढेर सारी हैं. उनका सिलसिला निजी कैफ़ियतों से शुरू होकर सामाजिक और सियासी हक़ीक़त तक जाता है.
वह पूरे ज़माने की बात करते हैं - कहीं-कहीं नारे की तरह, मगर ज़्यादातर इतने सहज भाव में कि उन्हें जज़्ब करने में कुछ वक़्त लगता है. कई बार ये अशआर अपने वक़्त पर एक मुकम्मल बयान की तरह आते हैं, तो कई बार आने वाले वक़्तों का आईना हो जाते हैं. किसी बड़ी रचना की ख़ासियत यही होती है कि वह अपने समय में धंसी रहकर भी उससे अलग हो जाती है, उसके तमाम मानी निकाले जा सकते हैं. अरसा पहले उन्होंने एक खिलंदड़ा शेर लिखा था - सरासर झूठ बोले जा रहा है, हुंकारा अलग भरवा रहा है...' संभव है, बहुत सारे लोगों को यह शेर आज के हालात और हुक्मरान पर लगे.
दरअसल, उर्दू ग़ज़ल में सादगी की एक बहुत पुरानी परंपरा है. मीर तकी मीर उसके सबसे पुराने पुरखों में हैं. इस परंपरा को समकालीन समय में बिल्कुल आमफहम मुहावरे मिले हैं. नासिर काज़मी और निदा फ़ाज़ली से लेकर मुनव्वर राना तक यह सादगी तरह-तरह के पैरहन में दिखाई पड़ती है. दुष्यंत के बाद इस दौर तक आते-आते हिन्दी ग़ज़लों ने भी अपना चोला पूरी तरह बदला है. प्रताप सोमवंशी इसी साझा परंपरा की पैदाइश हैं, जिसमें वह अपना एक अलग रंग भी मिलाते हैं. 'इतवार छोटा पड़ गया' की ग़ज़लें इसका बहुत जीवंत सबूत हैं.
- इतवार छोटा पड़ गया
(प्रताप सोमवंशी)
वाणी प्रकाशन
144 पृष्ठ
150 रुपये
लेकिन यह समझने के लिए भी कि हिन्दी ग़ज़ल इन दोनों रूढ़ियों से बाहर आ रही है, इनका ज़िक्र ज़रूरी है. निश्चय ही आज की हिन्दी ग़ज़ल अपने लिए बातचीत का बिल्कुल नया मुहावरा तलाशने की कोशिश में है. इसी तरह आलोचना की सारी उपेक्षा के बावजूद ग़ज़लकारों की शोहरत बड़ी हो रही है - बल्कि अब तो उन पर पत्रिकाओं के विशेषांक आ रहे हैं. वर्ष 2016 में 'अलाव' का बहुत मोटा अंक ग़ज़लों पर केंद्रित रहा है. कुछ साल पहले 'नया ज्ञानोदय' ने भी अपना ग़ज़ल महाविशेषांक प्रकाशित किया था. इस दौर में हिन्दी के कई ऐसे शायर हैं, जिन्होंने अपनी अलग पहचान बनाई है. आलोक श्रीवास्तव और गौतम राजर्षि के अलावा इस कतार में जो तीसरा नाम फौरन ध्यान में आता है, वह प्रताप सोमवंशी का है, जिनकी ग़ज़लों का एक संग्रह 'इतवार छोटा पड़ गया' बिल्कुल हाल में आया और उसका पहला संस्करण ख़त्म होने की ख़बर आ रही है.
'इतवार छोटा पड़ गया' की ग़ज़लों से गुजरते हुए जो सबसे पहली बात ध्यान खींचती है, वह है प्रताप सोमवंशी के बयान की सादगी. कई बार लगता है कि प्रताप कुछ लिख नहीं, बस, कह रहे हैं और इसमें कुछ ख़ास बात नहीं है. मगर यह धोखादेह सादगी है - क्योंकि उनके यहां बिल्कुल आमफ़हम लगने वाले शेरों के बीच अचानक मर्म को छू लेने वाली चीज़ें चली आती हैं. जब वह कहते हैं, 'राम तुम्हारे युग का रावण अच्छा था, दस के दस चेहरे सब बाहर रखता था' तो लगता है कि वह हमारे समय की एक विडम्बना को मंचीय और तालीपिटाऊ आकर्षक भाषा में रखने की तरकीब जानते हैं, लेकिन इसी ग़ज़ल में अचानक कई शेर जैसे क़दम रोक लेते हैं - अपने-आप को देखती, अपना सच और साहस संजोती पंक्तियां सामने आ खड़ी होती हैं - 'शाम ढले ये टीस तो भीतर उठती है, मेरा ख़ुद से हर इक वादा झूठा था, ये भी था कि दिल को कितना समझा लो, बात गलत होती थी तो वो लड़ता था, भूल भटक कर सबको ही याद आता है, पुरखों का सच हर पीढ़ी में बोला था...'
ये जादुई ग़ज़लें नहीं हैं, ये अनायास आपको आकर्षित नहीं करतीं, लेकिन इनका मोल दूसरा है. ये हमारे समय की कशमकश को, अपने इंसान को बचाए रखने की दुविधा को, अपने ईमान को दांव पर न लगाने के धीरज को बहुत ईमानदारी से पकड़ती हैं - इनको पढ़ते हुए समझ में आता है कि इनका जादू देर से खुलता है और फिर देर तक टिकता है.
अनायास हमारे सामने एक ऐसा शायर खड़ा है, जो जैसे बहुत मेक-अप नहीं करता. ऐसा नहीं कि हिन्दी या उर्दू में इसके पहले ऐसी ग़ज़लें नहीं लिखी गईं, जिनमें आत्मनिरीक्षण, आत्मचिंतन या आत्मशोध हो, लेकिन इन तमाम ग़ज़लों के बीच प्रताप सोमवंशी की ग़़जलें कुछ होने, कुछ कहने का दिखावा किए बिना जिस सहजता से अपनी बात रख जाती हैं, वह उन्हें कुछ अलग करता है. वह नकली आभामंडल में नहीं पड़ते. उन्हें मालूम है कि 'लायक कुछ नालायक बच्चे होते हैं, शेर कहां ही सारे अच्छे होते हैं.' लेकिन जो अच्छे शेर होते हैं, वे बहुत चीखते हुए नहीं होते, यह भी उनको मालूम है. उन जैसा शायर ही लिख सकता है - 'तय हो जाता है तब किस्तों में मरना, जब अपने अंदर ही क़ातिल होता है, नींद बड़ी अच्छी आई कल रात मुझे, सच कहने से ये तो हासिल होता है, दिन कुछ उल्टी-सीधी हरकत करता है, इसलिए मन रात को बोझिल होता है...'
ऐसी ग़ज़लें इस पूरे संग्रह में ढेर सारी हैं. उनका सिलसिला निजी कैफ़ियतों से शुरू होकर सामाजिक और सियासी हक़ीक़त तक जाता है.
वह पूरे ज़माने की बात करते हैं - कहीं-कहीं नारे की तरह, मगर ज़्यादातर इतने सहज भाव में कि उन्हें जज़्ब करने में कुछ वक़्त लगता है. कई बार ये अशआर अपने वक़्त पर एक मुकम्मल बयान की तरह आते हैं, तो कई बार आने वाले वक़्तों का आईना हो जाते हैं. किसी बड़ी रचना की ख़ासियत यही होती है कि वह अपने समय में धंसी रहकर भी उससे अलग हो जाती है, उसके तमाम मानी निकाले जा सकते हैं. अरसा पहले उन्होंने एक खिलंदड़ा शेर लिखा था - सरासर झूठ बोले जा रहा है, हुंकारा अलग भरवा रहा है...' संभव है, बहुत सारे लोगों को यह शेर आज के हालात और हुक्मरान पर लगे.
दरअसल, उर्दू ग़ज़ल में सादगी की एक बहुत पुरानी परंपरा है. मीर तकी मीर उसके सबसे पुराने पुरखों में हैं. इस परंपरा को समकालीन समय में बिल्कुल आमफहम मुहावरे मिले हैं. नासिर काज़मी और निदा फ़ाज़ली से लेकर मुनव्वर राना तक यह सादगी तरह-तरह के पैरहन में दिखाई पड़ती है. दुष्यंत के बाद इस दौर तक आते-आते हिन्दी ग़ज़लों ने भी अपना चोला पूरी तरह बदला है. प्रताप सोमवंशी इसी साझा परंपरा की पैदाइश हैं, जिसमें वह अपना एक अलग रंग भी मिलाते हैं. 'इतवार छोटा पड़ गया' की ग़ज़लें इसका बहुत जीवंत सबूत हैं.
- इतवार छोटा पड़ गया
(प्रताप सोमवंशी)
वाणी प्रकाशन
144 पृष्ठ
150 रुपये
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