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This Article is From Apr 04, 2024

पुस्तक समीक्षा : दिल्ली के उजड़ने से पहले का दस्तावेज़ है 'दिल्ली के चटख़ारे'

रेख्ता बुक्स और राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित किताब 'दिल्ली के चटख़ारे' के लेखक शाहिद अहमद देहलवी हैं और इस किताब का संकलन एवं संपादन शुऐब शाहिद द्वारा किया गया है.

पुस्तक समीक्षा : दिल्ली के उजड़ने से पहले का दस्तावेज़ है 'दिल्ली के चटख़ारे'
'दिल्ली के चटख़ारे' के लेखक शाहिद अहमद देहलवी हैं और इसका संकलन एवं संपादन शुऐब शाहिद द्वारा किया गया है...

वक्त सब कुछ भुला देता है, लेकिन अपने इतिहास को जानना इंसान के लिए ज़रूरी है, नहीं तो उसकी खुद की कोई पहचान नहीं रहती. दिल्ली में रहने वाले, दिल्ली को समझने वाले लोग अगर यह जानना चाहते हैं कि सालों पहले दिल्ली कैसे ज़िन्दा थी, तो उन्हें इस किताब को ज़रूर पढ़ना चाहिए.

रेख्ता बुक्स और राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित किताब 'दिल्ली के चटख़ारे' के लेखक शाहिद अहमद देहलवी हैं और इस किताब का संकलन एवं संपादन शुऐब शाहिद द्वारा किया गया है.

'बीवी कैसी होनी चाहिए' किताब का आवरण चित्र तैयार करने वाले विक्रम नायक ने ही इस किताब का आवरण चित्र भी तैयार किया है. इसे देख दिल्ली की तस्वीर मन में उतर आती है, पिछले आवरण में सालों पुरानी दिल्ली पर लिखा किताब का एक अंश है, जो पाठकों को किताब पढ़ने के लिए आतुर कर देगा.

चटख़ारा लगवाती किताब

'दिल्ली के चटख़ारे' नाम से किताब का शीर्षक पृष्ठ 16 में बिल्कुल सटीक बैठता दिखता है, जब हम इसमें दिल्ली के खाने के बारे में यह पढ़ते हैं 'गरीबों में अब भी किसी-किसी के यहां तहरी ऐसी पकती है कि बिरयानी उसके आगे हेच है...'

ऐसे ही पृष्ठ 20-21 में निहारी बनाने का फॉर्मूला लिख दिया गया है, जिसे पढ़कर इसे चाहने वाले खुद भी घर में निहारी बनाना ट्राई कर सकते हैं. 'शोरबे का लबधड़ा बनाने के लिए आलन डाला जाता है. पानी में आटा घोलकर आलन बनाया जाता है...'

'दिल्ली वाले बड़े चटोरे मशहूर थे, इन्हें ज़बान के चटख़ारों ने मार रखा था' लिखते लेखक दिल्ली के खोए हुए चटोरों को ढूंढते दिखते हैं.

मज़दूरों की जो स्थिति लेखक ने नज़दीक से देखी

लेखक ने इस किताब में दिल्ली के मज़दूरों को खोजते उन पर लिखा है, मज़दूरों के बारे में पढ़ते ऐसा लगता है कि लेखक इन मज़दूरों के जीवन को काफी करीब से देख रहे थे. पृष्ठ 27, 28 की पंक्तियों में हमें यह सब दिखता है 'अस्ल में निहारी गरीब गुरबा का मन भाता खाना है... दस्तकार, मज़दूर और कारीगर सुबह-सुबह काम पर जाने से पहले चार पैसे में अपना पेट भर लेते थे... दो पैसे की निहारी और दो पैसे की दो रोटियां उनके दिनभर के सहारे को काफी होतीं...'

इसी के साथ लेखक ने बदलते वक्त, महंगाई और पेट पालने की चुनौती को भी अपनी लेखनी के ज़रिये पाठकों के सामने लाने की कोशिश की है 'सस्ते और बा बरकत समय थे... एक कमाता, दस खाते थे और अब दस कमाते हैं और एक को भी नहीं खिला सकते...'

'दिल्ली के गरीब कमाते भी खूब थे, मगर अपनी आदतों के पीछे मुहल्ले के बनिये के कर्ज़दार अक्सर रहते थे' पंक्ति से लेखक ने मज़दूर वर्ग के व्यसनों भरे जीवन की तरफ बड़े ही व्यंग्यात्मक तरीके से इशारा किया है.

इतनी गम्भीरता लाते हुए भी लेखक किताब में 'तन को नहीं लत्ता, पान खाए अलबत्ता', 'जिसने दिया है तन को, वही देगा कफ़न को' लिखते रहे, जो आज भी कोई पाठक अपनी शेखी बघारने के लिए कह सकता है.

दिल्ली की महफ़िल, जो कहीं खो गई

दिल्ली के खाने-पीने वाले माहौल के बाद लेखक ने किताब को दिल्ली के नाच-गाने के रंग के साथ आगे बढ़ाया है. 'जिस जमाने में गाने-बजाने को ऐब नहीं, हुनर समझा जाता था' पंक्ति से गाने-बजाने का बदलता अर्थ समझ आता है.

'जब दिल्ली उजड़ गई, तो महफ़िलें कैसे आबाद रहतीं' पंक्ति अब बदलते समाज की ओर इशारा करती है, मशीन बनते इंसान को भागने-दौड़ने से अब चैन नहीं है और लोगों के लिए मनोरंजन का अर्थ बदल गया है, लोग मोबाइल तक सीमित हो गए हैं. लेखक यही सब कहना चाहते थे और कामयाब भी रहे हैं.

बटेरों, तोतों, कबूतरों के खेल, भेड़ पालने वाली पुरानी दिल्ली के किस्से पढ़ने में बड़े रोचक हैं. वक्त के साथ खत्म हो गए कई किस्सों को लेखक ने किताब में समेटा है. जैसे, पृष्ठ 58 में वह लिखते हैं 'शाही ज़माने में सुना है कि ऐसे भी परिंदे होते थे, जो झपटकर हिरण की आंख फोड़ डालते थे... हिरण अंधा होकर चौकड़ी भूल जाता और शिकारी दौड़कर उसे पकड़ लेते थे...'

इस किताब में लेखक ने बार-बार साल 1947 के बाद दिल्ली के उजड़ जाने का ज़िक्र किया है, वह कभी जामा मस्जिद के जुनूबी चौराहे के सामने वाले रास्ते को याद करते हैं, तो कभी चावड़ी के बारे में लिखते हैं.

'और सन 47 में जैसी खाक उड़ी, वो हमने भी देखी और आपने भी' जैसी पंक्तियों से दिल्ली उजड़ जाने से खुद को मिले दर्द को लेखक इस किताब में लिखते गए हैं. भविष्य में अगर सड़कों, मेट्रो और इमारतों के जाल में उलझी दिल्ली के बारे में चर्चा करते कोई इस किताब का ज़िक्र करेगा, तो उसे शायद विश्वास न हो कि दिल्ली ऐसी भी थी.

जान बनाए रखने का होश, किताब का सबसे खूबसूरत हिस्सा

दिल्ली वालों के खुद के शरीर को चुस्त-दुरुस्त रखने के शौक के बारे में लिखते हुए जैसे लेखक कई सालों तक पूरे देश की जनता को इससे सीख देना चाहते थे.

इंटरनेट के गुलाम बन चुके युवाओं को इन किताबों को ज़रूर पढ़ना चाहिए, इनसे हम अपने इतिहास से वाकिफ़ होते रहते हैं, लेखक ने दिल्ली वालों के इस शौक पर कुछ ऐसे लिखा है 'दिल्ली वालों को अपनी जान बनाए रखने का बड़ा शौक था... इस शौक को पूरा करने के लिए वर्जिश किया करते थे और वर्जिशी खेलों में शरीक होते थे...'

पाठकों को सम्बोधित करते लेखक

पृष्ठ 77 में लेखक ने गिल्ली-डण्डा खेलना शब्दों के ज़रिये सिखाया है, इससे आगे शतरंज से जुड़े किस्से पाठकों को हंसाते रहेंगे. लेखक कई जगह पाठकों को सम्बोधित करते हैं और यह कला पाठकों को किताब से जोड़े रखने के लिए सीखनी बहुत ज़रूरी है, 'अब इन मियां-बीवी को मीठी-मीठी बातें करने दीजिए'. ऐसे ही 'आइए, हम आप चलें यहां से'.

किताब पढ़ते कहीं-कहीं महसूस होता है कि लेखक ने कुछ आसान और रोज़मर्रा के जीवन में बोले जाने वाले उर्दू शब्दों का हिन्दी अर्थ तो बताया है, लेकिन कहीं-कहीं उनसे कठिन उर्दू शब्दों का हिन्दी अर्थ बताना रह गया.

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