One Nation, One Election: क्या भारत में सभी तरह के चुनाव, यानी लोकसभा, विधानसभा और स्थानीय निकाय आदि चुनाव एक साथ कराए जा सकते हैं. यह सवाल संविधान सभा की बैठकों और बहसों के दिनों से आज तक चर्चा में बना हुआ है. आज़ादी के बाद कई बार सभी चुनाव एक साथ हुए, लेकिन उसके लगभग दो दशक बाद जिस तरह लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने का सुर-ताल बिगड़ा, तब से यह बहस और तेज़ होती चली आ रही है. पिछले साल पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अगुवाई में बनी कमेटी ने अब अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को सौंप दी है.
इस रिपोर्ट में क्या-क्या सिफ़ारिशें की गई हैं, और उन सिफ़ारिशों का क्या असर हो सकता है, इसे समझना ज़रूरी है...
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के हाथों में जब पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ये दस्तावेज सौंप रहे थे तो वो भारत के लिए वन नेशन, वन इलेक्शन की एक नई जमीन भी तैयार कर रहे थे. पिछले साल 2 सितंबर को पूर्व राष्ट्रपति कोविंद की अगुवाई में बने पैनल ने राष्ट्रपति को 18 हजार 626 पन्नों की जो रिपोर्ट सौंपी, उसमें साफ लिखा है कि संविधान संशोधन के पहले चरण में लोकसभा और सभी विधानसभा चुनाव एक सात साथ हों. इसके लिए राज्यों से मंजूरी की ज़रूरत नहीं होगी.
वन नेशन वन इलेक्शन की चुनौतियां
संविधान संशोधन के दूसरे चरण में लोकसभा, विधानसभा के साथ स्थानीय निकाय चुनाव हों. स्थानीय निकाय चुनाव लोकसभा, विधानसभा के चुनावों के 100 दिन के अंदर हों. इसमें अनुच्छेद 324A में संशोधन की जरूरत है, जिसके लिए कम से कम आधे राज्यों की मंजूरी की जरूरत है. कोविंद कमेटी की ये भी सिफारिश है कि तीन स्तरीय चुनाव के लिए एक मतदाता सूची, फोटो पहचान पत्र जरूरी होगा. इसके लिए संविधान के अनुच्छेद 325 में संशोधन की जरूरत होगी, जिसमें कम से कम आधे राज्यों की मंजूरी चाहिए. साथ ही मध्यावधि चुनाव के बाद गठित होने वाली लोकसभा या विधानसभा का कार्यकाल उतना ही होगा, जितना लोकसभा का बचा हुआ कार्यकाल रहेगा. इसके लिए कोविंद कमेटी ने 47 राजनीतिक दलों से राय मशविरा किया, जिनमें 32 दल तो एक साथ सारे चुनावों के पक्ष में हैं, लेकिन कांग्रेस और टीएमसी समेत 15 राजनीतिक दल इससे सहमत नहीं हैं.
अब सवाल उठता है कि एक देश, एक चुनाव जैसी स्थिति क्यों आई, आखिर इससे क्या फायदे हो सकते हैं, जिनके लिए इतनी कवायदें की गईं....
हर साल देश में औसतन पांच से छह चुनाव होते हैं, जबकि स्थानीय निकाय चुनाव इनसे अलग हैं. चुनावों पर सरकार का खर्च बहुत अधिक होता है. साथ ही राजनीतिक दलों का भी बहुत ज़्यादा खर्च होता है. अलग-अलग चुनावों से अस्थिरता और अनिश्चितता की स्थिति होती है. सप्लाई चेन, निवेश और आर्थिक विकास में बाधा आती है. सरकारी मशीनरी के काम में भी अक्सर रुकावट आती है. सरकारी व्यवस्था में बाधा से लोगों की तकलीफ़ बढ़ जाती है. सरकारी अधिकारी, सुरक्षा बल बार-बार चुनाव ड्यूटी में अपनी ऊर्जा लगाते हैं. अक्सर आचार संहिता से नीति निर्माण में बाधा पड़ती है. अक्सर आचार संहिता से विकास के काम रुकते हैं. इतने चुनाव मतदाताओं को भी थका देते हैं और उनका ज्यादातर समय चुनावी मोड में ही गुजर जाता है.
2019 का लोकसभा चुनाव दुनिया का सबसे महंगा चुनाव था..
एक तो भारत में चुनाव ऐसे ही बहुत महंगे हो गए हैं. 2019 का लोकसभा चुनाव दुनिया का सबसे महंगा चुनाव था. सेटर फॉर मीडिया स्टडीज के मुताबिक- उस चुनाव में 55 हजार करोड़ रुपये खर्च हुए थे, इसीलिए जानकार मानते हैं कि चुनावों के फैले हुए दायरे को समेटा जाए.
1967 के चौथे आम चुनाव तक केंद्र और राज्य के चुनाव साथ होते थे...
आजादी के बाद 1952 से 1967 के चौथे आम चुनाव तक केंद्र और राज्यों के चुनाव साथ साथ ही होते रहे, लेकिन बाद में राज्य सरकारों के गिरने या भंग होने से ये लय बिगड़ गई. फिर गठबंधन सरकारों के दौर में बार बार मतदाताओं की चौखट पर चुनावी शोर बढ़ने लगा. अब कोविंद कमेटी की रिपोर्ट से ये उम्मीद की जा रही है कि एक देश एक चुनाव लोकतंत्र को आसानी से आगे बढ़ाने का जरिया बनेगा.
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