रवीश कुमार का प्राइमटाइम : नोटबंदी के नाकाम फैसले का क्या था आधार?

नक्सलवाद आतंकवाद सबमिट जाएगा जबकि ऐसा कुछ नहीं हुआ. प्रधानमंत्री ने देश से पचास दिन का समय मांगा तो कभी कह दिया कि वे फकीर है. झोला लेकर चले जाएंगे. फैसले का आधार इतना बडा था कि किसी को ध्यान नहीं रहा कि अचानक इस फैसले पर सरकार कैसे और क्यों पहुंची.

नई दिल्ली:

नमस्कार मैं रवीश कुमार आठ नवंबर दो हजार सोलह को शाम आठ बजे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अचानक टीवी पर आती है और नोटबंदी का ऐलान कर देते हैं । उस वक्त ना कोई तैयारी थी ना किसी को खबर । देखते देखते लाखों लोगों की बचत उड गई और आम गरीब लोग बैंकों के बाहर नोट बदलने की लाइनों में लगा दिए गए । अपना पैसा बेकार होने के सदमे से कई लोगों के मरने और रोने धोने की खबरें भी उस समय खूब छपी । क्या देश कभी जान पाएगा कि वह फैसला कैसे लिया गया? क्यों लिया गया और उसका नतीजा क्या निकला? क्या यह भी जान पाएगा? कितने लोग अपने नोट नहीं बदल सके और वो राशि कितनी रही होगी जिससे पता चले कि आम लोगों की मेहनत की कमाई के इतने हजार करोड नष्ट हो गए? आठ नवंबर दो हजार सोलह के दिन ऐसा धमाका हुआ कि किसी को समझ नहीं आया । ये फैसला भी दो हजार बीस के तालाबंदी के जैसा एक ही झटके में देश सडक पर आ गया । पुराने नोट बदलने की समय सीमा इतनी कम थी कि बैंकों के बाहर लंबी लंबी कतारें लग गई ।

नोटबंदी के बाद बैंकों के कई ने बताया कि उनके पास नोट गिनने तक की मशीनें नहीं । हाथ से गिरने के कारण कम नोट गिने गए तो अपनी जेब से उसकी भरपाई करनी पडी । कई बैंकरों ने कर्ज लेकर नोट गिनने में आई कमी की भरपाई उस समय उन्हें लग रहा था कि वे किसी महायज्ञ में राष्ट्रीय महायज्ञ में योगदान कर रहे हैं । दूसरी तरफ आम महिलाओं ने घरवालों से बचाकर जो पैसे जमा किए थे उसे घर के पुरुषों के हवाले करने पड गए या फिर उनका पैसा ही नष्ट हो गया । नोटबंदी ने सामान पर व्यापक असर डाला । मीडिया रिपोर्ट के नुसार नोटबंदी के दौरान डेढ सौ से अधिक लोग मर गए । ऐसे अनेक लोगों के काम धंधे छूट गए, पीडीपी को गहरा धक्का पहुंचा और कई धंधे बंद हो गयी । नोटबंदी के बाद सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी सी की रिपोर्ट ने बताया कि जनवरी से लेकर अप्रैल दो हजार सत्रह के बीच पंद्रह लाख लोगों की नौकरियां चली गई । तब सरकार के मंत्रियों ने तरह तरह के दावे किए कि भारत से काला धन मिटने वाला है । काली नोट समाप्त होगा । 

नक्सलवाद आतंकवाद सबमिट जाएगा जबकि ऐसा कुछ नहीं हुआ । प्रधानमंत्री ने देश से पचास दिन का समय मांगा तो कभी कह दिया कि वे फकीर है । झोला लेकर चले जाएँगे । फैसले का आधार इतना बडा था कि किसी को ध्यान नहीं रहा कि अचानक इस फैसले पर सरकार कैसे और क्यों पहुँची । इस फैसले से एक एक नागरिक प्रभावित हुआ । बहुत से लोग विदेशों में थे । वे पाँच सौ और हजार के नोट नहीं बदल सकते । रिजर्व बैंक के बाहर लाइनें लग गई । कईयों के यहाँ शादियां होने वाली थी । सारे खर्चे रुक गए । रिजर्व बैंक के बाहर लाइनें लग गई । कईयों के यहाँ शादियां रुक गई । फिर भी एक सवाल बार बार उठता ही रहा कि नोटबंदी का फैसला क्यों लिया गया? किन लोगों के कहने पर लिया गया और इसका क्या हुआ? मैंने देश से पचास दिन मांगे हैं ।

पचास दिन तीस दिसंबर तक मुझे मौका दीजिए । मेरे भाई बहन अगर तीस दिसम्बर के बाद कोई मेरी कमी रह जाए, कोई मेरी गलती निकल जाए, कोई मेरा गलत ज्यादा निकल जाए । आप जिस चौराहे में मुझे खडा करेंगे, मैं खडा होकर के देश जो सजा करेगा, वो सजा भुगतने के लिए तैयार । मैं जानता हूँ । मैंने कैसे कैसी ताकतों से लडाई मोल ली है । मैं जानता हूँ । मैं जानता हूँ कैसे कैसे लोग मेरे खिलाफ हो जाएँगे । मैं जानता हूँ सत्तर साल का उनका मैं लूट रहा हूँ । मुझे जिंदा नहीं छोडेंगे । मुझे बर्बाद करके रहेंगे । उनको जो करना है करें । पचास साल भाइयों बहनों पचास पचास दिन मेरी मदद करें । उस भाषण में कितनी नाटकीयता प्रधानमंत्रीने भावुकता पैदा करने के लिए क्या क्या नहीं कह दिया कि लोग जिंदा नहीं छोडेंगे, बर्बाद कर देंगे । फैसला तो ले लिया गया मगर लिया कैसे गया? लोग ये सवाल पूछते रहे और जवाब मिला नहीं, इससे क्या फायदा हुआ? 

यही सवाल तालाबंदी के समय पूछा गया की तालाबंदी का फैसला लेने से पहले क्या सोच विचार हुआ? उस समय तालाबंदी के हालात थे भी या नहीं, क्योंकि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी उस वक्त तालाबंदी की राय नहीं दी, गोइंग वाइरल मेक को वैक्सिन दी । इनसाइड स्टोरी इस किताब के लेखक हैं । उस समय के आई के चीफ डॉक्टर बलराम भार्गव । डॉक्टर भार्गव इस किताब के पेज नंबर सात पर लिखते हैं कि मार्च के पहले सप्ताह में टाँग लीडरशिप के साथ की पहली बैठक प्रस्तावित थी । हम से कागज पर सुझाव देने के लिए कहा गया । हमने केवल दो पंक्तियां लिखी तालाबंदी करें, टाँग लीडरशिप का नाम तक नहीं । क्या इस तरह से तालाबंदी का फैसला लिया गया? तो क्या नोटबंदी के समय भी पर्ची पर लिखकर फैसला लिया गया, कोई नहीं जानता । सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की पीठ ने एक अहम फैसले में केंद्र सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक से कहा है कि नोटबंदी के फैसले से संबंधित फाइलें तैयार कीजिये और व्यापक हलफनामा दायर कीजिए । कोर्ट ने कहाँ कि नोटबंदी के एक दिन पहले केंद्र सरकार ने भारतीय रिजर्व बैंक को जो पत्र लिखा था वह भी उसमें शामिल हो । सुप्रीम कोर्ट की पीठ इस बात पर विचार करेगी कि क्या सरकार के पास बी आई अधिनियम की धारा छब्बीस के तहत पाँच सौ और एक हजार रुपए के सभी नोटों को बंद करने का अधिकार है । क्या नोटबंदी करने की प्रक्रिया उचित थी? अगली सुनवाई नौ नवंबर को होगी । नोटबंदी के बाद तक ये सवाल पूछा गया है कि इस फैसले से क्या हुआ इसका आधार किया था । 

कोर्ट ने यह भी कहा कि सरकार की समझदारी मामले का एक पहलू है । हम जानते हैं कि लक्ष्मणरेखा कहां है लेकिन जिस तरह से ये किया गया है और प्रक्रिया कुछ ऐसी है जिसकी जांच की जा सकती है । इसके लिए हमें इसकी सुनवाई की आवश्यकता है । कोई भी घोस कृष्णा एक तरह से या दूसरी तरह से भावी पीढी के लिए है । हमें लगता है कि ये संविधान पीठ का कर्तव्य है कि वो इसका किसी ना किसी तरह से जवाब दे । जस्टिस अब्दुल नजीर, जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस फॅस बोपन्ना, जस्टिस बी रामा सुब्रमण्यम और जस्टिस बीवी नागरत्ना की पीठ इस मामले की सुनवाई कर रही है । फैसला कैसे लिया गया, ये सवाल लंबे समय तक पूछा जाता रहा । नोटबंदी के एक साल बाद चौबीस दिसंबर दो हजार सत्रह को आर्थिक मामलों के सचिव तत्कालीन सचिव शक्तिकांत दास का एक बयान आता है । ये बयान कई अखबारों में छपा है । वे कहते हैं कि फैसले तक कैसे पहुंचा गया उस प्रक्रिया ऍम ऍम सो देर फोर ऍन अंडर कंसलटेंट डिस्कॉम इंटरनल कंसल्टेशन उं गवर्न मिंट ऍम टाइम सो ऑटो को इन टोमॅटो दिस डिसिप्लिन आइ थिंक बांट वी शुड बी फोकस सिंग ऑफ आखिर सरकार प्रक्रिया के बारे में क्यों नहीं बताना चाहती थी? अगस्त दो हजार उन्नीस में आरटीआई के आधार पर लाइव बिजनिस स्टैंडर्ड में खबर छप है कि रिजर्व बैंक के बोर्ड ने चेतावनी दी थी कि नोटबंदी से भारत की अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक असर पडेगा और कालेधन पर खास असर नहीं पडेगा । नोटबंदी के फैसले के ऐलान से ढाई घंटे पहले रिजर्व बैंक के बोर्ड ने ये राय दी थी । बोर्ड ने कहा कि कालाधन कॅश में नहीं है, दूसरे रूपों में है । सुप्रीम कोर्ट के पास जब पूरी फाइल पहुँचेगी तब इन सवालों की पुष्टि होगी । जवाब मिल सकते हैं । पता चलेगा कि क्या नोटबंदी से नुकसान की चेतावनी दी गई और ये चेतावनी कैसे बदली गई । मीडिया की पुरानी रिपोर्ट उठाकर देखिए नोटबंदी के अगले साल दो हजार सत्रह अठारह की रिपोर्ट मेरी रिजर्व बैंक ने कहा है कि निन्यानवे दशमलव तीन प्रतिशत नोट वापस आ गए । केवल दस हजार सात सौ बीस करोड वापस नहीं आए । जबकि नोटबंदी के बाद नए नोट छापने में ही रिजर्व बैंक को करीब आठ हजार करोड रुपए खर्च करने पड गए । जबकि सरकार सुप्रीम कोर्ट में लंबे चौडे दावे करती रही कि इतना लाख करोड कालाधन वापस नहीं आएगा, नष्ट हो जाएगा । मगर ज्यादातर पैसा तो उस समय वापस आ गया । 

सुप्रीम कोर्ट में अटर्नी जनरल ने कहा कि सरकार को उम्मीद है कि दस से ग्यारह लाख करोड रुपए वापस आएगा और चार से पांच लाख करोड नोट वापस नहीं आएगा । भारतीय रिजर्व बैंक ने अपनी सालाना रिपोर्ट में कहा कि पंद्रह दशमलव तीन लाख करोड पांच सौ और हजार रुपए के पुराने नोट तीस जून दो हजार सत्रह तक वापस आ गए । उस समय जाली नोट को लेकर खूब भ्रम फैलाया गया कि भारतीय मुद्रा में जाली मुद्रा का चलन बढ गया है । लेकिन पता चला कि कुछ करोड रुपए ही जाली नोट पकडे गए । राष्ट्रीय अपराध शाखा ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार दो हजार बीस में बानवे करोड के जाली नोट बरामद हुए । दो हजार उन्नीस की तुलना में एक सौ नब्बे प्रतिशत अधिक है । उस साल पच्चीस करोड के जाली नोट बरामद हुए थे । यानी नोटबंदी के बाद जाली नोटों की संख्या बढ गई । मई दो हजार बाईस में भारतीय रिजर्व बैंक की रिपोर्ट आई के पाँच सौ के जाली नोटों की संख्या में एक सौ दो प्रतिशत तक की वृद्धि हुई है । दो हजार के जाली नोटों की संख्या में पचपन प्रतिशत की वृद्धि हुई है । हमने पिछले सप्ताह बताया कि केवल गुजरात और महाराष्ट्र में चंद रोज पहले तीन सौ सत्रह करोड के जाली नोट पकडे गए है । नोटबंदी के बाद के वर्षों से भी ज्यादा जाली नोट पकडे गए तो नोटबंदी से जाली नोट समाप्त नहीं हुए । आपको एक और चीज बताना चाहता हूँ । नोट बंदी से एक साल पहले तेईस दिसंबर दो हजार पंद्रह को राज्यसभा में सरकार ने कहा कि भारत में कितने जाली नोट चलन में है इसका कोई ठोस अनुमान नहीं पता ही नहीं था । मगर जाली नोट के नाम पर भी नोटबंदी को सही बताया गया । इसी जवाब में गृह राज्यमंत्री हरिभाई चौधरी कहते हैं कि दो हजार चौदह में छत्तीस करोड के जाली नोट पकडे गए । क्या जालीनोट इतने अधिक हैं जो पकडा गया था । छत्तीस करोड की नोटबंदी ही एकमात्र रास्ता दिखा । अब बात करते हैं सूचना के अधिकार कि इस कानून को आये सत्रह साल हो गए दुनिया भर में और भारत में पत्रकारिता की जा रही है । गोदी मीडिया के पास हजारों करोड रुपए के विज्ञापन है । मगर सरकार के दावों पर सवाल करने वाली रिपोर्ट या डीबेट नजर नहीं आती है । ऐसे में सूचना के अधिकार का महत्व आपके लिए बढ जाता है । रोज पहले की ये खबर सूचना के अधिकार के आधार पर बनाई गई ।

एक आरटीआई कार्यकर्ता ने जानकारी इकट्ठा कर बता दिया कि महेवा प्रखंड के गाँव दम रास में सडक नहीं बनी लेकिन उसके नाम पर सोलह लाख तैंतीस हजार रुपए निकाल लिए गए । इस काम में प्रधान और अधिकारियों की मिलीभगत थी । जब ये सूचना बाहर आई तब जिला अधिकारी को कार्रवाई करनी पडी और सात अधिकारियों को सस्पेंड किया गया । इस रिपोर्ट में सूचना के अधिकार के कार्यकर्ता का नाम नहीं दिया गया है । उधर पंजाब के मानसा के आरटीआई कार्यकर्ता मानिक गोयल ने ये जानकारी हासिल कर ली की पंजाब की जेलों के लिए दो हजार सोलह से जैमर नहीं खरीदे गए फोर जी की शुरुआत के समय ही खरीदे जाने चाहिए थे क्योंकि पुराने जैमर फोर फोन को ब्लॉक करने में सक्षम नहीं है । इस एक सूचना से आरटीआई कार्यकर्ता ने जेलमंत्री के दावे को चुनौती दे डाली है कि पंजाब की जेलें मोबील मुक्त हो गई है । इन दो उदाहरणों से है कि गाँव और कस्बों के लोग जब अपनी यहाँ आँखों के सामने भ्रष्टाचार देखते हैं तब उनके पास पता करने का विश्वसनीय जरिया आरटीआई ही है । अगर मीडिया अपना काम करता तो लोग मीडिया पर भरोसा करते । आपने देखा कि एक सूचना से कार्यवाही भी हुई और सरकार ने सडक बनाने के लिए जो पैसा दिया उसका घोटाला भी पकडा गया । इस कानून से सरकार को ही फायदा होता है क्योंकि कई बार उसे भी पता नहीं चलता कि उसके अधिकारी जिले में या ब्लॉक लेवल पर क्या खेल रच रहे हैं । अब ये खबर इसी साल पंद्रह जुलाई को दबा हर में छपी है । वन जोत कौर ने आरटीआई के जरिए ऐसी सूचनाएं हासिल की हैं जो मंत्री खुद से कभी नहीं बताएँगे और ना मंत्रालय के अधिकारी । इन सूचनाओं के आधार पर मनजोत कौर ने अपनी रिपोर्ट में सवाल उठाया है कि कोरोना से बचाव के टीके के दो डोसे के बाद बुस्टर डोस का फैसला किस डॉ. के आधार पर लिया गया? किस की मंजूरी से लिया गया वन, जो तौर बताती है कि प्रधानमंत्री ने जब दस जनवरी दो हजार बाईस बुस्टर डोस का ऐलान किया, तब उससे पहले टीकाकरण के लिए बनी राष्ट्रीय सलाहकार समिति और सीडी ऍन ट्रल ड्रग स्टैंडर्ड कंट्रोल ऑर्गनाइजेशन को भरोसे में नहीं लिया गया । यही नहीं जुलाई में जब ये रिपोर्ट दवाई में छपती है, तब तक सेंट्रल ड्रग्स स्टैंडर्ड कंट्रोल ऑर्गनाइजेशन ने बूस्टर डोज को मंजूरी नहीं दी थी । ऐसा लिखा है । सात जून के जवाब में सीडीएससीओ कहता है कि उसने बूस्टर डोज को मंजूरी नहीं दी है । जब मैंने स्वास्थ्य मंत्रालय से पूछा कि ड्रॉ ने किस क्लिनिकल ट्राइयल के आधार पर आपसे कहा कि आप इन प्रिकॉशन मुंह को अप्रूव कर दीजिए, तो इस सवाल का जवाब देने के लिए मेरी याचिका सरकार ने सीडीएससीओ के पास ट्रान्स्फर कर मेरी भी एक किसी तरह की याचिका सीडीएससीओ के पास ऑल रेडी गई हुई थी । आॅन ने भी इस प्रश्न के जवाब के लिए मेरी याचिका सी फॅस पर कर दिया । आइडी होना ये था कि इन सबका एक मिला जुला सा जवाब आता पर जवाब में फर्क था जैसे मेरे दायर की याचिका में सीडीएससीओ ने कहा कि आप फॅस पर्ट कमिटी के मिनिट्स मीटिंग हमारे वेब साइट पे देख लीजिए और आपको जवाब मिल जाएगा पर जो याचिका ट्रांस्फर हो के सीडीएससीओ के पास गई थी । उस एक याचिका के जवाब में सीडीएससीओ ने कहा कि हमने तो कभी प्रिकॉशन उं अप्रूव ही नहीं किया तो मेरी याचिका के जवाब में कहा कि आप वेबसाइट्स मंगा लीजिये वहां आपको मिनट्स मीटिंग मिल जाएंगे । पर मेरे ही द्वारा डाली गई एक दूसरी याचिका के जवाब में जो कि उसके पास ट्रांस्फर हो के गई थी । 

सीडीएससीओ ने कहा कि हमने कभी भी प्रिकॉशन उं अप्रूव नहीं किया पर कहानी यहीं पे खत्म नहीं । कई बार स्वास्थ्य मंत्रालय खुद ने भी भटकाने हुए जवाब हमें दी जैसे कि जब मैंने ऍम वो बडी है जिसमें सरकार के अनुमान दे और कुछ इन डिपॅाजिट हैं और उसका वैक्सीन अप्रूवल में एक इंपॉर्टेंट रोल है । जब मैंने सरकार से कहा कि ऑनर्स मीटिंग मुझसे शेर कीजिए । आरटीआई के तहत जिसमें ने रिकॉर्ड मुँह अप्रूव किया तब सरकार ने पहली दफा मुझे जवाब दिया की वो नहीं है नहीं शेयर कर सकती क्योंकि इससे सरकार के साइंटिफिक और स्ट्रटीजिक इंट्रेस्ट जो है उन को धक्का पहुंचेगा । फिर मुझे फर्स्ट फील करके सरकार को स्वास्थ्य मंत्रालय को याद दिलाना पडा । उस जवाब के कुछ ही समय पहले सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर कर ये बात कही थी कि वो सारे मिनट्स मीटिंग ऍम जिसमें कोविड अप्रूवल की बात है, वो सरकार की वेब साइट पे मौजूद है और वो मिनिट्स, मीटिंग, वेबसाइट्स मौजूद नहीं थी । तो जब मैंने ये फर्स्ट अपील में बात कही और सरकार को उसके स्टाप याद दिलाया तब सरकार ने फर्स्ट अपील के जवाब में मुझसे कहा कि देखिये सोलह ऍम मिनिट्स मीटिंग टाप साइट पे है । उसके बाद से कोई भी मिनिट मीटिंग नहीं और जिस मीटिंग में तथा कथित रूप से फॅस अप्रूव की उसके तो मिनट कहीं थे ही नहीं । उसके इसलिए नहीं थे क्योंकि फर्स्ट अपील में सरकार ने कहा कि वो कंपीटेंट अथॉरिटी से अप्रूव नहीं हुए तो अब सरकार मुझ से कह रही थी कि सोलह मीटिंग के मिनिट्स हैं । पर इसके पहले सरकार ने कहा कि नहीं हम देंगे नहीं क्योंकि स्ट्रटीजिक इंट्रेस्ट इससे हमारे होते हैं । पर वास्तव की बात ये है कि कभी भी वो मिनिट्स मीटिंग जिसमें तथा कथित रूप से मुँह को अप्रूव किया वो पब्लिक डोमेन में आए ही नहीं । क्योंकि सोर्स के मुताबिक उस ने कभी भी उस बौडी ने कभी भी रिकॉर्ड मुंह को अप्रूव नहीं । वाइर पर आप ये पूरी रिपोर्ट पढ सकते हैं । प्रेस कांफ्रेंस में जो जवाब दिया जाता है वो अक्सर पूरा नहीं होता । एक अच्छा पत्रकार हमेशा संदेह करता है और बाकी तथ्यों की पडताल करता है । इसके लिए वो आरटीआई का सहारा लेता है । आरटीआई कार्यकर्ता जब सूचना लाते हैं, सूचना लाने के लिए कई बार आयोगों के चक्कर लगाते हैं, दफ्तर में जाते हैं । मतलब सारा खर्चा आरटीआई कार्यकर्ता उठाता है । गनीमत है कि कुछ जगहों पर उनकी सूचनाएं तो छप जाती है मगर मीडिया का अपना खर्चा बच जाता है । हिसाब जोडी तो यह मामला अर्थव्यवस्था का भी है ।

 मीडिया को हजारों करोड रुपए का विज्ञापन इस विश्वास पर मिलता है कि इस काम में पैसे खर्च हो रहे होंगे और सूचनाएं हासिल की जा रही है । लेकिन उसके काम का खर्चा आम आदमी उठा रहा है । आरटीआई कार्यकर्ता उठा रहा है । ये खबर टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी है बाईस जुलाई की है । आरटीआई कार्यकर्ता रोबिन से पता लगाया कि हैदराबाद नगर निगम पर पंचानवे हजार दो सौ पचहत्तर हजार करोड रुपए का कर्जा है जबकि निगम की खुलाए करीब छियानबे हजार करोड रुपए ही है । इसी तरह आरटीआइ से जानकारी मिलती है कि मेदिनीपुर में एक सौ बाईस किसानों ने आत्महत्या की । मगर बंगाल सरकार कहती है कि एक भी किसान ने आत्महत्या नहीं की है । सूचना के अधिकार से आप किसी घटना के कुछ समय बाद भी जानकारी हासिल कर सकते हैं । घटना के समय तो सरकार के भीतर की मशीनरी अलर्ट रहती है । जानकारी देने में आना कानी कर सकती । लेकिन कई बार देखा गया है कि कुछ समय के बाद कोई अधिकारी ऐसा जवाब दे देता है कि सरकार के दावों की पोल खुल जाती है । जैसे दो हजार सत्रह में गुजरात चुनावों के पहले आपने ये ऍम देखा तब प्रधानमंत्री मोदी पानी में उतरने वाले और पानी से उगने वाले जहाज में बैठे थे । इसे की तरह दिखाया गया । लेकिन ये फैसला कब हुआ, कैसे हुआ, किन नियमों को बदला गया इसकी जानकारी नहीं दी गई और दी भी जाती तो कोई दिखाता भी नहीं । इस घटना के चार साल बाद अक्टूबर दो हजार इक्कीस में आर्टिकल फोर टीन आरटीआइ से जानकारी हासिल करता है और अपनी रिपोर्ट में दिखाता है की इस ऑर्ट के लिए कैसे पर्यावरण से संबंधित नियमों में ढील दी गई । एक्स्पर्ट कमिटी के सुझावों के खिलाफ जाने के लिए दबाव बनाया गया । अगर आरटीआई नहीं हुआ होता तो आप कैसे ये जान पाते । यह भी सही है कि ये खबर कितने लोगों तक पहुंची । क्या उन लोगों ने पढा होगा जिन्होंने का प्रसारण देखा होगा? क्या उन्हें पता भी है कि इस समय पानी पे उडने वाले जहाज की क्या हालत है? जहाज उड भी रहा है या नहीं । कई बार सरकार पर भी असर हो जाता है । इस साल मई में खबर छप गई की चंडीगढ के अस्पताल में गर्भवती और नवजात बच्चों के डॉट के लिए खराब किट्स का इस्तेमाल हो रहा है । इस रिपोर्ट के बाद स्वास्थ्य सचिव ने रिपोर्ट मंगा ली । अगर यह कानून खत्म कर दिया गया है । इसके तहत जवाबों को टाला जाने लगा । तब अगर आपके किसी अपने की जान पुरानी दवा देने से चली जाएगी तो आप कैसे पता करेंगे तो ये काम करेगा नहीं । पहुंच होता है फैमिली इसका ये मतलब नहीं होता है कि अगर आपने अच्छे एप की प्रोफाइल की आपको जवाब मिल ही जाएगा । 

सरकार के पास बहुत सारे बहाने होते हैं जिसका बहाना लेके वो इन्फॉर्मेशन देने से मना कर देते हैं । मैं उदाहरण देना चाहता हूँ मैंने परीक्षा देने वाले हैं । मैं फाइल करके पूछा था की परीक्षा में कॅन्सर्ट की बनाने वाले पॉलिश इन किया है तो मुझे उनकी प्राइवसी का बहाना बना के दे देने से मना कर दिया । अब जब नागरिक को माहिती देने से मना किया जाता है तब नागरिक के पास होता है कि वो ऍम फाइल करेंगे । लेकिन जब इतना फाइल करता है और उसकी ऍम डेट आती है । नागरिक को खुद फॅस अपना ॅ करना पडता है । किसी कारण नागरिक दिन हजार ना रह पाए तब ज्यादातर सरकारी अफसर की बात सुन के उनके फीवर फैसला भी देते हैं । उसका एक बडा कारण ये है कि भारत में ज्यादातर उतना वो है जो सरकार से रिटायर्ड किए हुए अफसर है । दूसरी बात जब नागरिक ऍम की दिन मुँह के अपना ऍम करना चाहे । तब भी उस को अपनी बात रखने के लिए चार से पाँच मिनट का समय दिया जाता है । तीसरी बात अगर जब नागरिक अपना कॅश उतना भी लगे कि नागरिक की बात सच है और सरकार का नहीं है और सरकार दोषी है तब भी उसके बहुत रील होता है जब सूचना सरकारी अफसर पे फॅमिली लगाते हैं । चौथी और मुख्य मुख्य उद्देश्य गवर्नर ऍम नहीं कर सकता है । एक मसला आरटीआई कार्यकर्ताओं की सुरक्षा का भी है । उनसे कहा जाता है कि घर या दफ्तर का पता दे जबकि कोलकाता हाईकोर्ट का आदेश है । क्या भारतीय डाक विभाग से पोस्ट बॉक्स नंबर लेकर वही बता दें । मगर स्पीड पोस्ट से सूचना जाती है और स्पीड पोस्ट डाक पोस्ट बॉक्स में जमा नहीं होता है । 

एक आंकडे के अनुसार अभी तक निन्यानवे आरटीआइ कार्यकर्ताओं की जान जा चुकी है । एक सौ अस्सी पर जानलेवा हमले हो चुके हैं तो कोई भी नहीं चाहता । इस से है की सूचना के अधिकार के तहत व्यवस्था ऐसी बन जाए कि हर नागरिक सूचनाएं मांगने लग जाए क्योंकि तब सब की पोल खुल जाएगी । अंजलि भारद्वाज का सतर्क नागरिक संगठन लगातार इन सवालों को लेकर काम करता है । तब भी काम करता है जब गोदी मीडिया में बदल चुके मीडिया का ध्यान इन प्रश्नों पर नहीं जाता है । सत्रह साल हो गए इस कानून को आए हुए । लेकिन आज अगर लोग सूचना मांग रहे हैं तो सरकारें बहुत समय पर तो ये कह रहे हैं कि हम सूचना रख ही नहीं रहे । हमने सूचना रखना बंद कर दिया है । जैसे लोग सवाल पूछते हैं कि कोविंद के समय पर ऑक्सीजन की कमी से कितने लोगों की मृत्यु हुई तो सरकारें कहती हैं कि हमारे पास ये डॅान ही नहीं है । अगर पूछा जाए कि माइग्रेंट वर्कर जो प्रवासी मजदूर थे उनकी मृत्यु हुई, कितनी मृत्यु हुई जो चल के जा रहे थे कोविंद के समय पर सरकार कहती है डाॅ नहीं है । ये एक बडा तरीका है लोगों की सूचना के अधिकार को संकुचित करने का । आज दूसरी जो प्रहार हम देख रहे हैं वो है कि सरकारे सवालों का जवाब नहीं देती अगर उनके लिए इन कन्वीनियंट होता है । सवाल अगर भ्रष्टाचार के बारे में मानव अधिकारों के हनन के बारे में सूचनाएं मांगी जाए तो बिना किसी लीगल तथ्य के सरकारे सूचना देने से मना कर रही हैं । अब ऐसे में हमारे पास एक नागरिक के नाते एक ही रास्ता रह जाता है कि हम इन्फर्मेशन कमिशन सूचना आयोगों में जाकर शिकायत और अपील कर सके । वहाँ पर भी हम देख रहे हैं कि सरकारें कोशिश कर रही हैं कि ये आयोग सही से ना चल सके, इन डिपॅाजिट कर सकें और सरकारों को ये ना कहें कि आप सूचना मुहैया कराए । अब पहला प्रहार जो हो रहा है इन्फर्मेशन कमिश् इन पे वो ये है कि सरकारें कमिश् इन में आयुक्तों की नियुक्ति नहीं कर रही है । तो अगर हम सेंट्रल इन्फर्मेशन कमिशन को देखें, केंद्र सरकार ने दो हजार चौदह से एक भी कमिश्नर की नियुक्ति नहीं की । जब तक लोग कोर्ट में नहीं गए हैं, कचहरी में नहीं गए हैं तो इसी तरह से और भी जगह है जहाँ पर राज्यों में नियुक्तियां नहीं की जा रही हैं । आज झारखंड और त्रिपुरा के इन फर्मेट कमिशन बंद पडे हैं । 

डी फण्ड है क्योंकि एक भी कमिश्नर की नियुक्ति नहीं की गई है । वहाँ पर जब से पुराने कमिश्नर रिटायर हुए हैं और इसके कारण लोगों के सूचना के अधिकार पर एक बहुत बडी चोट है । क्योंकि अगर सरकार उन्हें सूचना नहीं देती तो कोई कमिश्नर ही नहीं है । कोई कमिशन ही नहीं है जो उनकी बात सुने और कमिशन ना कमिश्नर न होने के कारण बहुत सारे मामले लंबित पडे रहते हैं तो हमारी जो रिपोर्ट आई है उसमें साफ नजर आ रहा है कि तीन लाख से ज्यादा केस । इस अपील और कंप्लेंट आज अलग अलग इन्फॉर्मेशन कमिशन में लंबित हैं । फॅस आसमान को छू रही है और लोगों को बहुत लंबे समय तक इंतजार करना पडता है । अपने अपील और कंप्लेंट की सुनवाई कराने के लिए कमिश् इन में सतर्क नागरिक संगठन ने कुछ दिए हैं । देश घर में जितने सूचना आयोग हैं उन पर एक रिपोर्ट तैयार की है ताकि आपको पता चले कि आप तक जानकारी ना पहुंचे । इसके लिए केवल गोदी मीडिया का उदय नहीं हुआ है बल्कि इस कानून को भी कमजोर किया जा रहा है । झारखंड और त्रिपुरा का सूचना आयोग पूरी तरह से निष्क्रिय है । नए सूचना आयुक्त की नियुक्ति नहीं हुई । मणिपुर, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल और आंध्र प्रदेश के सूचना आयोग में मुख्य सूचना आयुक्त ही नहीं है । सूचना आयोगों में अपीलों और शिव िकायतों का बैकलॉग बढता ही जा रहा है । सूचना आयोग ने पंचानबे प्रतिशत मामलों में पेनल्टी नहीं लगाई । अगर दंड ही नहीं देंगे तो अधिकारी कैसे सुधरेंगे । आरटीआई अधिनियम की धारा पच्चीस के तहत प्रत्येक आयोग को वार्षिक रिपोर्ट तैयार करनी होती है । उनतीस में से बीस आयोगों ने दो हजार बीस इक्कीस के लिए वार्षिक रिपोर्ट तैयार ही नहीं की । सूचक पटेल ने गुजरात सूचना आयोग से ही जानकारी मांग दी । तेईस सितंबर को जवाब मिला बडा दिल दस है । गुजरात सूचना आयोग ने बताया कि पिछले दस साल में केंद्र सरकार से कोई पैसा नहीं मिला है जिसका इस्तेमाल इस कानून के प्रति लोगों को जागरूक करने में किया जाए । राज्य सरकार ने भी कोई पैसा नहीं दिया । नागरिकों को जागरूक करने के लिए एक भी अभियान या सत्र नहीं चलाया गया । 

अधिकारियों को जागरूक करने के लिए एक भी सत्र का आयोजन नहीं हुआ । ये हाल है । आयोग अपने काम का हिसाब नहीं दे रहे हैं । हमने जितनी बातें बताई उसके साथ अब दिल्ली में चल रहे विवाद को देखिए । आरटीआई को लेकर ही चल रहा है । केंद्रीय सूचना आयोग ने बाईस सितंबर के दिन दिल्ली के उपराज्यपाल को पत्र लिख दिया की केजरीवाल सरकार दिल्ली में आरटीआई ठीक से लागू नहीं कर रही है । सरकार भ्रामक जानकारी साझा करती है । अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया का उभार ही सूचना के अधिकार कानून से होता है । अब उन की सरकार पर ये आरोप लगा है । दिल्ली सरकार ने इस पत्र के जवाब में कहा है कि केन्द्रीय सूचना आयोग ने ये चिट्ठी बीजेपी के इशारे पर लिखी है । बहुत दुखद है कि केंद्रीय सूचना आयोग जैसी संस्था भी गंदी राजनीति में शामिल हो रही है । दिल्ली सरकार को इस बात पर गर्व है कि हम आरटीआई ॅ को बहुत अच्छे से लागू कर रहे हैं । क्या इस जवाब को आप हूँ बहुत स्वीकार कर लेंगे । अगर नहीं तो इसका एक ही तरीका है । दिल्ली सरकार के किसी विभाग में सूचना के अधिकार के तहत आवेदन कर दीजिए । जानकारी मांग लीजिए, हाथ का हाथ पता लग जाएगा । उदय माहुरकर केंद्रीय सूचना आयुक्त है । वरिष्ठ पत्रकार रहे हैं । इंडिया टुडे के लिए तैंतीस साल काम कर चुके हैं । उदय माहुरकर ने दो हजार सत्रह में किताब लिखी । इस किताब का नाम है माँ चिंग विद बिल, ॅ लाइटिंग नरेंद्र मोदी ऍम दो हजार बीस में उदय माहुरकर को केंद्रीय सूचना आयुक्त बना दिया जाता है । केंद्रीय सूचना आयोग की वेब साइट पर ही पूरी पारदर्शिता के साथ उन के बारे में जानकारी दी गई है । लिखा है कि उदय माहुरकर ने मोदी मिडल के गवर्नेंस पर भी एक किताब लिखी है । इसका नाम है सेंटर स्टेज । इस किताब में बताया गया है कि प्रशासन को लेकर मोदी माडल का विशन क्या है । ये भी लिखा है कि इस किताब की कई मंचों पर तारीफ हुई है । श्रीश्री रविशंकर इनफोसिस के चेरमैन नारायण मूर्ति ने तारीफ की है । फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति फ्रांकवा ओलांद और बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजेद ने भी तारीफ की है । उदय माहुरकर वीरसावरकर और रेडिकल इस्लामिक मूवमेंट पर एक्स्पर्ट है । लिखा है कि उन्होंने वीरसावरकर पर एक नया दृष्टिकोण विकसित किया है । उदय माहुरकर को दो हजार अठारह में इंद्रप्रस्थ संवाद केंद्र ने पत्रकारिता में उल्लेखनीय और शानदार योगदानों के लिए नारद सम्मान दिया । और भी कई सम्मानों का जिक्र है मगर किसी का नाम नहीं दिया गया है । 

इस पर बहस हो सकती है कि पिछले आठ साल में केंद्रीय सूचना आयोग का क्या प्रदर्शन रहा है । आयुक्तों के कितने पद कब तक खाली रहे हैं । केंद्रीय सूचना आयोग की वेबसाइट पर इस समय भी तीन आयुक्तों के नाम नहीं है । यानी पद खाली नजर आती है । सितंबर और अक्टूबर की बारिश जो तबाही लेकर आयी है उसकी सूचना भी देश को कम है, हमें भी नहीं है । यूपी के बलरामपुर बाराबंकी जिले में सरयू और घाघरा नदी का पानी उफान पर है । राप्ती भी नियंत्रण से बाहर है । बाढ का पानी गाँव घरों में घुस गया है । आम गरीब लोग प्रभावित हो रहे हैं । प्रशासन दावा कर रहा है कि राहत पहुंचाई जा रही है । आठ आठ घंटे के रोस्टर, परसों सचिव, लेखपाल, मेडिकल और नर्सिंग के लोग राहत के काम में लगाए जा रहे हैं । लेकिन कई लोग इस दावे से संतुष्ट नहीं । अब इस बार का कवरेज होता तो प्रशासन को भी उसी समय पता चलता कि उसके काम में कहाँ कमी रह जा रही है । सुधार करने का मौका मिलता लोगों की परेशानी कम होती । लोग भी सरकार की जय जय करते । कवरेज होता तो लोगों को यह भी पता चलता है कि आपदा राहत के काम में प्रश् शासन को कितनी मुश्किलों का सामना करना पडता है । लेकिन अब के गोदी मीडिया के दौर में ये सब स्पीड नौं की खबरें हैं । चार सेकंड में खबर समाप्त हो जाती है । कितने हजार एकड में फसलें बर्बाद हुई है । किस किसान की कितनी लागत डूबी है । मुआवजा मिलने की प्रक्रिया क्या है, सभी को मिल भी रहा है या कुछ ही को मिल रहा है । अब ये सभी सवाल पत्रकारिता के कोर्स से ही बाहर कर दिए गए । बहुत पानी आ गया सर घरों में पानी भर गया है । इतनी समस्याएं हो रही है तो जल्दी निकल निकल के घर में आ रहा है । खाना बनाने के लिए छोटे छोटे बच्चे हैं जिनको खाना खाने में बडी दिक्कत हुई । गवर्नमेंट की तरफ से भी कोई भी सुविधा मुहैया नहीं हुई है ना कोई बस नाव लगा दी गई है । सेंटर पर अभी कोई खाने पीने का कोई ब्लॅक है ना कुछ कोई कोई भी व्यवस्था यहाँ पे भी नहीं । घर में पानी भरा तखत के ऊपर लोग चारपाई रख के कोई व्यवस्था का किसी तरह खिचडी तैयारी बना के किसी तरह बच्चों को का पेट पालन हो रहा है । समझे जितनी समस्या ऊपर से भी परस रहा नीचे से तो आप लोग हो । हरियाणा सरकार ने ऍम के कब सिर्फ पर रोक लगा दी है । पिछले दिनों विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चेतावनी जारी की की इस कंपनी के कब सिर्फ पीने से अफ्रीका के गांबिया में छियासठ बच्चे मर गए । केंद्रीय और हरियाणा ड्रग विभाग ने अपनी जांच में पाया है कि सोनीपत कॅालिंग यूनिट में जो सिर्फ तैयार होता है उसमें कई तरह की खामियां है । फिर से पूछा गया है कि क्यों ना आपका लाइ सिन्स रद्द कर दिया जाए । मॉडर्न फिर की तमाम दवाइयों के उत्पादन पर रोक हरियाणा और केंद्र सरकार के ड्रग विभाग के अधिकारियों ने मॅन िरीक्षण के दौरान और शक के घेरे में आई कब सिर्फ को लेकर कई तरह की खामियां पाई । 

Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com

हरियाणा के ड्रग कंट्रोलर ने कन्फर्म को कारण बताओ नोटिस जारी कर चौदह अक्टूबर तक अपना पक्ष रखने को कहा है । इस नोटिस में कहा गया की मिली खामियों को देखते हुए क्यों ना आपका लाइसेंस रद्द कर दिया जाए । अफसरों को निरीक्षण के दौरान शक के दायरे में आई कब सिर्फ के उत्पादन और टेस्टिंग में इस्तेमाल उपकरणों की हाँ बुक नदारत मिली । सिर्फ में इस्तेमाल कई सॉल्ट के बैच नंबर भी नहीं मिले । कंपनी ने गांबिया भेजी गई कब सिरप का सही तरीके से वैलिडेशन भी नहीं किया । सवालों के घेरे में आए प्रोडक्ट की टेस्टिंग रिपोर्ट भी कंपनी देने में नाकाम रही । फिर म कंपनी ने डाॅन ग्लाइकॉल को लेकर प्रोपीलीन ग्लाइकॉल की क्वालिटी टेस्टिंग तक नहीं की । सोनी ऍम कंपनी के जो तीन ड्रग्स उं डाॅन शिंग किए हैं उनका तो अभी हमने ऍम पाल भेजा हुआ है सॅान्ग उसकी अभी रिपोर्टर ने आयी । उसका तो उसकी रिपोर्ट आने पर हम कार्रवाई करेंगे परंतु केंद्र और हरियाणा के डाॅ डिपार्टमेंट ने इसकी जॉॅब उसमें कमियां मिली । लगभग बारह कमियाँ उसमें मिले ऍम की अलग अलग दवाइयों को लेकर देश के चार राज्यों ने अलग अलग पर खामियों की बात कही थी । वहीं फिर म कंपनी के प्रोडक्ट को लेकर वियतनाम ने दो साल तक इसे ब्लॅक भी किया था । अब हरियाणा सरकार ने सख्त फैसला लेते हुए कंपनी के उत्पादन पर पूरी तरह से रोक लगा दिया है । उनको मदर रखते हुए अभी ये फैसला किया गया है कि इसकी टोटल प्रोडक्शन बंद कर दी है । वहीं कर्नाटक और केरल सरकार ने की खबर के बाद एहतियातन अपने राज्यों के फिर कंपनियों को इस बात पर निगरानी रखने के निर्देश दिए हैं कि उत्पादन हो रहे सिरप में इस्तेमाल हो रहे प्रोपीलीन ग्लाइकॉल में फॅमिली कॉल की मात्रा की सही से जांच सुनिश्चित की जाए । शक्ति भी जरूरी है और जरूरत सख्त फैसले लेने की भी है साथ में सबका भी क्योंकि सवाल महज एक कंपनी का नहीं बल्कि वैश्विक स्तर पर भारत की साख से जुडा है ।