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This Article is From Aug 14, 2012

हमेशा मुस्कुराती शख्सियत थे विलासराव देशमुख...

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विलासराव देशमुख सियासत का वह नाम है, जो हमेशा विवादों में घिरे रहकर भी कभी परेशान नहीं दिखा। सियासी दुश्मनों को भी वक्त पर दोस्त बना लेने की कला में वह माहिर थे।
मुंबई: विलासराव देशमुख सियासत का वह नाम है, जो हमेशा विवादों में घिरे रहकर भी कभी परेशान नहीं दिखा। सियासी दुश्मनों को भी वक्त पर दोस्त बना लेने की कला में वह माहिर थे। शायद यही वजह है कि उनकी एक कुर्सी जाती थी तो दूसरी हमेशा रिजर्व रहती थी।

महाराष्ट्र की सियासत में वह कांग्रेस के लिए हमेशा सबसे भरोसेमंद बने रहे। तब भी, जब ऐसे−ऐसे विवादों ने उनका दामन थामा, जो किसी और नेता से जुड़ते तो वह कब का किनारे लग गया होता। लेकिन सियासी झंझावातों के बीच भी ताकतवर बने रहने का यह हुनर विलासराव के ही पास था, जिससे वह हमेशा आलाकमान की पसंद बने रहे।

विलासराव 26 मई, 1945 को लातूर के बाभलगांव में मराठा परिवार में पैदा हुए। साइंस और आर्ट्स में बैचलर डिग्री लेने के बाद उन्होंने पुणे यूनिवर्सिटी से वकालत की पढ़ाई की, लेकिन करियर उनका राजनीति में ही लिखा था।

1974 में बाभलगांव ग्राम पंचायत के सदस्य के तौर पर विलासराव देशमुख ने सक्रिय राजनीति की शुरुआत की, और फिर 1975 से 78 के बीच वह उस्मानाबाद के जिला कांग्रेस अध्यक्ष भी रहे। 1980 में वह पहली बार विधानसभा के लिए चुने गए, और फिर 1982 से 1995 तक राज्यमंत्री और कैबिनेट मंत्री के तौर पर सरकार में बने रहे। गृह, ट्रांसपोर्ट, टूरिज़्म, शिक्षा और खेल और युवा कल्याण जैसे कई विभागों का जिम्मा संभाला।

वह 1995 में चुनाव हार गए, लेकिन 1999 से उनके राजनीतिक ग्राफ ने नई बुलंदियों को छुआ, जब अक्टूबर, 1999 में बनी कांग्रेस−एनसीपी गठबंधन सरकार के वह मुखिया बने। हालांकि पार्टी की राज्य इकाई में पड़ी दरार के बाद जनवरी, 2003 में उन्हें सुशील कुमार शिंदे के लिए कुर्सी छोड़नी पड़ी। इस सियासी उतार−चढ़ाव को लेकर विलासराव कभी तनाव में नहीं दिखे। शायद वह जानते थे कि घूम−फिरकर फिर वही सीएम बनेंगे। और करीब डेढ़ साल बाद वह वक्त फिर आ गया। वर्ष 2004 के विधानसभा चुनाव के बाद पार्टी ने मुख्यमंत्री पद पर एक बार फिर उन्हें ही बिठाया। इस दौरान एक विवाद से उनका सामना हुआ। उन्होंने मीडिया से भी दूरी बनाई, लेकिन इस दूरी को उन्होंने अपने तरीके से मिटा भी लिया।

दरअसल, 26/11 में आतंकियों ने जब मुंबई को निशाना बनाया तो विलासराव ही मुख्यमंत्री थे। शायद इतने बड़े हमले के बाद भी उनकी कुर्सी बची रह जाती, लेकिन होटल ताज के अंदर फिल्मकार रामगोपाल वर्मा को घुमाना उन्हें भारी पड़ गया। उनकी कुर्सी एक बार फिर चली गई। यहां से वह केंद्र के हो गए। पहले भारी उद्योग मंत्री, पंचायती राजमंत्री, ग्रामीण विकास मंत्री के बाद अब वह साइंस एंड टेक्नोलॉजी विभाग का जिम्मा संभाल रहे थे।

केंद्र में मंत्री रहते हुए ही कई खुलासे सामने आए, जो उनके मुख्यमंत्री के कार्यकाल के दौरान के थे। फिर चाहे वह आदर्श के लिए ज्यादा जगह मुहैया कराने का मामला हो, साहूकार के खिलाफ केस दर्ज करने से रोकने का मामला हो, या फिर सुभाष घई के संस्थान के लिए फिल्मसिटी में जमीन देने का, लेकिन इन सबके बावजूद विलासराव की कुर्सी नहीं हिली न ही उन्होंने खुद इन मुद्दों पर ज्यादा बात कर विवाद और बढ़ाने की कोशिश की।

विलासराव ने अपने आपको सिर्फ सत्ता की सियासत तक सीमित नहीं रखा। वह क्रिकेट की सियासत में भी कूदे। वह शरद पवार से हाथ मिलाकर मुंबई क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष भी बने। बतौर क्रिकेट एडमिनिस्ट्रेटर वह एमसीए- शाहरुख खान विवाद में भी सामने आए थे।

देखा जाए तो उनकी बीमारी भी आई तो चुपचाप। अचानक ब्रीचकैंडी अस्पताल में भर्ती होने की खबर आई। हफ्तेभर के भीतर चेन्नई के ग्लोबल अस्पताल के लिए जाने के बाद ही यह साफ हो पाया कि उनके लीवर और किडनी ने पूरी तरह काम करना बंद कर दिया है। आखिरी वक्त में पत्नी वैशाली देशमुख, बेटे अमित, रितेश और धीरज साथ में थे। विलासराव अचानक इस तरह दुनिया छोड़ जाएंगे, यह शायद ही किसी ने सोचा होगा। महाराष्ट्र की सियासत में इस चेहरे को भुलाना आसान नहीं होगा।

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