- यूपी में ब्राह्मण विधायकों की बैठक के बाद पंकज चौधरी की चिट्ठी से मामला बिगड़ा
- ठाकुर विधायकों की बैठक के बाद भी MLA को नसीहत दी गई थी लेकिन उनसे बात करके
- इस बार विपक्ष ने यूपी बीजेपी की चिट्ठी को लपक लिया है, जिससे मामला बिगड़ता दिख रहा है
यूपी में बीते कई दिनों से बीजेपी के ब्राह्मण विधायकों की बैठक का मुद्दा गरमाया हुआ है. पहले बैठक की चर्चा और फिर नए प्रदेश अध्यक्ष पंकज चौधरी की चेतावनी भरी चिट्ठी ने इस मामले को बढ़ा दिया. विपक्षी चीख चीखकर बीजेपी से पूछ रहे हैं कि ठाकुरों की बैठक पर चुप रहने वाली बीजेपी ब्राह्मणों की बैठक से इतनी खफा क्यों है. सच तो ये है कि फिलहाल बीजेपी को विपक्ष के सवाल का कोई जवाब सूझ नहीं रहा.
पंकज चौधरी ने हड़बड़ी कर दी?
सवाल ही उठ रहे हैं कि क्या प्रदेश अध्यक्ष पंकज चौधरी ने इस मामले में हड़बड़ी कर दी? बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि प्रदेश अध्यक्ष को बयान जारी करके चेतावनी देने की जगह सबसे व्यक्तिगत तौर पर बात करके मामले को सुलझाना चाहिए था. अनुशासन के नाम पर जारी चिट्ठी की वजह से जो मामला विधानसभा सत्र खत्म होते होते खत्म हो जाता, उसका दूरगामी असर पड़ता दिखाई दे रहा है.
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ठाकुर विधायकों की भी हुई थी बैठक
दरअसल अगस्त में क्षत्रिय (राजपूत) विधायकों ने बैठक की थी. नाम दिया गया कुटुंब परिवार. इस बैठक के बाद बैठक में हिस्सा लेने वाले विधायकों ने खुलकर बैठक होने की बात मानी थी. तब बीजेपी की तरफ से किसी तरह का कोई बयान जारी नहीं किया गया था. हालांकि सूत्र बताते हैं कि मनाही तब भी हुई थी लेकिन बयान जारी करके नहीं बल्कि संवाद करके. इस बार बयान के चक्कर में मामला उलट गया.
ब्राह्मण, ठाकुर की कितनी संख्या?
यूपी की राजनीति में ठाकुर-ब्राह्मण राजनीति की बात करें तो माना जाता है कि ब्राह्मणों की आबादी करीब 10-12 फीसदी और ठाकुरों की तकरीबन 6-7 फीसदी है. माना जाता है कि संख्याबल भले कम दिखे लेकिन ये दोनों ही जातियां दूसरी जातियों को प्रभावित करने वाली जातियां हैं। इसी वजह से ये अगर खुश हैं तो भी और नाराज है तो भी, अपना असर दिखा देती हैं.
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बीजेपी को होगा नुकसान?
एक बात ये भी सच है कि ठाकुर और ब्राह्मणों को आम तौर पर बीजेपी का समर्थक माना जाता है लेकिन ये भी सच है कि राजनैतिक हिस्सेदारी और सम्मान के नाम पर ये जातियां अपना रुख बदलती भी रहीं हैं. यही बीजेपी की सबसे बड़ी चिंता है. प्रदेश में विधानसभा चुनाव में ले देकर सवा साल से कम समय बचा है. ऐसे में अगर ब्राह्मणों की नाराजगी का मुद्दा तूल पकड़ता है तो बीजेपी के लिए बड़ा नुकसान हो सकता है
सीएम योगी के सामने दुविधा
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ यूं तो साधु हैं और साधु की कोई जाति नहीं होती. लेकिन राजनीति में जाति एक ऐसा सच है, जिसको छुपाया नहीं जा सकता. इसीलिए उनके पूर्वाश्रम की राजपूत जाति से जोड़कर उन्हें देखा जाता है. यही वजह है कि विपक्ष पूछ रहा है कि ठाकुरों की बैठक पर चुप रहने वाली बीजेपी ने ब्राह्मणों की बैठक होते ही आंखें लाल कर नोटिस जारी कर दिया.
पीएम पाठक का पोस्ट
लखनऊ में ब्राह्मण विधायकों की बैठक में शामिल सभी विधायक चुप हैं. इस चुप्पी के बीच बैठक का आयोजन करने वाले कुशीनगर से विधायक पीएन पाठक ने सोशल मीडिया में एक पोस्ट लिखी. इस पोस्ट में वो लिखते हैं कि सनातन परंपरा में ब्राह्मण को समाज का मार्गदर्शक, विचारक और संतुलनकर्ता माना गया है. जहां ब्राह्मण एकत्र होता है, वहां ज्ञान, विवेक और चिंतन का मंथन होता है, जो हिंदू अस्मिता को सशक्त बनाता है. उसका धर्म समाज को जोड़ना है, विभाजन नहीं.
विपक्ष का दांव
जाहिर है विधायक चुप भले हों लेकिन अंदर ही अंदर उन्हें नाराजगी भी है और डर भी. नाराज़गी नोटिस को लेकर और डर चुनावी साल में उन पर कार्रवाई को लेकर. इस बीच विपक्ष ने जिस तरह से इस मुद्दे को गर्म कर रखा है, उससे पता चलता है कि विपक्ष कैसे भी दस फीसदी से ऊपर की आबादी वाले ब्राह्मणों को ये कराना चाहता है कि बीजेपी उसे वोट बैंक के अलावा कुछ नहीं समझती.
37 साल से कोई ब्राह्मण सीएम नहीं
अगर बात करें यूपी में ब्राह्मणों की राजनैतिक स्थिति की तो किसी भी सरकार में ब्राह्मणों को बड़ा हिस्सा जरूर मिल जाता है लेकिन सत्ता के शिखर यानी सीएम की कुर्सी पर किसी ब्राह्मण को बैठे लगभग 37 साल हो गए हैं. 1989 में नारायण दत्त तिवारी के बाद अब तक कोई ब्राह्मण सीएम की कुर्सी तक नहीं पहुंचा. राजपूतों से ज्यादा आबादी और प्रभाव रखने वाले ब्राह्मण समाज का दर्द भी यही है.
कांग्रेस से उम्मीद
इसी दर्द को विपक्ष उभरने की कोशिश में लगा है. इस बार उसे बड़ा मुद्दा जो हाथ लगा है. हालांकि ब्राह्मणों को ये पता है कि सपा और बसपा में उन्हें सीएम की कुर्सी नहीं मिल सकती, वहीं कांग्रेस से आस जरूर है लेकिन कांग्रेस के हालात देखकर उसे भरोसा नहीं कि अगर वो अपना रुख कांग्रेस की तरफ कर भी ले तो भी कांग्रेस अपना खोया जनाधार वापस पा लेगी या नहीं.
ऐसे में ब्राह्मणों के पास विकल्प बीजेपी ही दिखता है. ब्राह्मण मानता है कि अपना प्रभाव दिखाकर वो बीजेपी से अपनी बात तो मनवा तो लेंगे ही. बीजेपी को भी पता है कि अगर ब्राह्मण नाराज हुआ तो उसका बड़ा नुकसान हो सकता है. 2007 में मायावती के दलित ब्राह्मण फार्मूले में ब्राह्मण बीएसपी के साथ गया तो बीएसपी की पूर्ण बहुमत की सरकार बन गई थी. फिलहाल राजनीति है और राजनीति में मुद्दे बदलने में ज्यादा वक्त नहीं लगता. ब्राह्मण और ठाकुर के नाम पर चल रही राजनीति में सवाल ये है कि क्या ये ब्राह्मण बनाम ठाकुर जैसा मुद्दा बन पाएगा या फिर बीजेपी इस नुकसान की भरपाई करने में सफल रहेगी. ये एक बड़ा सवाल है जिसका जवाब अभी तो नहीं मिल सकता लेकिन आने वाले महीनों में अगर ये मुद्दा गरमाता है तो अंदाजा लगाया जा सकेगा कि ये मुद्दा बीजेपी पर भारी पड़ा या नहीं.
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