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कोटे में कोटा: कितनी परतें, राज्यों के सामने होगी कितनी चुनौती, क्या आसान होगा इसे लागू करना?

इस मुद्दे पर एनडीटीवी से बात करते हुए समाजशास्त्री एस एस जोधका ने कहा कि यह निर्भर करता है कि किस तरह से डेटा सामने लाया जाएगा. मुझे लगता है कि यह अभी शुरुआत है.इसके लिए बहुत अधिक डेटा की जरूरत होगी.

कोटे में कोटा: कितनी परतें, राज्यों के सामने होगी कितनी चुनौती, क्या आसान होगा इसे लागू करना?
नई दिल्ली:

सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने गुरुवार को एससी और एसटी के सब कैटगरी में आरक्षण को मंजूरी दे दी है. इस फैसले के बाद राज्य अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदाय के लिए अलग से वर्गीकरण कर सकते हैं. कोर्ट ने कहा कि कहा कि हर जातियां या उपजातियां एक समान पिछड़ी नहीं है. आंकड़ों के आधार पर वर्गीकरण कर सकते हैं. हालांकि पहले भी कई राज्यों में इस तर्ज पर कदम उठाए जाते रहे हैं. सरकारी राजनीतिक फायदे के लिए भी परिवर्तन किए गए हैं. 

1975 में पंजाब के मुख्यमंत्री ज्ञानी जैल सिंह,1994 में हरियाणा के मुख्यमंत्री भजन लाल, 1997 में आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू. 2007 में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने महादलित वर्ग के लिए एससी कैटेगरी में नया वर्ग बनाया. माना जाता है कि 1975 में ज्ञानी जैल सिंह की सरकार ने मजहबी सिख को अकाली दल से दूर रखने के लिए उपवर्ग बनाया था. 2007 में आए लेख में सामने आया था कि 107 आईएएस अधिकारियों में से मात्र 3 बाल्मिकी और मजहबी समाज से थे. जबकि इनकी आबादी पंजाब में दलित समाज में 42 प्रतिशत थी. 

इस मुद्दे पर एनडीटीवी से बात करते हुए एस एस जोधका ने कहा कि यह निर्भर करता है कि किस तरह से डेटा सामने लाया जाएगा. मुझे लगता है कि यह अभी शुरुआत है. अभी काफी आगे जाना है. अगर आरक्षण के इस नीति को नीचे तक ले जाना है तो बहुत अधिक डेटा की जरूरत होगी.

सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि साफ कहा है कि कोटा विदीन कोटा में अगर किसी का बढ़ा रहे या घटा रहे तो ठोस आधार होना चाहिए  ...एक इकोनमोमिक सर्वे होना चाहिए...जस्टिफाईड होना चाहिए.वर्ष 2007 में बिहार सरकार ने एक बड़ा फैसला लिया था...नीतीश कुमार ने इसी अगस्त के महीने में महादलित विकास परिषद का गठन किया था...मकसद ये था कि SC कैटेगरी में शामिल उन जातियों पर अलग से ध्यान दिया जाए, जो आरक्षण के दायरे में आने के बावजूद तरक्की की मुख्य धारा में शामिल नहीं हो पाई हैं...ध्यान देने की बात ये है कि सुप्रीम कोर्ट ने भी कल के फैसले में यही बात कही है...कोर्ट ने कहा है कि SC, ST में कई ऐसी श्रेणियां हैं, जो सदियों से उत्पीड़न का शिकार हो रही हैं...जाहिर है, सुप्रीम कोर्ट के इस फ़रमान पर साफ-साफ कुछ बोलना...नीतीश कुमार की पार्टी के लिए बहुत आसान नहीं है.

सुप्रीम कोर्ट के फैसले का क्या हो सकता है असर? 
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से देश में एक नई राजनीतिक बयार बह सकती है.देश में ओबीसी आरक्षण लागू होने के बाद सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाली कई पार्टियां उठ खड़ी हुई थीं.यह पिछड़े वर्ग की जातियों की पार्टियां थीं. समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल यूनाइटेड,इंडियन नेशनल लोकदल और जनता दल (सेक्युलर) जैसी पार्टियां उसी के बाद पैदा हुई थीं. लेकिन बाद के वर्षों में पिछड़ी जातियों में से कुछ अति पिछड़ी जातियों को लगा कि सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले ये दल उनके साथ न्याय नहीं कर रहे हैं. इसी आधार पर कुछ जाति आधारित पार्टियों का उदय हुआ था. उत्तर प्रदेश में अपना दल, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी, निषाद पार्टी और विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) जैसी पार्टियां जाति आधारित राजनीति करती हैं. 

राजनीतिक दलों ने साध रखी है चुप्पी
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर मुख्यधारा के राजनीतिक दल बीजेपी और कांग्रेस ने अभी कोई आधिकारिक बयान नहीं जारी किया है. यहां तक की दलितों की राजनीति करन वाली बसपा ने भी चुप्पी साधी हुई है. लेकिन ऐसा नहीं है कि फैसला आने से पहले इन दलों ने इस तरह की मांग नहीं थी. पिछले दशक के शुरूआती सालों में उत्तर प्रदेश में बीजेपी सरकार चला रही थी. बीजेपी की यूपी सरकार ने 2001 में हुकुम सिंह की अध्यक्षता में समाजिक न्याय समिति का गठन किया था. इस समिति ने 2002 में अपनी रिपोर्ट सौंपी थी.इसमें एससी-एसटी के 21 फीसदी और पिछड़ों के 27 फीसदी आरक्षण कोटे को विभाजित करने की सिफारिश की गई थी. 

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