हिजाब छात्राओं की पसंद का मामला 

जस्टिस अवस्थी की बेंच ग्यारह दिनों तक सुनवाई करती है और फैसला देती है कि हिजाब इस्लाम का अनिवार्य हिस्सा नहीं है । हमें इस घटना के बारे में हमेशा ये ध्यान रखना चाहिए कि अगर हिजाब का विरोध सामान अधिक परिवर्तन के लिए था तो समाज को विश्वास में लेकर किया जा सकता था ।

नई दिल्ली:

नमस्कार मैं रवीश कुमार इस साल पंद्रह मार्च को कर्नाटका हाईकोर्ट ने फैसला दिया कि स्कूलों में हिजाब पर रोक लगाने का कर्नाटक सरकार का आदेश सही है क्योंकि हिजाब इस्लाम का अनिवार्य हिस्सा नहीं । इस फैसले को चुनौती देने के लिए सुप्रीम कोर्ट में चौबीस याचिकाएं दायर कर दी गई । जस्टिस हेमंत गुप्ता और जस्टिस सुधांशु धूलिया की बेंच ने चार सितंबर से लेकर बाईस सितंबर के बीच दस दिन तक सभी पक्षों को विस्तार से सुना । आज इस बेंच का फैसला आ गया । सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की बेंच ने इस सवाल पर विचार करने के लिए अब बडी बेंच के पास भेज दिया हैं क्योंकि फैसले को लेकर दोनों जजों की राय अलग अलग रही है । जस्टिस सुधांशू धुलिया के हिसाब से हिजाब ऍफ का फैसला गलत है । जस्टिस हेमंत गुप्ता फैसले के पक्ष में है । हम इस फैसले पर आएँगे लेकिन उससे पहले ये देखना भी जरूरी है कि अदालत तक पहुँच सोचने से पहले इस मामले को लेकर सडक पर क्या क्या हुआ । पिछले साल नवंबर और दिसंबर से यह मामला तूल पकडता है जब दिसंबर के अंतिम सप्ताह में उड्डुपी का पीयू कल इज हिजाब पहनकर आने वाली लडकियों को रोक देता है इसके विरोध में छह लडकियाँ प्रदर्शन करने लग जाती है । फरवरी आती आती है मामला और उग्र हो जाता है । आठ और नौ फरवरी तक कर्नाटक के कई हिस्सों में हिजाब के समर्थन और विरोध में प्रदर्शन होने लग जाते हैं । ये मामला कर्नाटक हाई कोर्ट की तीन जजों की बेंच में भेजा जाता है । 

जस्टिस अवस्थी की बेंच ग्यारह दिनों तक सुनवाई करती है और फैसला देती है कि हिजाब इस्लाम का अनिवार्य हिस्सा नहीं है । हमें इस घटना के बारे में हमेशा ये ध्यान रखना चाहिए कि अगर हिजाब का विरोध सामान अधिक परिवर्तन के लिए था तो समाज को विश्वास में लेकर किया जा सकता था । जोर जबरदस्ती की जरूरत नहीं थी । क्या आप किसी समुदाय को पाकिस्तान भेज देने के नारे के साथ सामाजिक परिवर्तन के लिए उत्सुक कर सकते हैं? है ना ये विडीओ उसी समय का है । हिजाब के समर्थन में आई लडकियों पर पुलिस लाठीचार्ज करती है । हमारे सहयोगी नेहाल किदवई अठारह फरवरी की अपनी रिपोर्ट में लिखते हैं कि मांड्या पचीस से पूछा गया इन लडकियों के साथ अपराधियों के जैसा क्यों सलूक हो रहा है तब पुलिस ने इंकार कर दिया । लेकिन जब लाठीचार्ज का ये विडियो भेजा गया तब जांच की बात कही गई । तब तक ये मामला कर्नाटका हाईकोर्ट के संज्ञान में भी लाया गया कि पलिस हिजाब पहनने वाली लडकियों को डरा धमका रही । इस दिन हाइकोर्ट में राज्य सरकार के एडवोकेट जनरल कहते है कि जहाँ जहाँ डेवलपमेंट कमिटी ने हिजाब को ड्रेस कोर्ट में शामिल किया है, वहां हिजाब पर रोक नहीं । सरकार पाँच फरवरी के अपने आदेश को और भी बेहतर तरीके से पेश कर सकती थी । पाँच फरवरी को बेंगलुरु से हमारे सहयोगी निहाल किदवई रिपोर्ट भेजते हैं कि उड्डुपी के प्री यूनिवर्सिटी कॉलेज से ये विवाद शुरू हुआ । मगर अब राज्य के कई जिलों में फैल गया । उड्डुपी के कुंडापुरा में दक्षिणपंथी विचारधारा की छात्राओं ने हिजाब के विरोध में जुलूस निकली । हिजाब की प्रतिक्रिया में कुछ छात्राएं भगवा पट्टी और शोल पहन कर प्रदर्शन में आया । 

मुस्लिम छात्राएं भी हिजाब पहनकर प्रदर्शन करने लग गई । जेबा शिरीन कहती है कि सुन ली डील गुल्ली बाई को देखिए । मुस्लिम महिलाओं की ऑनलाइन बोली लगाई जा रही है । हिजाब ऍन भी उसी का हिस्सा है क्योंकि हिंदुत्व ग्रुप मुस्लिम महिलाओं को नीचा दिखाने की कोशिश कर रहा है । हिजाब पहनकर आने वाली लडकियों को स्कूल में आने की इजाजत नहीं दी जाती है । छात्राओं के साथ साथ शिक्षिकाओं से भी कहा गया कि वे हिजाब उतार दे, बुर्का उतार दे । ये दृश्य अपने आप में शर्मनाक था । मैं जानता हूँ कि अगर किसी महिला से सरेबाजार दुपट्टा उतारने के लिए कहा जाए तो आप बिल्कुल पसंद नहीं करेंगे । यहाँ जो भी हुआ वो गरिमा के साथ खिलवाड था ना कि सामाजिक परिवर्तन का अभियान क्योंकि यह डरा धमकाकर जबरन किया जा रहा था । नफरत की आंधी में आज के भारत के लोगों को कुछ भी गलत नहीं लगा । यह बात इतिहास नोट करेगा । आप किसी को वेपर ज्यादा करके सामाजिक परिवर्तन नहीं ला सकते । यहां सारा मामला यह है कि एक राजनीति और उससे जुडे संगठन तय करना चाहते थे कि लडकियां कब और क्या पहने । अब होती है बहस हिजाब पहनने वाली लडकियां कहती है कि पहले तो किसी ने हिजाब पहनने से नहीं रोका, अब क्यों रोका जा रहा है । तो एक सवाल जोडा जाता है कि पहले हिजाब पहनकर लडकियाँ नहीं आती थी अब क्यों आ रही है? प्रधानमंत्री ने अपनी पार्टी के सांसद प्रवेश वर्मा के बयान पर कुछ नहीं बोला है जिसमें उन्होंने एक समुदाय के आर्थिक बहिष्कार की बात कही है । ठीक इसी तरह उस समय कर्नाटक में बीजेपी के विधायक बासनगौडा पाटिल कहते हैं कि इस मिट्टी का उपजा खाते हैं, पानी पीते हैं और आंटी नेशनल काम करते हैं । मदरसा और उर्दू स्कूल बंद कर दिए जाए, कन्नडा सीखें अन्यथा पाकिस्तान चले जाए ।

 इन बयानों से कोई नहीं कह सकता कि इसमें कूदने वाले मुस्लिम महिलाओं में सामाजिक बदलाव की चाहत रखते हैं, वरना ऐसी भाषा नहीं बोली जाती । जब किसी को पाकिस्तान ही भेजना है तो उनके पहनावे को लेकर देश की राजनीति और अदालत का समय क्यों बर्बाद किया जा रहा है । सुप्रीम कोर्ट में हुई बहस और आज के फैसले पर आने से पहले हम थोडी सी पृष्ठभूमि और बताना चाहते हैं । ऍम एक कॉलेज का मामला था, लेकिन जिस तेजी से कर्नाटका के कई हिस्सों में इसे उग्र प्रदर्शन में बदला गया, जाहिर है एक पक्ष का हाथ नहीं हो सकता । इसी दौरान हलाल मीट का मामला उठा । धार्मिक मेलों से गैर हिंदू दुकानों को हटाने का मामला तूल पकडता है । स्कूलों में बाइबिल ले जाने का विवाद उठाया जाता है । हिन्दू जनजागरण समिति बजरंग दल श्री राम सेने का नाम आता है । इनके नेता बयानबाजी करते हैं । क्या इन की भूमिका को साजिश के रूप में देखा गया । उस की जाँच हुई । पुरानी रिपोर्ट से पता चलता है कि कर्नाटका सरकार ने आरोप लगाया कि हिजाब पहनने का अभियान कथित रूप से पाँच यलर फ्रंट इंडिया ने चलाया और ये साजिश का हिस्सा था । पुलिस ने इसकी जांच की और सीलबंद लिफाफे में रिपोर्ट दी गई । ऐसा किया था । कोर्ट को सीलबंद लिफाफे में रिपोर्ट देने की जरूरत पडी क्योंकि इस कुछ महीने बाद ही हाल में सरकार ने पॅन कर दिया । तब तो सारे ही तथ्य बताए गए । इनके खाते में कितना पैसा है, कौन कौन लोग है, कहाँ से पैसा आता है । गोदी मीडिया ने एक एक बात तो घंटों दिखाया फिर कर्नाटका पलिस हिजाब अभियान में पि ऍफ आइ के रोल पर अपनी जाँच सीलबंद लिफाफे में क्यों सौंप हमने सारी बातें नहीं बताई है । जाहिर है समय की कमी है लेकिन इतने से आप समझ सकते हैं कि आप हमेशा एक समुदाय के प्रति नफरत के तूफान से घिरे रहे । इसका समय समय पर इसी तरह इंतजाम किया जाता है । इससे वक्त मिले तो अपने शहर के किसी सरकारी कॉलेजों का हाल दिखाइएगा जहाँ आपके ललनाओं और लल्लियां का भविष्य विश्वगुरु के स्तर का बनाया जाना है । 
क्या हिजाब लडकियों को स्कूल कॉलेज तक जाने से रोकता है क्योंकि कर्नाटका के केस में हिजाब के कारण ही लडकियाँ तक पहुँच रही थी । भारत में लडकियों की शिक्षा शुरू ही होती है । घूंघट और पर्दा के साथ बहुत सारी लडकियाँ स्कूल तभी भेजी गई जब उनके तांगे को परदे से चारों तरफ घेर दिया गया । घूंघट निकालकर जाने की इजाजत दी गई । धीरे धीरे जब समाज सहज हो गया तो स्कूल, कॉलेज और दफ्तर जाने के मामले में घूंघट की जरूरत ही समाप्त हो गयी । समाज भूल गया अब केवल कुछ घरों में भात बढाते हुए जेठ जी आते हैं तभी इसकी जरुरत घूंघट की पहचान एक सामाजिक बुराई के रूप में होती है मगर उसी के सहारे लडकियाँ पहली सीढी चढती है । सुनवाई के दौरान सिख लडकियों का हवाला दिया गया की सर ढकती हैं, कृपाण लेकर जाती है, कोई नहीं रोकता है यहाँ हिजाब पहनकर लडकियाँ स्कूल तो जा रही है क्या यहाँ पर हिजाब स्कूल जाने की गारंटी नहीं है? 
वकील मीनाक्षी अरोडा संयुक्त राष्ट्र की एक समिति का हवाला देते हुए कहती है कि समिति ने पाया है कि ड्रेस कोड को छात्रों को स्कूल आने से रोकने के बजाय उनकी भागीदारी को प्रोत्साहित करना चाहिए । जब फ्रांस में हिजाब पर प्रतिबंध की बात उठी तो मीनाक्षी अरोडा ने कहा कि उस देश में बहुत सख्ती से धर्मनिरपेक्ष नीतियों का पालन होता है । वहां किसी भी धार्मिक प्रदर्शन की अनुमति नहीं है । कर्नाटका के संदर्भ में यह बात उठी कि हिजाब पहनने से रोकने का बुरा असर पड रहा है । बडी संख्या में लडकियाँ स्कूल जाने से बच रही है इस की संख्या को लेकर विवाद होता रहा । इस मसले पर कर्नाटका हाय कोर्ट में ग्यारह दिनों तक सुप्रीम कोर्ट में दस दिनों तक सुनवाई । जब तक आप सुनवाई के दौरान उठाए गए कुछ सवालों रखे गए कुछ तर्कों के बारे में नहीं जानेंगे । आप आज के फैसले के महत्व को नहीं समझ सकते । कोर्ट के सामने ये दलील बार बार आई की अदालत को ऐसे मामलों से दूर रहना चाहिए । उसे नहीं तय करना चाहिए की कोई परंपरा किसी धर्म का अनिवार्य हिस्सा है या नहीं । तब सुप्रीम कोर्ट की इस बेंच ने कहा कि इस मंच से जवाब नहीं दिया जाएगा तो किस मंच से दिया जाएगा और इस तरह बहस चलती रहती है । राजीव धवन, प्रशांत भूषण, कपिल सिब्बल, दुष्यंत दवे, मीनाक्षी अरोडा, संजय हेगडे, निजाम पाशा, देवदत्त कामत, सलमान खुर्शीद, आदित्य सोंधी, अब्दुलमजीद धर, हुजैफा अहमदी, शोएब आलम, कॉलिन गोंजाल्विस, जैना कोठारे, यूसुफ हातिम मुछाला कीर्ति सिंह तुलसी के राज ने अपनी और से बहस कि इन सभी की बहस में कुछ बातें हाँ मान थी । कुछ अलग अलग कई वकीलों ने सिख समुदाय की लडकियों के सिर ढकने का उदाहरण दिया ।

 कई वकीलों ने कहा मामला संविधान पीठ के पास भेजा जाये । यही हुआ बडी बेंच के पास भेज दिया गया है । सुनवाई के दौरान अफ्रीका, अमरीका, कॅश जैसे देशों की अदालतों के फैसलों का हवाला दिया गया तो सुप्रीम कोर्ट ने कहा भारत की बात हो यानी अदालत इस बात को लेकर थी कि ये विषय केवल भारत के संदर्भ में देखा जाएगा । लेकिन अफ्रीका और कॅर की बातों को दरकिनार करने के बाद भी सलिसिटर जनरल अपनी दलील में ईरान का मुद्दा ले आते हैं और कहते हैं कि हिजाब अनिवार्य प्रथा नहीं है । जिन देशों में इस्लाम राजकीय धर्म है वहां महिलाएं हिजाब के खिलाफ बगावत कर रही है । ईरान का किस्सा अलग है जिसपर अलग से बात होनी चाहिए । वहाँ हिजाब का विरोध केवल हिजाब के लिए नहीं हो रहा, सत्ता के कुलीनतंत्र के खिलाफ भी हो रहा है । वहाँ अलग से पुलिस बल बनाया गया है जिसका कम साधारण महिलाओं को हिजाब पहनने के लिए मजबूर करना था तो उसके खिलाफ महिलाएं हिजाब को प्रतिरोध का प्रतीक बना लेती है । ईरान की महिलाएं हिजाब के बहाने सरकारी दमन के बडे सवालों से भी टकराती । ईरान में जो हो रहा है वो शानदार है । मगर भारत में जो हो रहा है वो शर्मनाक है क्योंकि यहाँ जोर जबरदस्ती से तय किया जा रहा है । ईरान के आंदोलन को लेकर भारत में कई महिलाओं ने समर्थन दिया है । बहुत ही अच्छी बात है । मगर उनमें से कई महिलाएं और पुरुष कर्नाटक की लडकियों के साथ जो धक्का मुक्की हुई, उस पर चुप रहे । अभी आपने विडियो देखा कि कैसे काँलेज के बाहर टीचर को हिजाब बुर्का उतारने के लिए मजबूर किया गया । बहस अपने विषय से खूब भट की और अपने सवाल पर लौटती रही कि क्या हिजाब इस्लाम का अनिवार्य हिस्सा है क्योंकि धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के तहत केवल अनिवार्य हिस्से को ही संरक्षण दिया जा सकता है । बहस के दौरान लगा कि इस मसले को सामाजिक प्रथा का हिस्सा मानकर सही या गलत ठहराया जा रहा है तो कभी बात अनिवार्य हिस्से पर चली जाती थी । जस्टिस हेमंत गुप्ता, जस्टिस सुधांशू धुलिया की बेंच सुनवाई कर रही थी । 

क्या हिजाब इस्लाम का अनिवार्य हिस्सा है । इस बडे सवाल के तहत बाकी सारे सवाल आते जाते रहे । वकीलों ने जो सवाल उठाए उनमें से कुछ मुख्य सवाल और दलीलें इस तरह से हैं हमारे लिए संभव नहीं कि हर वकील का नाम उनकी दलीलों के साथ दे सके । दलील दी गई कि शिक्षण संस्थानों में ड्रेस कोर्ट के साथ साथ धार्मिक प्रतीकों के लिए भी जगह है । लडकियां हिजाब पहनती है । सिख लडकियाँ सर ढकती है । इसे ड्रेस कोड का उल्लंघन नहीं माना जा सकता है । जस्टिस गुप्ता कहते हैं कि पगडी पहनने और जज के तिलक लगाने को इस से ना जोडा जाए । मेरे दादा भी पगडी पहनकर वकालत करते थे । क्या स्कार्फ पहनने पर रोक होती तो कक्षा में दुपट्टा पहनने पर भी रोक लगेगी । हिजाब भी ड्रेस कोड का हिस्सा होना चाहिए । ये दलील दी गई । तब जस्टिस गुप्ता ने कहा, दुपट्टे की तुलना हिजाब से मत कीजिए । एक दलील और उठी की कल इज डिवलप मिंट कमिटी ने अपने हिसाब से नियम बना दिया जिसकी कोई कानूनी वैधता नहीं है । इस कमिटी में लोकल विधायक होता है । इस मामले को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की गई । जस्टिस गुप्ता ने कहा कि ठीक है आपको हिजाब पहनने का अधिकार है । लेकिन क्या आप इसे ऐसे स्कूल में पहनने पर जोर दे सकते हैं जहाँ एक निर्धारित वर्दी है । जस्टिस गुप्ता ने ये भी सवाल किया कि क्या कोई छात्रा उस स्कूल में हिजाब पहन सकती है जहाँ ड्रेस को ते है । वकील देवदत्त कामत एक महिला की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं कि काले कपडे से इनका सिर ढका हुआ है । इससे किसी को क्या दिक्कत हो सकती है । क्या इससे कोर्ट को कोई दिक्कत हो रही है? कामत ने कहा, केंद्रीय विद्यालय के लिए दो हजार बारह में एक सर्क्युलर आया जिसमें छात्राओं को यूनिफॉर्म के रंग का स्कार्फ पहनने की इजाजत दी जा सकती है । तो राज्य में क्यों नहीं दलील दी गई कि अनुच्छेद उन्नीस में माना गया है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार में पोशाक भी शामिल है । डाॅ इसका विरोध नहीं है बल्कि अगर ड्रेस के साथ ऍम भी पहनना चाहते हैं तो यह कैसे ड्रेस कोड का उल्लंघन माना जाएगा । क्या हॅू पहनने के अधिकार में कटौती की जा सकती है । फिर एक सवाल उठा के इस कहाँ पहनने से किस के मौलिक अधिकारों का हनन होता है? देवदत्त कामत कहते हैं कि धार्मिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार पर तीन चीजों में प्रतिबंध लग सकता है । पब्लिक ऑर्डर, नैतिकता और स्वास्थ्य इस मामले में ये सिद्ध किया जाना चाहिए कि हिजाब पहनने से कैसे सार्वजनिक व्यवस्था बिगड जाती है । 

सलमान खुर्शीद कहते हैं कि इस्लाम में अनिवार्य और गैर अनिवार्य जैसी कोई बात नहीं । कुरान में जो कुछ है वो अनिवार्य है और पैगंबर ने जो व्याख्या दी है वह भी अनिवार्य है । अगर पवित्र किताब में लिखा है कि ईश्वर दयालु है, हमारे अपराध क्षमा करता है तो इसका ये मतलब नहीं कि धार्मिक उसूलों और सिद्धांतों का पालन ना किया जाए । कर्नाटका हाईकोर्ट का फैसला कुछ नजरिए से भले ठीक है लेकिन व्यावहारिक तौर पर गलत है । सलमान खुर्शीद पुट्टस्वामी फैसले का हवाला देते हुए कहते हैं कि परिधान और दिखने की पसंद भी निजता का एक पहलू है । खुर्शीद ने ये भी कहा कि कई इस्लामिक देशों में लोग मस्जिदों में सर नहीं ढकते हैं मगर भारत में ढकते हैं । जस्टिस गुप्ता ने ये टिप्पणी में कहा था कि अदालतें समाज और संस्कृति को देखकर फैसला लेती है । सवाल है कि एक आम दर्शक तक ये सारी बातें कहीं पहुँचती भी है । वही बातें पहुँचती है जो ॅ और प्रोपैगैंडा से ठेली जाती है । इतनी बहस अगर बेरोजगारी और महंगाई के आर्थिक कारणों पर हो जाती तो देश की राजनीति बदल जाती है । इस देश के नौजवानों को हाॅफ यूनिवर्सिटी के अलावा कुछ काम भी मिल जाता । वकील आदित्य सोंधी ने नाइजीरियाई सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले का हवाला देते हुए कहा कि लागोस के पब्लिक स्कूलों में हिजाब के इस्तेमाल किया अनुमति दी गई इसलिए सरकार के आदेश को स्कूलों पर छोड देना चाहिए । आदित्य सोंधी कहते हैं कि एक नागरिक पर दो अधिकारों में से किसी एक को चुनने का बोझ नहीं होना चाहिए । यही वो स्थिति है जिसका सामना लडकियाँ कर रही हैं । इसी बिंदु पर राजीव धवन कहते हैं की आवश्यक प्रथाओं पर केरल हाईकोर्ट, कर्नाटका हाईकोर्ट के बीच मतभेद केरल हाईकोर्ट इसे आवश्यक मानता है । हम जानते हैं की आज जो कुछ भी इस्लाम के रूप में आता है उस करने के लिए बहुसंख्यक समुदाय में बहुत असंतोष है । हम देख सकते हैं कि गौहत्या के मामले में क्या हो रहा है । अब पाँच सौ पूजा स्थलों पर मामले दाखिल किए गए । आए दिन एक समुदाय को टारगेट किया जाता है । छात्राओं के साथ मारपीट तक हुई है । हम चाहते हैं कि अदालत पृष्ठ ना बने मगर पंडित बनकर तय करे कि कानून क्या है? धवन कहते हैं कि जजों को धर्म के मामले में न्यायविद नहीं बनना चाहिए । गोदी, मीडिया ऍम कर इतनी मेहनत कर ये सारी बातें आपको नहीं बताएँगे क्योंकि वे चाहते हैं कि आप बस भीड बने रहे ताकि आपको जब मर्जी हो, जिस दिशा में हो हाँ का जा सके । 

राजीव धवन ने एक और महत्वपूर्ण बात कही हिजाब पूरे देश में पहना जाता है । ये इस्लाम में एक उचित और स्वीकार्य प्रैक्टिस है और बिजॉय ऍम अल मामले में कोर्ट ने तय किया था कि अगर ये साबित होता है कि कोई प्रैक्टिस उचित और स्वीकार्य है तो उसे इजाजत दी जा सकती है । अभी कुछ दलीलें और है जिन्हें हम सार संक्षेप में आपको बताना चाहते हैं । वकील अहमदी कहते हैं कि राज्य का काम विविधता को प्रोत्साहित करना है ना कि प्रथाओं पर रोक लगाना । अगर कोई हिजाब पहनकर स्कूल जाती है तो कोई दूसरा क्यों भडके यदि ये उकसाता है तो आपको इसका समाधान करना होगा अन्यथा आप किसी को धमकाने की अनुमति दे रहे हैं । जो छात्र मदरसों तक ही सीमित थे उन विशेष वर्ग के छात्रों को रूढियों से निकालकर धर्मनिरपेक्ष शिक्षा में शामिल किया जा रहा था । लेकिन आज यदि आप उसे इस तरह से बर्ताव करेंगे तो क्या प्रभाव होगा । उन्हें मदरसों में वापस जाने के लिए मजबूर किया जाएगा । कपिल सिब्बल भी कहते हैं कि अनुच्छेद उन्नीस के अनुसार अगर पोशाक पहनना अभिव्यक्ति का हिस्सा है तो इसी अनुच्छेद के तहत सीमाएँ भी ढूंढनी होंगी जिससे शालीनता और नैतिकता की कसौटी पर परखा जा सके । इसलिए यह सवाल संवैधानिक बेंच के पास भेजा जाये । दिगंबर का जो वकील है उन्हीं की तरह दुष्यंत दवे भी धुँआधार बहस करते हैं । उनका तर्क था कि हिजाब पहनकर किसी की भावना को ठेस नहीं पहुंचाई गई है । न्यायालय का एक ही धर्म में संविधान और उसी की कसौटी पर इसका फैसला हो । अल्पसंख्यक समुदाय को हाशिये पर रखने का एक पॅन सा चल रहा है । अगर कुछ देशों में हिजाब ऍन है तो अमेरिका, मलेशिया जैसे कई देशों में महिलाएं हिजाब पहनना भी चाहती है । इसमें जो सवाल हम लोगों ने रेड करे थे वो ये थे की पहली बात तो इस तरह का डिस्ट्रिक शिन लगाना है कि भाई आप कॉलेज वगैरह में हिजाब नहीं पहन सकते । ये हमारा जो मौलिक अधिकार है धारा उन्नीस में कि हम अभिव्यक्ति की जो आजादी है उसमें पहनने की भी आजादी को सुप्रीम कोर्ट ने मानना है कि जो हम पहनावा चाहते हैं पहन सकें और उस पर इस तरह का रोक लगाना ये बिल्कुल उं बाल है क्योंकि इस आजादी पर रोक सिर्फ इस आधार पर लगाया जा सकता है । पहली बात तो उं लगाए जा सकते हैं, दूसरी बात कानून से लगाए जाने चाहिए । और तीसरी बात सिर्फ इन आधार पर की सिक्युरिटी और फॅमिली रल एशिन सुंदर स्टेट पब्लिक ऑर्डर ऍम सिर्फ इन आधार पर उसपे रिस्ट्रिक्शन लगाया जाता है तो इसका हिजाब पर रोक लगाने का इन इन सब्जेक्ट से कोई मतलब नहीं था । तो इसलिए ये बिल्कुल मुँह दूसरा हम लोगों ने बोला था कि आप सिर्फ एक मुस्लिम कम्यूनिटी जो मुस्लिम लडकियाँ जो ड्रेस पहनती है उस पर रोक लगा रहे हैं और उसका आधार ये ले रहे हैं कि भाई ये तो उनकी दिखाता है । हम ये नहीं चाहते कि कोई ऍन टी कॉलेज में दिखाई जाए तो फिर आप दूसरे जो रॉयल्टी दिखाते हैं जैसे क्रिस्चियन लोग क्रॉस पहनते हैं, सिख लोग पगडी पहनते हैं, हिन्दू लोग तिलक लगाते हैं, इनके ऊपर आप क्यों नहीं रिस्ट्रिक्शन लगा रहे हैं तो ये तो बिल्कुल डिस्क्रिमिनेशन हो गया गाली जिनके आधार पर तीसरा हम लोगों ने ये बोला था की आर्टिकल पच्चीस मौलिक अधिकार देता है कि हम अपनी रिलिजन प्रैक्टिस कर सकते हैं और उसमें रल इज इनमें जो हमारी जो कल्चर है इन सबको भी फस कर सकते हैं । हाइकोर्ट फॉर मिनिट ली इस आधार पर चला गया कि भाई ये कोई नहीं यानि कि उस रिलिजन के लिए कोई जरूरी नहीं है । ये इजात पहनना उसमें जाने की जरूरत ही नहीं थी । 

कर्नाटक सरकार की तरफ से सलिसिटर जनरल तुषार मेहता, अटर्नी जनरल पी नवादगी और ऍम नटराज ने अपने अपने पक्ष रखे । इन तीनों ने कर्नाटक सरकार और कर्नाटका हाईकोर्ट के फैसले के बचाव में अपनी बातें रखीं । मीडिया में आपको हिजाब ऍम ही सुनाई देगा । लेकिन सुप्रीम कोर्ट में सलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने अपनी मुख्य बातों में इस बात को रेखांकित किया कि सरकारी आदेश में कहीं नहीं लिखा है कि हिजाब ऍन है । ये सभी धर्मों के लिए है, लेकिन ये मुद्दा जाना ही जाता है । हाँ, हिजाब ब्लॅक के नाम से तुषार मेहता ने एक और बात कही कि याचिकाकर्ताओं द्वारा कोई दावा नहीं किया गया कि हिजाब पहनना अनादिकाल से एक प्रथा है । एक दिन इसका भी वक्त आएगा कि अदालतें यह तय करने बैठेंगी कि हम अनादिकाल कैसे तय करें, कहाँ तक माने इसकी समय सीमा क्या होनी चाहिए । तुषार मेहता ने यह भी कहा कि भगवा गमछे को अनुमति है ना हिजाब को हाईकोर्ट के फैसले में कोई ड्रेस निर्धारित नहीं । छात्र ऐसी पोशाक पहनेंगे जो समानता और एकता के विचार को बढावा दे । स्कूल में किसी विशेष धर्म की कोई पहचान नहीं है । आप केवल एक छात्र के रूप में वहाँ जा रहे हैं । जस्टिस हेमंत गुप्ता ने लिखा है कि भारतीय संविधान में भले ही धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा पश्चिम से आयी होगी लेकिन इसने भारत में अपना एक व्यापक स्वरूप भी इख्तियार किया है जिसका अलग इतिहास भी है और पहचान भी । पंथ निरपेक्ष का इस्तेमाल धर्मनिरपेक्ष से अलग होता है लेकिन धर्म ज्यादा संपूर्ण है । उसके मूल्य कभी नहीं बदलते । धर्म ही समाज और नागरिक के जीवन का उत्थान करता है लेकिन जस्टिस सुधांशु धूलिया की राय अलग है । 

जस्टिस धुलिया एक सवाल उठाते हैं कि क्या हम आवश्यक धार्मिक प्रथाओं को अलग कर इस स्थिति से नहीं निपट सकते? कोर्ट का मूल सवाल था कि क्या हिजाब इस्लाम का अनिवार्य हिस्सा है और जस्टिस धुलिया पूछ रहे हैं कि क्या इस सवाल के बिना हम इस स्थिति से नहीं निपट सकते थे । ये बेहद अहम सवाल है क्योंकि हिजाब के नाम पर तनाव के हालात बनाकर उसकी जवाबदेही से बचने के लिए अनिवार्य पहलू का सवाल पैदा किया गया । जस्टिस धुलिया लिखते हैं कि अदालत के सामने यह सवाल होना चाहिए कि हिजाब के आधार पर किसी लडकी को शिक्षा से बेदखल कर क्या हम उसका भला कर रहे हैं? सभी याचिकाकर्ता हिजाब की मांग कर रहे हैं । क्या किसी लोकतन्त्र में ये बहुत बडी मांग है या नैतिकता सार्वजनिक व्यवस्था के खिलाफ कैसे है? अब हम फैसले पर आते हैं । रिफॉर्म कोर्ट का रुख क्या रहेगा? जानने के लिए पूरा देश उत्सुक था । लेकिन सुप्रीम कोर्ट का जो फैसला आया उससे मामला सुलझा नहीं बल्कि वहीं खडा हो गया जहां से ये शुरू हुआ था । बेंच के दोनों जजों के विचारों में मतभेद रहा और मामला बडी बेंच के पास भेज दिया गया । बेंच की अगुवाई कर रहे जस्टिस हेमंत गुप्ता हिसाब ऍम के पक्ष में रहे । उन्होंने कर्नाटक हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखा और हिसाब ब्लॅक के खिलाफ याचिकाओं को खारिज कर दिया । जस्टिस गुप्ता ने अपने इस फैसले में कहा कि मैंने इस मामले में कानून के ग्यारह सवाल तैयार किए हैं । इन सभी सवालों के जवाब अपीलकर्ताओं के खिलाफ है । मुख्य सवाल यह है कि क्या हिसाब इस्लाम धर्म की अनिवार्य प्रथा है? धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार की सीमा और दायरा क्या है? क्या छात्राओं को अभिव्यक्त और निष्ठा का विशिष्ट अधिकार है? क्या हिसाब बैंक का आदेश छात्राओं की गरिमा के खिलाफ है? क्या इस मामले की सबरीमला मामले के साथ सुनवाई होनी चाहिए? वहीं जस्टिस सुधांशू धुलिया ने सीधे सीधे अपने विचार जाहिर किए । उन्होंने हिसाब ऍम के आदेश को रद्द कर दिया । साथ ही पूरे मामले में कर्नाटक सरकार और हाईकोर्ट पर बडे सवाल उठाते हुए लडकियों की शिक्षा को लेकर गंभीर टिप्पणियां भी की । जस्टिस दुनिया ने अपने फैसले में कहा कि हाईकोर्ट ने हिसाब पहनने की अनिवार्यता की जाँच करके गलती की है । आवश्यक धार्मिक प्रथा के सिद्धांत को लागू करने की जरूरत नहीं थी । ये मामला अभिव्यक्ति की आजादी का है । छात्राओं की पसंद का है ना इससे ज्यादा ना इससे कम । इससे बडा असर लडकियों की शिक्षा पर पडा जो पहले ही खासकर ग्रामीण और अर्द्धशहरी क्षेत्रों में कठिनाइयों का सामना कर रही है । क्या ऐसा अतिरिक्त प्रतिबंध लगाने से उनका जीवन बेहतर होगा? स्कूल जाने से पहले उनको अपनी माँ की दैनिक कार्यों में सफाई आदि में मदद करनी पडती है । अन्य कठिनाइयाँ भी है मैंने सभी अपीलों को स्वीकार कर लिया है । मैं कर्नाटक हाईकोर्ट के आदेश को रद्द करता हूँ साथ ही हिसाब ऍम के सरकारी आदेश को भी रद्द किया जाता है । मुँह पिनिंग इवन जस्टिस हेमंत गुप्ता ने कर्नाटक का हाइट कर्नाटका का जो और कर्नाटका के हाईकोर्ट को सही माना है और जस्टिस धूलिया ने उनसे डी फर्क क्या है रिस्पाॅन्स कि एक गर्ल चाइल्ड बडे मुश्किलों से पढाई तालीम हासिल करने जाती है और उसको उसको इस तरह से इस हिजाब की वजह से उसको स्कूल से कॉलेज में ना परमिशन दिया जाए ये बिल्कुल गलत है और उन्होंने उसमें उनके जो उन्होंने ग्यारह बारह इश्यू फ्रेम किए हैं और हेमंत गुप्ता साहब ने हमारी अपील कर दी है । धुलिया जस्टिस धुलिया ने हमारी अपील को अलग क्या है इसी के साथ दोनों जजों की राय में मतभेद होने के बाद मामले को मुख्य न्यायाधीश के पास भेज दिया है ताकि एक बडी पीठ का गठन किया जा सके । लेकिन इस फैसले के बाद कर्नाटक में हिसाब ऍन अभी लागू रहेगा । जब तक बडी बेंच मामले की सुनवाई नहीं करती तब तक हिसाब ऍम की पुष्टि करने वाला कर्नाटक हाईकोर्ट का पंद्रह मार्च का आदेश प्रभावी रहेगा । जितना बडा ये कानूनी मुद्दा है उससे कहीं बडा ये राजनीतिक मुद्दा है और धार्मिक दो जजों ने अपनी राय दे दी है । अब जनता तय करे कि वो किस की राय से इत्तेफाक रखती है लेकिन कानूनी तौर पर अब तीन जजों की बेंच ही तय करेगी कि वो किस जज के पक्ष में है । अब दलीलें वही रहेंगी, केस वही रहेगा । पक्षकार वही रहेंगे लेकिन जज बदल जाएँगे । नए सिरे से फिर कवायद शुरू होगी । फिर सुनवाई शुरू होगी और एक बार फिर अभी की तरह हम लोग भी पूरे देश के साथ नए फैसले का इंतजार करेंगे । यानी अब हम वही पहुँच गए हैं जहाँ पहले खडे हुए थे । 

हमारे सहयोगी आशीष भार्गव ने हर सुनवाई को कवर किया और हर वकील की दलील के साथ साथ नोट भी भेजते रहे । यह काम आसान नहीं था । कानूनी भाषा कितनी जटिल होती है, उसका साथ के साथ हिंदी में अनुवाद कर नौं रूम में भेजना चुनौती भरा काम है । आशीष भार्गव के नोट्स नहीं होते तो आज का प्राइम टाइम तैयार करना और मुश्किल हो जाता तो शुक्रिया आशीष का और आप ब्रेक ले लीजिए । भारत के गोदामों में इतना गेहूँ हो गया है जिससे करीब अस्सी लाख गरीबों का पेट भर सकता था । बीते दो सालों में हरियाणा के सरकारी गोदामों में बयालीस हजार मीट्रिक टन गेहूं बारिश की वजह से सड गया । एफसीआइ और हरियाणा खाद्य आपूर्ति विभाग एक दूसरे पर इसकी जिम्मेदारी थोप रहे हैं । कैथल से रवीश रंजन शुक्ला की ये रिपोर्ट देखिए सरकारी गोदामों में गेहूँ के सडने की कहानी की शुरुआत कैथल में पुंडरी के इस खुले सरकारी गोदाम से होती है । गोदाम हो चुके गेहूं के बोरों से भरा पडा है । कुछ तो इतने हो चुके हैं कि मिट्टी में मिल गए हैं । यहाँ गेहूं से भरे कई ऐसे बोरे रखे हैं जिनकी अब कीडे भी नहीं झांक रहे हैं । खुले आसमान के नीचे रखे इन बोरों को मीडिया की नजर से बचाने के लिए इनको त्रिपाल से ढक दिया गया है । लेकिन तिरपाल के अंदर रखे बोरों में पौधे उगाए है । यहाँ बत्तीस सौ टन गेहूं हो चूका है कहाँ जा रहा है ये गेहूं दो साल से इसी तरह रखा है । ये हरियाणा सरकार के अपने को दम है । हरियाणा सरकार हर साल रबी और खरीफ की फसलें की करीब करती है उसमें और ये हम एक जगह खडे हैं । ऐसे बहुत सारी जगह है । यहाँ पर ये अनाज है और हर साल है । लेकिन अब की बार ज्यादा तादाद में हमारी निगाह है । अबकी बार आ गया लेकिन सरकारी गोदाम में गेहूं खराब होने की शुरुआत भर है । यहाँ से जब हम आगे बढे तो पाँच किलोमीटर दूर एक गेहूँ का दूसरा सरकारी गोदाम मिला । हजारों जहाँ की एक टीम हो चुके गेहूँ को जांचने पहुंची है । आम तौर पर हो चुके गेहूँ को कौडियों के भाव यानी दो रुपए किलो से लेकर बारह रुपए किलो तक दे दिया जाता है । 

हरियाणा फूट डिपार्टमेंट को के लोग कह रहे हैं कि हमने पत्राचार किया और हमने उनको बताया कि भाई आप अपना रख रखाव ठीक करिए तो ये केवल पत्राचार दो तीन साल तक होता रहा और गेहूँ इधर ही हूँ होती रही होती रही है । लेकिन अभी कई सारे कई सारे के साथ जितने हिट जाने लायक रहे हैं, उन हिट्स को रेक के थ्रू और रोड मूवमेन्ट के थ्रू यहाँ से उठाती रही है । अब एक बात और अंतिम बताइए कि अब ये जब खराब हो गया है तो इसका जवाब दे ही इसका क्या कार्यवाही होगी? इसकी कार्यवाही कन्सर्न्ड स्टेट एजेंसी के जो इंचार्ज होंगे स्टेट एजेंसी उनपे लेगी या केवल इसकी कॅटेगरी डिसाइड कर सकती है । सूपर वाइट कर सकती है । अगर अच्छा होता तो हम सेंट्रल पूल में इसको शामिल करते क्योंकि ये ऍम के लिए अब नहीं है । तो इसलिए हम इसको सेंट्रल पूल में नहीं ले सकते । तो ये है के लोग इधर खडे हुए हैं का ये कहना है कि उन्होंने हरियाणा के फ्ूड डिपार्टमेंट को तमाम बार चिट्ठी लिखके ये आगाह किया कि भाई आपका खुले में अनाज पडा हुआ है, गेहूँ पडा हुआ है । हो सकता है इनका ये कहना है आप का कि हरियाणा सरकार ने ध्यान नहीं दिया । अब हम हरियाणा फूट डिपार्टमेंट से बात करने की कोशिश करेंगे कि आखिर उनकी तरफ से अब क्या कहा जा रहा है और क्या जो किसानों के खून पसीने को एक करके ये जो अनाज उगाया गया था जो यहाँ लाया गया था अब वो जब खराब हो गया है तो क्या इसकी जवाबदेही किसी की बनती है या नहीं । लेकिन इतना कहकर क्या एफसीआइ अपनी जिम्मेदारी से बच सकता है? बेशक जवाब नहीं नहीं होगा । ऍम रे के सामने तो नहीं लेकिन गेहूँ वाले गोदाम इंचार्ज से जब हमने फोन पर बात की तो उनका कहना था की ये गेहूं छह महीने के लिए रखा गया था तो ढाई साल तक पिछले साल डेढ लाख ऍम इसको समय रहते उठाया नहीं । इसी में आपके लेटर में लिखा है अठारह उन्नीस और उन्नीस बीस । लेकिन एनडीटीवी के पास हरियाणा खाद्य नागरिक आपूर्ति एवं उपभोक्ता विभाग का एक पत्र है जिसमें गेहूँ को कौडियों के भाव नीलाम करने का जिक्र है । 

इसके मुताबिक कुरुक्षेत्र में चौबीस हजार छह सौ चौबीस टन, कैथल में ग्यारह हजार सात सौ चौरानबे टन, करनाल में छह हजार पाँच सौ सत्तावन टन जबकि फतेहाबाद में दो सौ सोलह टन गेहूं खराब हो गया है । अब कैथल के जिलाधिकारी ने इस मामले में एक जांच कमिटी गठित की है । अभी हमने ऍन शिप में अंदर एक कमिटी बनाई है । वो इस मामले की जांच करेगी । संज्ञान में आया है कि दो साल पहले जो पर्ची हुई थी वो सारी पानी के अंदर भी गई थी । प्रॉपर तिरपाल वगैरह से कवर नहीं किया इसलिए वो हो गई है । चार जिलों का करीब बयालीस हजार टन इस साल गेहूं हो चुका है । इनकी कीमत अगर जोडे तो बयासी करोड रुपए के आसपास बैठती है । इस गेहूं को पाँच किलो के हिसाब से सरकार अगर गरीबों में बांटती तो इससे सत्तर लाख से ज्यादा लोगों को गेहूं मिल सकता था । अब आपको पता लग गया होगा कि हमारे देश में अनाज का सर प्लस उत्पादन होने के बावजूद हम भुखमरी के इंडेक्स में सौ नंबर के बाद क्यों है । कैथल से सुनील रवीश के साथ रवीश रंजन शुक्ला एनडीटीवी इंडिया उत्तराखंड में यूपी पुलिस की बडी लापरवाही के चलते ब्लॉक प्रमुख की मौत हो गई । जिसे लेकर अब यूपी और उत्तराखंड की पुलिस सामने सामने है । यूपी पुलिस मंगलवार को बिना वारंट सारे कपडे में एक अपराधी को पकडने उत्तराखंड जाती है जहाँ बीजेपी ब्लॉक प्रमुख के घर पर मुठभेड होती है । यूपी पुलिस अपराधी तो नहीं पकड पाई लेकिन गोलीबारी में ब्लॉक प्रमुख की पत्नी की मौत हो जाती है । कई पुलिसकर्मी घायल है । सौरभ की ये रिपोर्ट देखिए ये चिंता अट्ठाईस साल की गुरप्रीत कौर की है । गुरप्रीत कौर उत्तराखंड के जसपुर के ब्लॉक प्रमुख गुरताज सिंह की पत्नी थी । पूरे जसपुर में मातम है । गुरताज सिंह के घर में उन्हें देने वालों का तांता लगा हुआ है । गुरताज सिंह का कहना है कि मंगलवार की शाम पीपल इसके लोग सादी वर्दी में बिना नंबर प्लेट की गाडी से यहाँ आए और एक अपराधी को पकडने के नाम पर उनके घर के अंदर घुस गए । जब गुरताज सिंह ने पाल इससे बाहर आकर बात करने को कहा तो यूपी पुलिस की तरफ से फाइरिंग हुई जिसमें गुरताज की पत्नी की मौत हो गई । गुरताज का ये भी दावा है कि उनकी तरफ से ना गोली चली है और ना किसी पुलिसकर्मी को पीटा गया है । गुरताज के घर के बाहर पीपल इसकी गाडी अभी बुरी हालत में खडी है जिसमें कोई नंबर प्लेट नहीं है । फाइरिंग का एक विडियो भी वायरल हो रहा है जिसमें गोली चलने की आवाज है । 

इस विडियो में यूपी पली सिवल कपडो में पिस्टल के साथ नजर आ रही गोली नहीं चली । उनके ऊपर कुछ नहीं है । उनका एक फाइल हुआ है । उसके बाद उन्होंने जाते समय एक दो हवाई हैं और उनकी सीधी जो पहला प्यार हुआ है वो सीधा उसके लग गया । पहली गोली उनके लग गई और उसके बाद हम उसे उठा के मैं संजीवनी हॉस्पिटल ले गया तो वो जो पुलिस वाले चार लोग हम ने पकड के पन्ना पुलिस को दे दिया जब वो यहाँ से भागे । उन्होंने जो जाके वहाँ पे बताया उन्होंने तुरंत उसको कौन प्रिंस कर दी । उनको जब दिन में यहाँ की कौन प्रिंस हुई है यहाँ के डॅडी साहब ने सब ने यहाँ पे पूरी फॅमिली उन्होंने हर चीज का जायजा लिया । ॅ किया इनके वाइपर मिले जिस वाइफ उनसे इंजरी हुई है वो पिस्टल यहाँ मिला उसका खोखा यहाँ मिला इनकी गाडियाँ मिली । इनके चार फोन यहाँ मिले और सारी घटना हम तो इनके यहाँ नहीं गए थे । यही हमारे घर पे आए थे । कोई इनके साथ कोई बदतमीजी नहीं हुई । कोई कुछ नहीं हुआ लेकिन जो भी पुलिस की कहानी इससे बिल्कुल अलग है । पुलिस का कहना है कि वो एक अपराधी का पीछा करते हुए जसपुर में ब्लाॅक प्रमुख के घर पहुंची । पचास हजार का इनामी बदमाश यहाँ छुपा हुआ था । लेकिन वहाँ पहुँचने के बाद के पुलिसकर्मियों को पकड लिया गया । उनके साथ मारपीट हुई । उन पर गोली भी चलाई गई जिसमें छह पुलिसकर्मी घायल । जिस घर में घर में अपराधी उसको पीछे पीछे पुलिस गई और वहाँ पे अपराधी को पकडा उसके बाद जो ये जो घर के निवासी थे उन्होंने उसको छोडा छुडाने का प्रयास किया उसको छुडा लिया, उसको भगाया । उसके बाद जो हमारी पुलिस उसको बंधक बनाया बंधक बना के अनुसार मारपीट की गई मारपीट करने के बाद उनको गोली मारी गई । छह लोग है जो सिर इसलिए है राइट न अभी अस्पताल में है इसमें से दो ऍम हो के वो उधर उत्तराखंड पुलिस इस मामले में यूपी पुलिस पर घोर लापरवाही का आरोप लगा रही उत्तराखंड पुलिस ने यूपी पुलिस के कर्मियों के खिलाफ गुरप्रीत कौर की हत्या का केस दर्ज कर लिया है ।

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यूपी पुलिस की पूरी लापरवाही है यूपी पुलिस जो है यहाँ पर एक तो बिना बताए आयी हमको कोई आला अधिकारी को सुचना नहीं कोई थाने को सूचना नहीं आके जो है उनको यहाँ का कोई स्थिति का ध्यान नहीं और उन्होंने जो है एक तो यहाँ महिलाएं है ये है उन्हें देखना चाहिए कि हम कहाँ जा रहे हैं रात में आए अगर आप जो है रेड कर रहे हो तो इस तरीके से होती है और यहाँ के जो है इतने सारे जो है एक तो कोई वर्दी नहीं कोई आइ कार्ड नहीं कौन पुलिस है क्या है तो इस तरह से रेट नहीं होती गलत जो है उन्होंने किया है । इस पूरे प्रकरण में यूपी पलिस और उत्तराखंड पलिस आमने सामने है । पीपल इस अपराधी को तो पकड नहीं पाई बल्कि एक निर्दोष महिला की हत्या का आरोप उस केस लग जाए । भारतीय कानून में नियम कायदे है कि अगर दूसरे राज्य जाते हैं, छापेमारी करने है तो अब वॉइंट लेके जाए लोकल पाल इसको बताए उस को साथ लेके जाए । लेकिन उत्तर प्रदेश पुलिस ने कुछ भी इसमें फॉलो नहीं किया जिसकी वजह से इतना ड्रामा हो गया की दोनों पच्चीस एक दूसरे पर कर रही है । और ये तो चलिए छोटी बात है एक निर्दोष की मौत हो गई है । अगर नियम कायदे फॉलो करती तो शायद गुरप्रीत जिंदा होती । उनके दो छोटे बच्चे हैं जसपुर में सयोगी कानन पात्रा, अनवर और वेदांत के साथ ।