यह ख़बर 07 जुलाई, 2014 को प्रकाशित हुई थी

प्राइम टाइम इंट्रो : कांग्रेस को मिलेगा नेता विपक्ष का पद?

नई दिल्ली:

नमस्कार, मैं रवीश कुमार। विपक्ष में दो सौ सांसद होते हुए भी कोई नेता विपक्ष नहीं है। कायदे से तो इन दौ सौ सांसदों को मिलकर नेता विपक्ष के लिए आवाज उठानी चाहिए थी और नियम धारा का समर्थन न मिलने की स्थिति में अपने भीतर आम सहमति बनाकर नेता विपक्ष चुनकर प्रतीकात्मक रूप से लोकतांत्रिक भावना का साहसिक प्रदर्शन करना चाहिए था, मगर ऐसा नहीं हो रहा है। क्या नेता विपक्ष की मांग अकेले कांग्रेस की लड़ाई है। क्या आप ऐसी लोकसभा की कल्पना करना चाहेंगे, जिसमें नेता विपक्ष नहीं हो?

राष्ट्रपति के अभिभाषण के समर्थन में लोकसभा में बोलते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि जनभावना तो यही है कि पांडव हमेशा विजयी रहे। सत्ता और विपक्ष को पांडव और कौरव कहना उचित तो नहीं है, मगर नरेंद्र मोदी का यह बयान कहीं ज्यादा उदार दिखता है। क्या यह सवाल किया जा सकता है कि क्यों न पांडवों को पांच गांव न देने की भूल दोहराने की जगह उन्हें नेता विपक्ष का पद दे दिया जाए। पर इस मामले में फैसला कैसे होगा?

क्या कांग्रेस के दौर की गलतियां या कमियां दोहरा कर या नई परिपाटी कायम कर या बीजेपी वाकई परंपराओं और धाराओं को लेकर इतनी आश्वस्त है कि वह स्पष्ट रूप से नेता विपक्ष के पद की हिमायत नहीं कर रही है। इस मामले में दो कानून और एक निर्देश का उदाहरण दिया जा रहा है। पहले 1977 और फिर 1998 के कानून की बात करेंगे। दोनों की नामवली अलग है।

साल 1977 में जनता पार्टी की सरकार ने पहली बार सैलरी एंड अलाउंसेज ऑफ लीडर्स ऑफ अपोज़ीशन एक्ट पास किया। इसके अनुसार पहली बार नेता विपक्ष को वैधानिक मान्यता कैबिनेट मंत्री का दर्जा सैलरी और अन्य सुविधाएं मिलती हैं। इसमें कहा गया है कि सबसे अधिक संख्या वाले दल का नेता इस पद के योग्य होगा। इसमें दस प्रतिशत या कोरम की शर्त नहीं है।

वर्ष 1977 के एक्ट के दम पर नेता विपक्ष के पद की वकालत हो रही है, तो 1998 के एक्ट और स्पीकर के डायरेक्शन 120 और 121 के दम पर विरोध। वर्ष 1998 के एक्ट का नाम हैं दी लीडर्स एंड चीफ व्हिप ऑफ रिकॉगनाइंज्ड पार्टीज एंड ग्रुप इन पार्लियामेंट फैसीलीटीज एक्ट। इस एक्ट में नेता विपक्ष नामक शब्द नहीं है, लेकिन इसमें कोरम की बात है जो डायरेक्शन 121 में भी राजनीतिक दलों की मान्यता के संबंध में भी है। 1998 का एक्ट संसद में दलों और समूहों के नेता और चीफ व्हीप तय करने के लिए है। अगर पार्टी दावा करती है तो उसकी संख्या 55 से कम नहीं होनी चाहिए।

सवाल यह है कि क्या आप 1998 के एक्ट को 1977 के एक्ट पर थोप सकते हैं। शायद नहीं। बल्कि इन दो कानूनों के बीच यह एक बड़ा छेद है। हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि स्पीकर का विवेकाधिकार सदन को सुचारू रूप से चलाने के लिए है। अगर परंपराएं सदन के पक्ष में नहीं है तो स्पीकर उनका पालन करने से इंकार भी कर सकता है या कर सकती हैं। जैसे स्पीकर वोट नहीं करती हैं। लेकिन जब सदन में मतदान के वक्त टाई हो जाता है, तब उन्हें वोट करना पड़ता है। हार या जीत के लिए नहीं बल्कि सदन को बहस का एक और मौका देने के लिए।

ब्रिटिश संसद में स्पीकर बनने पर सदस्य अपनी पार्टी से इस्तीफा दे देता है। भारत में नीलम संजीवा रेड्डी के अलावा किसी ने इस्तीफा नहीं दिया। भारत में ऐसा कोई कानून नहीं है, लेकिन कानून तो ब्रिटेन में भी नहीं है।

स्पीकर के जिस डायरेक्शन 120 और 121 की बात हो रही है, उसकी पैदाइश साठ के दशक की राजनीतिक परिस्थितियों में हुई है। जब विपक्ष संख्या के हिसाब से कमजोर होता था, लेकिन गुणात्मक रूप से सदन के प्रति ज्यादा निष्ठावान और शक्तिशाली। एक समय डाक्टर कर्णी सिंह, फ्रैंक एंथनी, जयपाल सिंह मुंडा ने यूनाइटेड इंडिपेंडेंट पार्लियामेंट्री ग्रुप नाम से संयुक्त विपक्ष बना लिया था। इसी तरह से यूनाइटेड प्रोग्रेसिव ग्रुप भी बना था।

लिहाज़ा कोई कहे या किसी ने ऐसा कहा हो कि सोलहवीं लोकसभा में पहली बार विपक्ष में मोर्चा बनेगा तो वह तथ्यात्मक और तकीनीकी रूप से सही नहीं है। पहले बने इन समूहों से कोई नेता विपक्ष तो नहीं बना, लेकिन बोलने के लिए समय और कमेटियों में प्रतिनिधित्व जरूर मिल गया।

साल 1998 के एक्ट में समूहों के लिए संख्या कम से कम पैंतीस और अधिकतम 54 निर्धारित है। इससे विपक्ष के अस्तित्व का विस्तार होता है और बहस में हिस्सा लेने के लिए पर्याप्त समय मिलता है।

एक व्याख्या यह दी जा रही है कि स्पीकर इंटरनल यानी आंतरिक कार्यकलाप के लिए तो निर्देश जारी कर सकती हैं, लेकिन सदन के बाहर यानी संवैधानिक नियुक्तियों में नेता विपक्ष की अनिवार्यता उनके दायरे में आती है या नहीं यह बहस का विषय है। ऐसी नियुक्तियों के लिए नेता विपक्ष कौन तय करेगा। क्या राजनीतिक दलों को मान्यता देने वाला चुनाव आयोग यह काम करे और सदन का पीठासीन अधिकारी मान्यता दे दे।

संसदीय प्रक्रिया पर एमएन कौल एंड लखधर की मशहूर किताब के चैप्टर आठ चौदह में इस बारे में कुछ रौशनी मिलती है। इसके एक पैरा का अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद किया है। इस क्रम में चूक की संभावना को शामिल करते हुए इसका तर्जुमा यह है कि 11वीं लोकसभा के बाद जहां विधायक दल को सदन में अपनी गिनती की ताकत के आधार पर कुछ विशेष कामकाजी सुविधाएं मिलती रह रही हैं, वहीं 120 और 121 के संदर्भ में दिए गए दिशानिर्देशों के लिहाज से स्पीकर द्वारा मान्यता प्रदान किए जाने का चलन खत्म कर दिया गया है।

अब मुझे यह नहीं मालूम कि नेता विपक्ष का पद चाहने के लिए अप्लाई करना पड़ता है या मीडिया में बयान देना पड़ता है। अगर स्पीकर को अर्जी देनी होती है तो फिर कांग्रेस से सवाल होना चाहिए कि क्या वह अहं की राजनीति नहीं कर रही है। अगर यह सिस्टम नहीं है, तो बीजेपी से पूछा जाना चाहिए कि वह क्यों नहीं साफ-साफ लाइन लेती है कि नेता विपक्ष के पद के लिए कांग्रेस हकदार नहीं है।

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सोनिया गांधी ने आज कहा कि कांग्रेस सबसे पड़ी पार्टी है। हमारा चुनाव के पहले भी गठबंधन था। हमें यह पद मिलना चाहिए। नहीं मिलेगा तो देखेंगे। जब हमारे सहयोगी उमाशंकर सिंह ने अंबिका सोनी से पूछा कि कांग्रेस पार्टी के तौर पर नेता विपक्ष का पद मांग रही है या गठबंधन के तौर पर, तो उन्होंने साफ जवाब नहीं दिया। कमलनाथ तो अदालत जाने की बात कर रहे हैं, मगर पार्टी ने इस पर कोई फैसला नहीं किया है।

पत्रकारों ने जब स्पीकर सुमित्रा महाजन से पूछा तो उन्होंने कहा कि वे मीडिया रिपोर्ट के आधार पर कुछ नहीं कह सकतीं। इतिहास तो यही है कि 55 से कम सीट वाली पार्टी का नेता कभी नेता विपक्ष नहीं बना है।