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This Article is From Nov 14, 2023

"एडल्टरी, होमोसेक्सुअलिटी फिर हों अपराध के दायरे में" : पैनल की केंद्र से सिफारिश, अब SC के फैसले पर नजर

गृह मामलों की स्थायी समिति की रिपोर्ट चाहती है कि एडल्टरी कानून को थोड़ा बदलकर क्राइम के दायरे में वापस लाया जाए. इसका मतलब है कि पुरुष और महिला दोनों को सजा का सामना करना पड़ेगा.

"एडल्टरी, होमोसेक्सुअलिटी फिर हों अपराध के दायरे में" : पैनल की केंद्र से सिफारिश, अब SC के फैसले पर नजर
भारतीय न्याय संहिता सितंबर में संसद में पेश की गई थी (फ़ाइल).
नई दिल्ली:

गृह मामलों की संसदीय स्थायी समिति (Parliamentary Panel)ने शादी से इतर फिजिकल रिलेशन यानी एडल्टरी (Adultery) को फिर से भारतीय न्याय संहिता (Indian Penal Code) के दायरे में लाने की सिफारिश की है. संसदीय स्थायी समिति ने केंद्र को भेजे प्रस्ताव में कहा, "एडल्टरी को फिर से क्राइम बनाया जाना चाहिए. क्योंकि शादी एक पवित्र संस्था है और इसे संरक्षित किया जाना चाहिए." संसदीय स्थायी समिति  ने मंगलवार को केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह (Amit Shah) से भारतीय न्याय संहिता विधेयक पर अपनी रिपोर्ट में ये सिफारिश की. गृह मंत्री ने सितंबर में भारतीय न्याय संहिता विधेयक पेश किया था. समिति ने एडल्टरी के साथ ही होमोसेक्सुएलिटी को भी क्राइम के दायरे में लाने की सिफारिश की है.

संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में यह भी तर्क दिया गया है कि संशोधित व्यभिचार कानून (Adultery Law) को "जेंडर न्यूट्रल" अपराध माना जाना चाहिए. साथ ही दोनों पक्षों पुरुष और महिला को समान रूप से इसके लिए उत्तरदायी ठहराया जाना चाहिए.

अगर सरकार संसदीय समिति की रिपोर्ट स्वीकार कर लेती है, तो यह सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय बेंच के 2018 के एक ऐतिहासिक फैसले के विपरीत होगा. इसमें कहा गया था कि "एडल्टरी अपराध नहीं हो सकता और न ही इसे होना चाहिए".

गृहमंत्री अमित शाह ने 11 अगस्त को पेश किए थे तीन विधेयक
दरअसल, केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने सितंबर में क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम को मजबूत करने के लिए लोकसभा में तीन बिल पेश किए थे. इसके नाम भारतीय न्याय संहिता, भारतीय साक्ष्य विधेयक और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता है. गृहमंत्री ने दावा किया कि इन कानूनों को लागू करने का मुख्य उद्देश्य न्याय प्रक्रिया को तेज करना है. भारतीय न्याय संहिता तीन (The Bharatiya Nyay Sanhita) को स्क्रूटनी के लिए गृह मामलों की स्थायी समिति को भेजा गया था, जिसके अध्यक्ष बीजेपी सांसद बृज लाल हैं.

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पी चिदंबम ने जताई थी आपत्ति
हालांकि, कांग्रेस के सीनियर नेता और सांसद पी चिदंबम ने इस सिफारिश पर आपत्ति जताई थी. उन्होंने कहा, "... राज्य को एक कपल की निजी जिंदगी में झांकने का कोई अधिकार नहीं है." चिदंबरम ने विधेयक को लेकर तीन "मौलिक आपत्तियां" उठाई थीं. जिसमें यह दावा भी शामिल था कि सभी तीन बिल "मोटे तौर पर मौजूदा कानूनों की कॉपी और पेस्ट" हैं.

2018 में सुप्रीम कोर्ट ने एडल्टरी को अपराध के दायरे से किया था बाहर
2018 में तत्कालीन चीफ जस्टिस (CJI) दीपक मिश्रा की अगुवाई वाली सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की बेंच ने एडल्टरी पर ऐतिहासिक फैसला दिया था. कोर्ट ने कहा कि एडल्टरी कोई अपराध नहीं हो सकता और नहीं होना चाहिए. हालांकि बेंच ने कहा कि एडल्टरी तलाक के लिए आधार हो सकता है. तत्कालीन सीजेआई दीपक मिश्रा ने यह कहते हुए तर्क दिया था कि 163 साल पुराना, औपनिवेशिक काल का कानून "पति पत्नी का स्वामी है" की अवैध अवधारणा का पालन करता है. अपनी तीखी टिप्पणियों में शीर्ष अदालत ने कानून को "पुराना", "मनमाना" और "पितृसत्तात्मक" कहा. अदालतन ने कहा कि यह एक महिला की स्वायत्तता और गरिमा का उल्लंघन करता है.

IPC, CrPC और एविडेंस एक्ट में बड़े बदलाव करने की सरकार की कोशिश प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बार-बार दोहराए गए उस बयान का हिस्सा है, जिसमें वो भारत को औपनिवेशिक युग के कानूनों से मुक्त कराने की बात करते हैं. इस साल सितंबर में और पिछले साल अक्टूबर में पीएम मोदी ने "समसामयिक कानूनों" की जरूरत पर बात की थी.

संसदीय समिति ने की एडल्टरी कानून को जेंडर-न्यूट्रल बनाने की सिफारिश
2018 के फैसले से पहले के कानून में कहा गया था कि जो पुरुष किसी विवाहित महिला के साथ उसके पति की सहमति के बिना यौन संबंध बनाता है, उसे दोषी पाए जाने पर पांच साल की सजा हो सकती है. हालांकि, इस केस में संबंधित महिला को सज़ा नहीं होगी. गृह मामलों की स्थायी समिति की रिपोर्ट चाहती है कि एडल्टरी कानून को थोड़ा बदलकर क्राइम के दायरे में वापस लाया जाए. इसका मतलब है कि पुरुष और महिला दोनों को सजा का सामना करना पड़ेगा.

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स्थायी समिति ने यह भी कहा है कि "बिना सहमति लिए सेक्सुअल एक्ट (जिसे आंशिक रूप से रद्द की गई धारा 377 में होमोसेक्सुएलिटी के रूप में परिभाषित किया गया था) को भी फिर से अपराध के दायरे में लाया जाना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में भी धारा 377 को आंशिक रूप से खारिज कर दिया था. पूर्व मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अगुवाई वाली बेंच ने कहा कि ये प्रतिबंध तर्कहीन, अक्षम्य और स्पष्ट रूप से मनमाना है.

हालांकि, संसदीय स्थायी समिति ने दावा किया है कि अदालत ने पाया कि हटाए गए हिस्से संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 19 और 21 का उल्लंघन करते हैं, लेकिन वे "वयस्कों के साथ गैर-सहमति वाले फिजिकल रिलेशन के मामलों में लागू होते हैं." समिति ने कहा कि अब, भारतीय न्याय संहिता में पुरुष, महिला, ट्रांसजेंडर के खिलाफ गैर-सहमति वाले यौन अपराधों और पाशविकता के लिए कोई प्रावधान नहीं किया गया है."

अपराधों के मामले में, समिति ने विचार व्यक्त किया कि 'सामुदायिक सेवा' शब्द को उचित रूप से परिभाषित किया जाना चाहिए. इसमें आगे सुझाव दिया गया कि सामुदायिक सेवा के रूप में दी जाने वाली सजा की निगरानी के लिए व्यक्ति को जिम्मेदार बनाने के संबंध में भी प्रावधान किया जा सकता है.

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