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This Article is From Jan 27, 2015

ओबामा के वादे और उन पर उठे सवाल

ओबामा के वादे और उन पर उठे सवाल
फाइल फोटो
नई दिल्ली:

'दुनिया के किसी देश पर धरती के गरम होने से उतना असर नहीं पड़ेगा, जितना भारत पर'

भारत से जाते-जाते अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की यह हमें चेतावनी भी थी और नसीहत भी। अमेरिका चाहता है कि भारत ज्यादा से ज्यादा साफ सुथरी बिजली का इस्तेमाल करे। परमाणु बिजलीघर, सोलर पैनल, हाइड्रो पावर और विंड एनर्जी टावर वह रास्ते हैं, जो हवा में बिना कार्बन फैलाए बिजली बना सकते हैं, लेकिन ओबामा अगर ये कह रहे हैं तो इसके पीछे वजह भी हैं।

भारत-अमेरिका परमाणु करार के साथ-साथ हुई दूसरी संधियों के तहत अमेरिका से भारत को अगले कुछ सालों में दस हज़ार मेगावॉट के रियेक्टर खरीदने हैं। जानकार कह रहे हैं कि ओबामा अपनी इस यात्रा में जनरल इलेक्ट्रिक और वेस्टिंगहाउस जैसे कंपनियों के हित भी बड़ा मुद्दा रहे हैं।

वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ वरदराजन कहते हैं, 'अमेरिका में न्यूक्लियर एनर्जी का बड़े स्तर पर इस्तेमाल होता है, लेकिन पिछले कुछ वक्त से इसका विस्तार थम सा गया है। वहां कई सूबों में न्यूक्लियर एनर्जी के प्लांट लगाने की कोशिश हो रही है, लेकिन स्थानीय विरोध और रेडियोधर्मी कचरा प्रबंधन जैसे कई मुद्दे आड़े आ रहे हैं। इसलिए पिछले 30-35 सालों से वहां बड़ी कंपनियों के रियेक्टर नहीं बिक रहे।'

ओबामा ने सौर ऊर्जा की बात भी कही, लेकिन सवाल यह है क अगर अमेरिका भारत के साथ सौर ऊर्जा पर सहयोग करेगा तो क्या वह अमेरिकी कंपनियों के बनाए सोलर पैनल खरीदने पर ही दबाव नहीं डालेगा। अभी चीन काफी सस्ती कीमत पर सोलर पैनल बना रहा है। भारत खुद भी चाहता है कि वह अपने देश के भीतर इनका निर्माण शुरू करे, लेकिन आशंका है कि अमेरिका के मन मुताबिक बात न मानने पर वह भारत को डब्लूटीओ की संधियों के तहत मुश्किल में डाल सकता है।

ओबामा की इस यात्रा और आखिरी दिन सिरीफोर्ट ऑडिटोरियम पर दिए गए उनके भाषण से कई सवाल और भी उठे हैं। ओबामा ने कहा कि अमेरिका के कार्बन इमीशन पिछले 20 साल में सबसे निचले स्तर पर हैं। यह सच है कि अमेरिका का कार्बन उत्सर्जन घटा है, लेकिन उसके लिये अमेरिका ने खुद कुछ खास नहीं किया है।

पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के मुद्दों को करीब से कवर करने वाले पत्रकार नितिन सेठी कार्बन इमीशन कम करने के अमेरिका के दावे को हास्यास्पद बताते हैं। सेठी का कहना है, 'अमेरिका के इमीशन 2005 में ही इतने ऊंचे स्तर पर पहुंच गए थे कि उसके बाद उन्हें नीचे ही आना था। अमेरिका अब भी यही कह रहा है कि वह अगले पंद्रह सालों में अपने कार्बन इमीशन पर केवल 26 से 28 प्रतिशत की कटौती करेगा जो जलवायु परिवर्तन के ख़तरे को देखते हुए काफी छोटी कोशिश है।'

सच यह है कि पर्यावरण में आज तक जमा किए गए कार्बन पर नज़र डालें को अमेरिका का हिस्सा सबसे अधिक है। यानी अब तक अमेरिका ने धरती और आकाश को सबसे अधिक गंदा किया है। अमेरिका दूसरे विकसित देशों और चीन के साथ मिलकर पर्यावरण में फैलने वाले कार्बन स्पेस पर क़ब्ज़ा किये हुए है। ऐसे में जब विकासशील देश तरक्की करेंगे और कार्बन निकलेगा तो क्या अमेरिका उसका विरोध नहीं करेगा।

जलवायु परिवर्तन पर सालाना सम्मेलन इस साल के अंत में पेरिस में हो रहा है। विकासशील देश अमीर देशों से साफ ऊर्जा की तकनीक और पैसे की मदद मांग रहे हैं, ताकि पर्यावरण के उनके द्वारा किये गये नुकासन की भरपाई हो सके।

सच यह है कि अमेरिका ने टेक्नोलॉजी देने से तो साफ मना कर दिया है और अब वह पैसे की मदद की बात से भी पीछे हट गया है। अमीर देशों ने सौ अरब डॉलर का एक ग्रीन फंड बनाने की बात कही थी, उसमें न तो पैसा जमा हो रहा है और न गरीब और विकासशील देशों को मदद मिल रही है। उल्टे अमेरिका ने कह दिया है कि अंतरराष्ट्रीय बैंकों से मिलने वाला कर्ज़ और गरीबी मिटाने के लिए दी जा रही मदद भी इसी फंड का हिस्सा मानी जायेगी। इसे लेकर विकासशील देश काफी नाराज़ हैं। हाल में लीमा में हुए पर्यावरण के सम्मेलन में इन मुद्दों पर तनातनी साफ दिखाई दी।

ऐसे में ओबामा भाषण कुछ भी दे गए हों, लेकिन भारत में साफ सुथरी बिजली के उत्पादन में उनके देश की गंभीरता पर सवाल बने रहेंगे।

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