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बंगाल की मुस्लिम राजनीति में भूचाल: क्या हुमायूं कबीर ममता के अभेद किले में सेंध लगा पाएंगे?

बंगाल की मुस्लिम राजनीति नए मोड़ पर है. बाबरी मस्जिद, पहचान की राजनीति और हुमायूं कबीर की नई पार्टी की तैयारी से ममता बनर्जी का मुस्लिम वोट बैंक पहली बार गंभीर चुनौती में दिख रहा है.

बंगाल की मुस्लिम राजनीति में भूचाल: क्या हुमायूं कबीर ममता के अभेद किले में सेंध लगा पाएंगे?
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  • हुमायूं कबीर बाबरी मस्जिद और नई पार्टी के जरिए बंगाल की मुस्लिम राजनीति को नए सिरे से परिभाषित करना चाहते हैं.
  • मुस्लिम वोटों में बंटवारा तृणमूल को नुकसान और बीजेपी को अप्रत्यक्ष फायदा पहुंचा सकता है.
  • मुख्यमंत्री ममता बनर्जी अब भी मजबूत हैं, लेकिन 2026 में पहचान की राजनीति बड़ा रोल निभा सकती है.
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पश्चिम बंगाल में बरहमपुर, मुर्शिदाबाद जिले का एडमिनिस्ट्रेटिव हेडक्वार्टर है. भागीरथी नदी को यहां गंगा के समान पवित्र नदी माना जाता है. भागीरथी इस जिले को दो भागों में बांटती है. इसके पूर्वी तट पर बसा बरहमपुर को 1757 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने बसाया था. अंग्रेजों के दौर से ही यह रेशम की बुनाई, तेल निकालने का काम, हाथी दांत की नक्काशी और सोने-चांदी, पीतल के बर्तनों के उद्योग का केंद्र रहा है. लेकिन इसके ठीक उलट, 6 दिसंबर को (1992 में इसी दिन अयोध्या में बाबरी मस्जिद ढहाई गई थी) बरहमपुर अचानक पूरे देश में खबरों की सुर्खियों में था.

इस दिन यहां एक बड़ा राजनीतिक ड्रामा देखने को मिला, जो पहचान की राजनीति की पुरानी जटिलताओं की याद दिलाता है. और इसकी वजह से रिजिनगर से बेलडांगा तक नेशनल हाईवे-12 का करीब 12 किलोमीटर का हिस्सा लगभग तीन घंटे तक बंद रहा. हजारों की संख्या में लोग इकट्ठा हो गए थे— कुछ के हाथ में ईंटें तो कुछ के पत्थर के टुकड़े भी थे— क्योंकि निलंबित TMC विधायक हुमायूं कबीर के बुलावे पर ये लोग ‘बाबरी मस्जिद जैसी' मस्जिद की नींव रखने यहां पहुंचे थे. 

62 साल के हुमायूं कबीर बेलडांगा में बाबरी मस्जिद बनाने की योजना बना रहे हैं. यह वही इलाका है जहां अप्रैल 2025 में सांप्रदायिक हिंसा हुई थी. हुमायूं कबीर ने भले ही तृणमूल कांग्रेस से इस्तीफा नहीं दिया है, पर धमकी दी है कि वो 22 दिसंबर को अपनी नई पार्टी बनाएंगे ताकि विधायक के तौर पर मिलने वाले अपने खास अधिकार बनाए रख सकें.

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हुमायूं कबीर पहले भी कई बार अलग-अलग पार्टियां बदल चुके हैं. 2015 में पार्टी विरोधी गतिविधियों के चलते तृणमूल कांग्रेस ने उन्हें छह साल के लिए बाहर कर दिया था. 2016 में कबीर ने रेजिनगर से निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ा, लेकिन हार गए. 2019 के लोकसभा चुनाव में वह भारतीय जनता पार्टी में शामिल हुए, लेकिन तृणमूल कांग्रेस के उम्मीदवार से हार गए. इसके बाद 2021 में वह फिर से तृणमूल कांग्रेस में लौट आए और भरतपुर विधानसभा सीट से 42 हजार से अधिक वोटों से जीत कर विधायक चुने गए.

आग बबूला कबीर कहते हैं, "मैं एक नई पार्टी बनाऊंगा जो मुसलमानों के लिए काम करेगी. मैं 135 सीटों पर उम्मीदवार उतारूंगा. मैं बंगाल चुनाव में गेम चेंजर बनूंगा. मैं AIMIM और ISF (पीरजादा अब्बास सिद्दीकी की अगुवाई वाली इंडियन सेक्युलर फ्रंट) के संपर्क में हूं और उनके साथ मिलकर चुनाव लड़ूंगा. मेरी ओवैसी से भी बात हुई है." हालांकि AIMIM ने आधिकारिक तौर पर कबीर से किसी भी तरह का रिश्ता होने से इनकार कर दिया है. बाद में कबीर ने यह भी दावा किया कि वह कांग्रेस और CPI-M के संपर्क में थे. इस पूरे मामले पर CPI-M के राज्य सचिव और पोलित ब्यूरो सदस्य मोहम्मद सलीम ने चुप्पी साध रखी है. कांग्रेस पार्टी ने भी अब तक कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है.

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पश्चिम बंगाल के नए ओवैसी बनने का सपना देख रहे कबीर

तृणमूल कांग्रेस से कबीर के निलंबन ने मुस्लिम वोटरों के बीच हलचल पैदा कर दी है. बाबरी मस्जिद को फिर से बनाने और एक नया राजनीतिक मोर्चा खड़ा करने की उनकी साहसिक योजना का मकसद उन मुस्लिम वोटरों की नाराजगी को पकड़ना है, जो लंबे समय से ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस के साथ खड़े रहे हैं. सीपीआईएम को सत्ता से हटाने के बाद से ही बंगाल के अधिकांश मुसलमानों की पहली पसंद तृणमूल कांग्रेस रही है, लेकिन अब कबीर की नई पार्टी बनाने की धमकी ने तृणमूल के आम कार्यकर्ताओं में बेचैनी पैदा कर दी है, खासकर ऐसे वक्त में जब बंगाल में अपने बढ़ते प्रभाव के साथ बीजेपी लगातार तृणमूल पर नजरें टिकाए है. 

कबीर की यह कोशिश बिहार जैसी भावनाओं को फिर से जिंदा करने की लगती है, जहां AIMIM के असदुद्दीन ओवैसी ने सीमांचल इलाके में आरजेडी को चुनौती दी थी और 2020 और 2025 के विधानसभा चुनावों में (दोनों बार) पांच सीटें हासिल कीं. ओवैसी की तरह ही कबीर की एंट्री भी एक स्थानीय लेकिन प्रभावशाली असर छोड़ने वाले परिवर्तन की तरफ इशारा करती है, जिसका मकसद पश्चिम बंगाल में पहचान और राजनीतिक प्रतिनिधित्व की कड़ी को नए सिरे से परिभाषित करना है.

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बिहार और पश्चिम बंगाल की ऐतिहासिक समानताएं

अगर इस राजनीतिक तस्वीर को ठीक से समझना है, तो सबसे पहले उन ऐतिहासिक तस्वीरों को देखना होगा, जिन्होंने इन दो पड़ोसी राज्यों में मुस्लिम राजनीति को आकार दिया है. बिहार का सीमांचल इलाका, जहां मुसलमानों की आबादी काफी ज्यादा है, वहां असदुद्दीन ओवैसी का उभार आरजेडी की मजबूत पकड़ के खिलाफ एक अलग कहानी के तौर पर सामने आया. यह चुनौती सिर्फ सत्ता पाने की लड़ाई नहीं थी, बल्कि पहचान की लड़ाई थी. यह उस माहौल में अपनी अलग पहचान और खुद के फैसले लेने की घोषणा थी, जहां राजनीतिक प्रतिनिधित्व अक्सर सामुदायिक आकांक्षाओं पर भारी पड़ता है.

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पूर्वी भारत के मुसलमानों में भाषा और जातीय विभाजन

बिहार के सीमांचल से लेकर उत्तर और मध्य बंगाल तक फैले मुस्लिम समाज की पेचीदा सामाजिक बनावट को देखकर हैरानी होती है. बिहार में तीन बड़े मुस्लिम समूह हैं— सुरजापुरी, शेरशाहबादी और कुल्हैया. ये समूह सिर्फ अपनी अलग सांस्कृतिक पहचान ही नहीं रखते, बल्कि इनके बीच जाति जैसी गहरी खाई, अलग अलग बोलियां और अलग राजनीतिक झुकाव भी देखने को मिलता है. हर समूह की अपनी कहानी है, और ये सारी कहानियां मिलकर ऐसे समुदाय की तस्वीर पेश करती हैं जो एक अहम मोड़ पर खड़ा है.

सुरजापुरी मुसलमान संख्या बल में सबसे अधिक हैं. उर्दू के भारी असर वाली अपनी बोली के साथ इनकी मौजूदगी किशनगंज इलाके में सबसे अधिक दिखती है. शेरशाहबादी मुसलमान मुख्य रूप से कटिहार में पाए जाते हैं और उनकी बोली बंगाली से काफी मिलती जुलती है, जिसमें पूर्वी भारत की भाषाई लय सुनाई देती है. वहीं आबादी का एक बड़ा हिस्सा मैथिली बोलने वाली अपनी जड़ों से जुड़े हुए कुल्हैया मुसलमानों का है जिनमें स्थानीय परंपराएं बहुत गहराई से रची बसी हुई हैं.

ये तीनों समूह आम तौर पर अपने ही समाज के भीतर शादी ब्याह करते हैं और सांस्कृतिक सीमाओं का सख्ती से पालन करते हैं. इनमें एक-दूसरे समूहों में बहुत कम शादियां होती हैं, यानी हर समूह अपनी परंपराओं और पहचान को मजबूती से बनाए हुए है. हालांकि 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में ओवैसी की AIMIM ने सुरजापुरी, कुल्हैया और शेरशाहबादी समुदायों को एक ही झंडे के नीचे एकजुट करने का काम किया जिसके नतीजे चौंकाने वाला रहे. AIMIM को 2020 और 2025 दोनों ही बार पांच-पांच सीटें हासिल हो गईं, जो कि अल्पसंख्यक वोटों को बड़े स्तर पर संगठित करने का ऐतिहासिक उदाहरण था.

सीमांचल में मुस्लिम वोटरों के बीच दिखने वाला यह बंटवारा, भारतीय मुस्लिम समाज में पहले से मौजूद अशराफ, अजलाफ और अरजाल जैसे व्यापक व्यवस्था की झलक देता है. ये फर्क सिर्फ सामाजिक रिश्तों तक सीमित नहीं रहते, बल्कि चुनावी गणित और वोट डालने के तरीके को भी सीधे तौर पर प्रभावित करते हैं. 2026 में बंगाल में होने वाले चुनावों में भी कुछ ऐसा ही देखने को मिल सकता है. 2021 के विधानसभा चुनाव और 2024 के लोकसभा चुनाव में जो मुस्लिम पहचान ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के झंडे तले एकजुट दिखी थी, वह 2026 में अलग अलग गुटों में बंट सकती है, जिससे उनकी सामूहिक राजनीतिक ताकत कमजोर पड़ सकती है.

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पश्चिम बंगाल में मुस्लिम समाज की तस्वीर

2011 की जनगणना के मुताबिक पश्चिम बंगाल की कुल आबादी में मुसलमानों की हिस्सेदारी करीब 27 प्रतिशत है. मुसलमान सबसे ज्यादा उत्तर बंगाल के जिलों—उत्तर दिनाजपुर (करीब 49.9 प्रतिशत) और मालदा (करीब 51.3 प्रतिशत) में रहते हैं. इसके अलावा मध्य बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में मुसलमानों की आबादी लगभग 66.3 प्रतिशत है. दक्षिण बंगाल में बीरभूम (37 प्रतिशत), दक्षिण 24 परगना (35.6 प्रतिशत), नदिया (26.8 प्रतिशत) और उत्तर 24 परगना (25.8 प्रतिशत) जैसे जिलों में भी मुस्लिम आबादी अच्छी खासी संख्या में है. राजनीतिक जानकारों का कहना है कि ये जनगणना के आंकड़े अब पुराने हो चुके हैं और आज इन जिलों में अल्पसंख्यकों की असली संख्या इससे कहीं अधिक हो सकती है.

बिहार के मुकाबले अपने बारीक फर्क के साथ पश्चिम बंगाल की स्थिति अलग और अधिक समृद्ध है. यहां के आंकड़े और सामाजिक बारीकियां बिल्कुल अलग कहानियां कहते हैं. बिहार के उलट, पश्चिम बंगाल में बंगाली बोलने वाले मुसलमानों की संख्या कहीं अधिक है, जिन्हें शेरशाहबादी भी कहा जाता है, जबकि उर्दू बोलने वाले मुसलमान यहां अल्पसंख्यक हैं. यहां का मुस्लिम वोटर एक समान नहीं है, बल्कि अलग अलग सामाजिक आर्थिक तबकों, उम्मीदों और नाराजगियों से मिलकर बना एक रंगीन और जटिल ताना बाना है.

बंगाली बोलने वाले मुसलमान ज्यादातर गांव देहातों में रहते हैं और उनकी संस्कृति और सामाजिक जड़ें कई मामलों में बंगाली हिंदुओं से मिलती जुलती हैं. इसके उलट, उर्दू बोलने वाले मुसलमानों की आबादी मुख्य रूप से शहरों में बसी है, जो खासकर कोलकाता में रहते हैं और उनकी पहचान पहचान बिहार और उत्तर प्रदेश से आए प्रवासियों के रूप में यहां है.

उदाहरण के तौर पर कोलकाता के राजा बाजार इलाके में रहने वाले उर्दू बोलने वाले मुसलमानों को देखें तो वहां आबादी का अलगाव धर्म, भाषा और आर्थिक हालात जैसे कारणों से बना है. इन इलाकों में रहने वाले ज्यादातर मुसलमान असंगठित क्षेत्रों में काम करते हैं, जैसे कढ़ाई का काम, कागज के शिल्प, चमड़े के शिल्प, कंगन बनाना, जूते बनाना और टैक्सी चलाना. इस इलाके में उर्दू मिडियम के छह स्कूल भी हैं, जहां के अधिकांश बच्चे राजा बाजार इलाके से ही पढ़ने आते हैं.

अल्पसंख्यकों के उत्थान का तृणमूल कांग्रेस का नारा लंबे समय तक उसके लिए मजबूत वोट बैंक बना रहा है, लेकिन अब उस भरोसे में धीरे-धीरे दरारें दिखने लगी हैं. इतिहास गवाह है कि TMC ने खास तौर पर मुर्शिदाबाद और मालदा जैसे जिलों में मुस्लिम वोटों को संगठित करके राजनीतिक ताकत हासिल की है. शेरशाहबादी मुसलमान मालदा, मुर्शिदाबाद और उत्तर दिनाजपुर से लेकर दार्जिलिंग तक गंगा नदी के दोनों तटों पर बसे हुए हैं.

अब कबीर की ओर से नई पार्टी बनाने और 135 विधानसभा सीटों पर उम्मीदवार उतारने का दावा इस पूरे वोटर समूह के भीतर मौजूद अलग अलग आवाजों को एक साथ जोड़ने की कोशिश है. यह कदम ओवैसी की रणनीति से मिलता जुलता जरूर है, लेकिन इसे बंगाल की खास सामाजिक बनावट के हिसाब से ढालने की कोशिश की जा रही है.

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क्या कबीर तृणमूल के वोट बैंक में सेंध लगा पाएंगे?

सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या कबीर की पहल ममता बनर्जी की मुस्लिम वोटों पर पकड़ को कमजोर कर पाएगी. चुनावी जानकारों का अनुमान है कि मुस्लिम वोटों का करीब 10 से 15 प्रतिशत हिस्सा कबीर की आने वाली नई पार्टी की ओर जा सकता है, खासकर उन इलाकों में जहां तृणमूल कांग्रेस के खिलाफ नाराजगी साफ झलक रही है. काफी अधिक मुस्लिम आबादी वाले मुर्शिदाबाद और मालदा जैसे जिले इस बदलाव के केंद्र बन सकते हैं.
मुर्शिदाबाद जिले की जंगीपुर लोकसभा सीट के तहत आने वाला रघुनाथगंज विधानसभा क्षेत्र इसका एक बड़ा उदाहरण है. यहां मुस्लिम वोटर करीब 79.9 फीसद हैं, इसके बावजूद 2021 में बीजेपी ने यह सीट जीत ली थी. इसी तरह मालदा जिले का पुराना विधानसभा क्षेत्र कालियाचक, जिसे 2011 में परिसीमन आयोग के आदेश के बाद दो हिस्सों में बांट दिया गया, अब मोथाबाड़ी (जहां मुस्लिम वोटर 67.3 फीसद हैं) और बैसबनगर (48 फीसद मुस्लिम वोटर) में बंट चुका है. हालांकि अभी ऐसे अनुमान लगाना पूरी तरह अटकलें ही मानी जाएंगी.

पिछले विधानसभा और लोकसभा चुनावों में इन मुस्लिम बहुल इलाकों में वोटिंग प्रतिशत 87 से 90 प्रतिशत के बीच रहा. कुछ सीटों पर कबीर अगर कुछ हजार वोट भी काट लेते हैं, तो उसका सीधा फायदा बीजेपी को मिल सकता है. हाल ही में कबीर ने यह दावा भी किया है कि 2026 में वही “किंगमेकर” बनेंगे, क्योंकि न तो बीजेपी और न ही तृणमूल कांग्रेस को बहुमत मिलने की संभावना है.

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उत्तर बंगाल में बाबरी मस्जिद को फिर से बनाने की अहमियत

कबीर के बयानों से अलग हटकर जमीनी हकीकत समझना जरूरी है. बाबरी मस्जिद को दोबारा बनाने का मुद्दा केवल ईंट और सीमेंट की दीवारें खड़ा करना नहीं, बल्कि इसका जुड़ाव पहचान की राजनीति से है. बड़ी संख्या में मुसलमानों के लिए यह अपने अस्तित्व और सम्मान की भावना से जुड़ा मामला बन सकता है. यह एक संकेत हो सकता है कि उनकी आस्था, उनकी चिंताएं और उनकी सांस्कृतिक पहचान को हाशिये पर नहीं धकेला जा रहा, बल्कि केंद्र में जगह दी जा रही है.

मालदा के जाने माने समाजशास्त्री अविजित पाठक भी इस बात से सहमत हैं. उनका कहना है कि मालदा में आज ऐसे सांस्कृतिक बदलाव दिख रहे हैं, जो उनके बचपन के दौर में नहीं थे. अविजित पाठक कहते हैं, “आज मालदा में महिलाएं बुर्का पहने दिखती हैं. पहले बंगाली महिलाएं, चाहे वे मुस्लिम ही क्यों न हों, हिंदू महिलाओं की तरह साड़ी ही पहनती थीं.”

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बंगाल की राजनीति में कबीर का क्या हो सकता है?

पिछले कई सालों से ममता बनर्जी ने धर्मनिरपेक्षता, विकास और एकता की छवि पेश करके मुस्लिम वोटों पर अपनी पकड़ बनाए रखी है. बीजेपी इसे ‘अल्पसंख्यक तुष्टिकरण' कहती है. लेकिन ममता के शासन पर राजनीतिक संरक्षण देने और अल्पसंख्यकों की सामाजिक आर्थिक समस्याओं को ठीक से हल न कर पाने के आरोप भी लगते रहे हैं. ऐसे में कबीर की चुनौती न केवल  आंकड़ों की है, बल्कि सोच और विचारधारा की भी है. अगर कबीर वोटरों को यह भरोसा दिला पाते हैं कि वे ममता से ज्यादा ईमानदारी और मजबूती से उनकी बात रख सकते हैं, तो एक नई राजनीतिक निष्ठा बन सकती है.

बंगाल के उपजाऊ खेतों की तरह ही यहां की राजनीति भी बदलती रहती है, जहां एक ही बारिश फसल की किस्मत बदल सकती है. इस अनिश्चित माहौल में कबीर की चुनौती या तो बड़ी राजनीतिक कामयाबी में बदल सकती है, या फिर पुराने भरोसों और जमी जमाई वफादारियों के नीचे दबकर खत्म हो सकती है.

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नंबर गेम: मुस्लिम बहुल सीटों पर वोटिंग पैटर्न

भारत में मुसलमान कैसे वोट करते हैं? गहन शोध दो बड़े तर्क सामने रखता है. येल यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर हैरी डब्ल्यू ब्लेयर ने अपनी एक स्टडी में बताया कि मुस्लिम वोटिंग ट्रेंड सबसे अधिक ‘नंबर' पर निर्भर करता है. जहां मुसलमानों की संख्या इतनी ज्यादा होती है कि वे निर्णायक वोट बैंक बन जाते हैं, जैसे मुर्शिदाबाद और मालदा, वहां वे पहचान के मुद्दों पर मुस्लिम उम्मीदवारों को ही वोट देते हैं. जहां मुसलमान बहुत कम संख्या में होते हैं, वहां उनका वोट बहुसंख्यक समाज की तरह ही होता है, क्योंकि वहां जातीय पहचान से ज्यादा स्थानीय संबंध और निजी रिश्ते मायने रखते हैं. और जहां मुसलमान 20 से 30 प्रतिशत के बीच एक अहम वोट बैंक होते हैं, वहां वे किसी “धर्मनिरपेक्ष पार्टी” को वोट देते हैं, जैसे बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, और इससे पहले सीपीआईएम और कांग्रेस.

वहीं हावर्ड से जुड़े शोधकर्ता फैयाद अली राष्ट्रीय स्तर पर एक और पैटर्न की ओर इशारा करते हैं. उनके अनुसार 2019 के बाद से भारतीय मुसलमानों में बीजेपी के खिलाफ वोट करने की प्रवृत्ति और मजबूत हुई है. यह एक तरह की रक्षात्मक और एकजुट प्रतिक्रिया है, जो खुद को हाशिये पर महसूस करने और असुरक्षा की भावना से पैदा हुई है. हालांकि इसके बावजूद मुस्लिम समाज के भीतर जाति, क्षेत्र और संप्रदाय के आधार पर बंटवारे अब भी अहम बने हुए हैं.

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बड़े स्तर पर ध्रुवीकरण का बीजेपी को मिल सकता है फायदा

बिहार और बंगाल के मुस्लिम बहुल इलाकों में ओवैसी और हुमायूं कबीर की हालिया लोकप्रियता साफ दिखाती है कि प्रोफेसर हैरी डब्ल्यू ब्लेयर का ‘संख्या वाला सिद्धांत' 2026 में बंगाल की राजनीति को आकार दे सकता है. जब अल्पसंख्यक पहचान के आधार पर सिर्फ मुस्लिम उम्मीदवारों को वोट देते हैं, तो राजनीतिक ध्रुवीकरण और भी तेजी से होता है. इस तेज ध्रुवीकरण का सीधा फायदा बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए को मिलता है. हाल के बिहार चुनावों ने इसी दिशा की ओर इशारा किया है. माना जा रहा है कि 2026 में बंगाल में भी अल्पसंख्यक वोटिंग का रुझान इसी तरफ झुक सकता है.

इस बदलती राजनीतिक तस्वीर के मुहाने पर खड़े होकर देखें तो कबीर की कोशिशों का असर सिर्फ चुनावी गणित तक सीमित नहीं है. यह पहचान, प्रतिनिधित्व और पश्चिम बंगाल में सांप्रदायिक राजनीति के पूरे ढांचे पर बहस छेड़ देता है. अगर कबीर आज भी बाबरी मस्जिद गिराए जाने की घटना से पूरी तरह उबर नहीं पाए वोटरों के दबे गुस्से और नाराजगी को सही तरीके से पकड़ पाते हैं, तो वह न सिर्फ ममता बनर्जी के मजबूत वोट बैंक में सेंध लगाने में कामयाब हो सकते हैं, बल्कि राज्य में मुस्लिम राजनीति की दिशा भी बदल सकते हैं.

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बंगाल में ममता अब भी एक मजबूत ताकत

हालांकि मजबूत ममता बनर्जी, कोई तेजस्वी यादव नहीं हैं. उन्होंने पिछले 15 सालों से बंगाल पर अपनी बेहद मजबूत पकड़ बनाए रखी है. ममता और उनके भतीजे अभिषेक बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस की मशीनरी उतनी ही मजबूत और संगठित है, जितनी बीजेपी की. भारी सत्ता विरोधी माहौल के बावजूद ममता आज भी बंगाल के अधिकांश जिलों पर अपना नियंत्रण बनाए हुए हैं. बीजेपी के लिए बंगाल जीतना अब भी बिहार जीतने से कहीं अधिक मुश्किल चुनौती है. बिहार में तो बीजेपी को नीतीश कुमार की लोकप्रियता का सहारा मिलता है.

इस जटिल लोकतंत्र में, जहां करोड़ों लोगों के सपने और उम्मीदें जुड़ी होती हैं, पश्चिम बंगाल में आने वाला चुनावी अभियान यह साफ कर देगा कि क्या वाकई पुरानी नाराजगी और बीती यादों की राख से कोई नई शुरुआत जन्म ले सकती है. किसी समुदाय का दिल उसके गुस्से और भविष्य की उम्मीदों से भी चल सकता है और इसी में पश्चिम बंगाल की चुनावी राजनीति का असली सार छिपा है.

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