नई दिल्ली:
उच्चतम न्यायालय ने बुधवार को गुजरात के राज्यपाल कमला बेनीवाल द्वारा लोकायुक्त के पद पर न्यायमूर्ति आरए मेहता की नियुक्ति को सही ठहराते हुए कहा कि यह पद नौ साल से रिक्त था और इससे राज्य की स्थिति का पता चलता है।
शीर्ष अदालत ने इसके साथ ही यह भी कहा कि राज्य सरकार से परामर्श के बगैर ही इस पद पर नियुक्ति के संबंध में राज्यपाल ने ‘अपनी भूमिका का गलत आकलन’ किया।
लोकायुक्त पद पर मेहता की नियुक्ति को लेकर मोदी और राज्यपाल के बीच तीखे मतभेद के कारण राज्य में सांवैधानिक संकट पैदा हो गया था। मोदी सरकार ने उच्च न्यायालय में इसे चुनौती देते हुए कहा था कि मंत्रिपरिषद की सलाह के बगैर राज्यपाल लोकायुक्त नियुक्त नहीं कर सकते हैं।
राज्यपाल का दावा था कि उनका निर्णय गुजरात उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के साथ परामर्श पर आधारित है।
न्यायमूर्ति बीएस चौहान और न्यायमूर्ति एफएम इब्राहिम कलीफुल्ला की खंडपीठ ने राज्य मंत्रिपरिषद की सलाह के बगैर न्यायमूर्ति मेहता की नियुक्ति को गैरकानूनी बताने वाली गुजरात सरकार की याचिका खारिज कर दी। न्यायालय ने नौ साल से भी अधिक समय तक लोकायुक्त का पद रिक्त रहने पर भी अप्रसन्नता व्यक्त की।
न्यायाधीशों ने कहा, ‘‘इस मामले के तथ्यों से गुजरात राज्य की चिंताजनक स्थिति का पता चलता है जहां लोकायुक्त का पद नौ साल से भी अधिक समय से रिक्त था।’’
न्यायालय ने साथ ही कहा कि राज्यपाल लोकायुक्त की नियुक्ति सिर्फ मंत्रिपरिषद की सलाह से ही कर सकते हैं लेकिन न्यायालय ने न्यायमूर्ति मेहता की नियुक्ति निरस्त करने से इनकार करते हुए कहा कि मुख्यमंत्री को इसकी पूरी जानकारी थी और उन्हें उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा भेजे गए सभी पत्र मिले थे।
शीर्ष अदालत ने कहा कि ऐसे मामलों में उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की राय को प्रमुखता देनी होगी।
न्यायाधीशों ने कहा, ‘‘वर्तमान राज्यपाल ने अपनी भूमिका का गलत आकलन किया और उनकी दलील थी कि कानून के तहत लोकायुक्त की नियुक्ति के मामले में मंत्रिपरिषद की कोई भूमिका नहीं है और इसलिए वह गुजरात उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और विपक्ष के नेता से परामर्श करके नियुक्ति कर सकती हैं। इस तरह का रवैया हमारे संविधान में परिकल्पित लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुरूप नही है।’’
न्यायाधीशों ने कहा, ‘‘राज्यपाल ने कानूनी राय के लिए अटार्नी जनरल से परामर्श किया और मंत्रिपरिषद को विश्वास में लिए बगैर ही उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से सीधे पत्राचार किया। इस संबंध में उन्हें यह गलत सलाह दी गई थी कि वह राज्य के मुखिया के रूप में नहीं बल्कि सांविधिक प्राधिकारी के रूप में काम कर सकती हैं।’’
न्यायाधीशों ने कहा कि इस मामले में तथ्यों से स्पष्ट है कि परामर्श की प्रक्रिया पूरी हो गई थी क्योंकि मुख्यमंत्री को मुख्य न्यायाधीश के सारे पत्र मिल गए थे और ऐसी स्थिति में नियुक्ति को गैरकानूनी नहीं कहा जा सकता है।
शीर्ष अदालत ने कहा कि मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की आपत्तियों पर मुख्य न्यायाधीश ने गौर किया था और ऐसी स्थिति में नियुक्ति निरस्त करने की कोई आवश्यकता नहीं है।
राज्यपाल कमला बेनीवाल ने पिछले आठ साल से लोकायुक्त के रिक्त पद पर 25 अगस्त, 2011 को न्यायमूर्ति मेहता को राज्य का लोकायुक्त नियुक्त किया था।
न्यायालय ने नौ साल से भी अधिक समय से लोकायुक्त का पद रिक्त रहने पर अप्रसन्नता व्यक्त की और कहा कि इस मामले के तथ्य राज्य की चिंताजनक तस्वीर पेश करते हैं जहां लोकायुक्त का पद नौ साल से भी अधिक समय से रिक्त है।
न्यायालय ने मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ उच्च न्यायालय की सख्ती टिप्पणियों पर भी आपत्ति की और कहा कि उनकी राय है कि यदि न्यायाधीश मुख्यमंत्री के रवैये को सही नहीं मानते थे तो भी उन्हें संयम बनाये रखना चाहिए था और सांविधानिक प्राधिकारी के खिलाफ इतनी कठोर भाषा का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए।
न्यायमूर्ति मेहता की नियुक्ति की वैधता के सवाल पर उच्च न्यायालय के दो न्यायाधीशों में इस मामले में मतभेद होने के कारण तीसरे न्यायाधीश न्यायमूर्ति वी एम सहाय ने अपना फैसला सुनाया था। इस निर्णय में न्यायमूर्ति सहाय ने राज्य में सांविधानिक संकट पैदा करने के लिए मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की आलोचना करते हुए कहा था कि राज्यपाल को अपने विवेक से नियुक्ति करने का अधिकार है।
शीर्ष अदालत ने इसके साथ ही यह भी कहा कि राज्य सरकार से परामर्श के बगैर ही इस पद पर नियुक्ति के संबंध में राज्यपाल ने ‘अपनी भूमिका का गलत आकलन’ किया।
लोकायुक्त पद पर मेहता की नियुक्ति को लेकर मोदी और राज्यपाल के बीच तीखे मतभेद के कारण राज्य में सांवैधानिक संकट पैदा हो गया था। मोदी सरकार ने उच्च न्यायालय में इसे चुनौती देते हुए कहा था कि मंत्रिपरिषद की सलाह के बगैर राज्यपाल लोकायुक्त नियुक्त नहीं कर सकते हैं।
राज्यपाल का दावा था कि उनका निर्णय गुजरात उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के साथ परामर्श पर आधारित है।
न्यायमूर्ति बीएस चौहान और न्यायमूर्ति एफएम इब्राहिम कलीफुल्ला की खंडपीठ ने राज्य मंत्रिपरिषद की सलाह के बगैर न्यायमूर्ति मेहता की नियुक्ति को गैरकानूनी बताने वाली गुजरात सरकार की याचिका खारिज कर दी। न्यायालय ने नौ साल से भी अधिक समय तक लोकायुक्त का पद रिक्त रहने पर भी अप्रसन्नता व्यक्त की।
न्यायाधीशों ने कहा, ‘‘इस मामले के तथ्यों से गुजरात राज्य की चिंताजनक स्थिति का पता चलता है जहां लोकायुक्त का पद नौ साल से भी अधिक समय से रिक्त था।’’
न्यायालय ने साथ ही कहा कि राज्यपाल लोकायुक्त की नियुक्ति सिर्फ मंत्रिपरिषद की सलाह से ही कर सकते हैं लेकिन न्यायालय ने न्यायमूर्ति मेहता की नियुक्ति निरस्त करने से इनकार करते हुए कहा कि मुख्यमंत्री को इसकी पूरी जानकारी थी और उन्हें उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा भेजे गए सभी पत्र मिले थे।
शीर्ष अदालत ने कहा कि ऐसे मामलों में उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की राय को प्रमुखता देनी होगी।
न्यायाधीशों ने कहा, ‘‘वर्तमान राज्यपाल ने अपनी भूमिका का गलत आकलन किया और उनकी दलील थी कि कानून के तहत लोकायुक्त की नियुक्ति के मामले में मंत्रिपरिषद की कोई भूमिका नहीं है और इसलिए वह गुजरात उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और विपक्ष के नेता से परामर्श करके नियुक्ति कर सकती हैं। इस तरह का रवैया हमारे संविधान में परिकल्पित लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुरूप नही है।’’
न्यायाधीशों ने कहा, ‘‘राज्यपाल ने कानूनी राय के लिए अटार्नी जनरल से परामर्श किया और मंत्रिपरिषद को विश्वास में लिए बगैर ही उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से सीधे पत्राचार किया। इस संबंध में उन्हें यह गलत सलाह दी गई थी कि वह राज्य के मुखिया के रूप में नहीं बल्कि सांविधिक प्राधिकारी के रूप में काम कर सकती हैं।’’
न्यायाधीशों ने कहा कि इस मामले में तथ्यों से स्पष्ट है कि परामर्श की प्रक्रिया पूरी हो गई थी क्योंकि मुख्यमंत्री को मुख्य न्यायाधीश के सारे पत्र मिल गए थे और ऐसी स्थिति में नियुक्ति को गैरकानूनी नहीं कहा जा सकता है।
शीर्ष अदालत ने कहा कि मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की आपत्तियों पर मुख्य न्यायाधीश ने गौर किया था और ऐसी स्थिति में नियुक्ति निरस्त करने की कोई आवश्यकता नहीं है।
राज्यपाल कमला बेनीवाल ने पिछले आठ साल से लोकायुक्त के रिक्त पद पर 25 अगस्त, 2011 को न्यायमूर्ति मेहता को राज्य का लोकायुक्त नियुक्त किया था।
न्यायालय ने नौ साल से भी अधिक समय से लोकायुक्त का पद रिक्त रहने पर अप्रसन्नता व्यक्त की और कहा कि इस मामले के तथ्य राज्य की चिंताजनक तस्वीर पेश करते हैं जहां लोकायुक्त का पद नौ साल से भी अधिक समय से रिक्त है।
न्यायालय ने मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ उच्च न्यायालय की सख्ती टिप्पणियों पर भी आपत्ति की और कहा कि उनकी राय है कि यदि न्यायाधीश मुख्यमंत्री के रवैये को सही नहीं मानते थे तो भी उन्हें संयम बनाये रखना चाहिए था और सांविधानिक प्राधिकारी के खिलाफ इतनी कठोर भाषा का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए।
न्यायमूर्ति मेहता की नियुक्ति की वैधता के सवाल पर उच्च न्यायालय के दो न्यायाधीशों में इस मामले में मतभेद होने के कारण तीसरे न्यायाधीश न्यायमूर्ति वी एम सहाय ने अपना फैसला सुनाया था। इस निर्णय में न्यायमूर्ति सहाय ने राज्य में सांविधानिक संकट पैदा करने के लिए मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की आलोचना करते हुए कहा था कि राज्यपाल को अपने विवेक से नियुक्ति करने का अधिकार है।
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