Lok Sabha Election 2024: विजयलक्ष्मी पंडित, हेमवती नंदन बहुगुणा, शीला कौल, अटल बिहार वाजपेयी, लालजी टंडन और राजनाथ सिंह (Atal Bihar Vajpayee, Lalji Tandon, Rajnath Singh)...ये सभी नाम देश की कई पीढ़ियों को प्रभावित करते रहे हैं,लेकिन क्या आप जानते हैं इन सभी नामों में एक चीज कॉमन है और वो है अदब और नफासत का शहर लखनऊ...ये सभी वो शख्स हैं जिन्होंने अलग-अलग दौर में देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ का प्रतिनिधित्व देश की संसद में किया है. इन नामों की वजह से आप भी इस सीट की अहमियत समझ सकते हैं. लोकसभा चुनाव में मतदान से पहले NDTV की विशेष सीरीज Know Your Constituency में आज बात इसी लखनऊ सीट (Lucknow Lok Sabha Seat 2024) की.जिस पर तीन दशक से बीजेपी का कब्जा है.
यहां की गलियों में आप घूम आइए तो लोग इसे आपको अटल जी की सीट बताते मिल जाएंगे...लेकिन 2024 में होने वाले चुनाव में थोड़ा ट्वीस्ट है.बीजेपी ने यहां से लगातार तीसरी बार राजनाथ सिंह को मैदान में उतारा है तो INDIA गठबंधन ने रविदास मेहरोत्रा (Ravidas Mehrotra) को अपना संयुक्त उम्मीदवार बनाया है. ये पहला मौका होगा जब बीजेपी के खिलाफ विपक्ष ने इस सीट पर अपना संयुक्त उम्मीदवार उतारा है. हम इस सीट के पूरे सियासी इतिहास को समझेंगे लेकिन पहले ये जान लेते हैं कि खुद लखनऊ का इतिहास क्या है?
लखनऊ बेहद प्राचीन शहर है.इतना कि इसका जिक्र हिंदू महाकाव्य रामायण में भी मिलता है. ऐसा माना जाता है कि इसकी स्थापना भगवान राम के भाई लक्ष्मण ने की थी. बाद में मौर्य काल में भी ये शहर फला-फूला.इस शहर ने मौर्य के अलावा गुप्त और मुगल बादशाहों का उत्थान और पतन भी देखा है. 16वीं सदी में ये शहर मुगल साम्राज्य के अधीन आ गया था. इतिहास में उल्लेख मिलता है कि आधुनिक लखनऊ शहर की स्थापना 1775 में नवाब आसफउद्दौला ने की. उस वक्त इसका नाम अवध हुआ करता था.सन 1850 में लखनऊ के अंतिम मशहूर नवाब वाजिद अली शाह (Nawab Wajid Ali Shah) थे.इसके बाद ही अवध पर ब्रिटिश साम्राज्य का शासन शुरू हुआ जो 1947 तक जारी रहा. हालांकि नवाब आसफ-उद-दौला और वाजिद अली शाह तक के दौर में इस शहर की वास्तुकला, भोजन और परिवेश पूरी दुनिया में मशहूर हो गई थी.यहां के नवाबों ने कई ऐसी भव्य इमारतें बनाईं जो अब भी पर्यटकों के अपनी ओर खिंचता है.मशहूर मुहावरा 'पहले आप-पहले आप में गाड़ी निकल जायेगी' भी लखनऊ के नवाबों से ही जुड़ी हुई है.
अब नवाबों के इस शहर का सियासी इतिहास जानने से पहले यहां की डेमोग्राफी को भी समझ लेते हैं. इस लोकसभा क्षेत्र में 5 विधानसभा सीटें आती हैं. जो हैं- लखनऊ पश्चिम, लखनऊ उत्तरी, लखनऊ पूर्वी, लखनऊ मध्य और लखनऊ कैंट. 2019 में हुए चुनाव के मुताबिक यहां कुल 19.37 लाख वोटर हैं जिसमें पुरुष मतदाता 11 लाख और महिला मतदाताओं की संख्या 9 लाख से अधिक है. लखनऊ के जातीय समीकरणों की बात करें तो यहां करीब 71 फीसदी आबादी हिंदू है. इसमें से भी 18 फीसदी आबादी राजपूत और ब्राह्मण है. यहां ओबीसी समुदाय की आबादी 28 फीसदी और मुस्लिम वोटरों की तादाद 18 फीसदी है. साल 2022 में हुए चुनाव में पांच विधानसभा सीटों में से 3 पर बीजेपी को जीत मिली थी.
अब बात यहां के सियासी समीकरण की.लखनऊ ने 1952 में हुए पहले चुनाव में देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की बहन विजय लक्ष्मी पंडित को अपना सांसद चुना था. इसके बाद 1962 तक यहां से कांग्रेस के उम्मीदवार ही जीत कर संसद पहुंचते रहे. 1967 में उर्दू के मशहूर कवि आनंद नारायण मुल्ला ने यहां स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर जीत दर्ज की. हालांकि 1971 में शीला कौल ने फिर से इस सीट पर कांग्रेस का परचम लहरा दिया. शीला कौल के बाद इस सीट का प्रतिनिधित्व जनता पार्टी के बड़े नेता और यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री हेमवंती नंदन बहुगुणा (Hemwanti Nandan Bahuguna) ने किया. इस सीट पर अब तक 18 बार आम चुनाव हुए हैं जिसमें से 7 बार कांग्रेस और 8 बार बीजेपी ने जीत दर्ज की है. यहां सबसे लंबे समय तक यानी 5 बार पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने जीत दर्ज की है. वे 1991 से लेकर 2004 तक यहां से सांसद रहे हैं. अटल जी के समय से ही ये सीट बीजेपी का गढ़ बन गई.
हालांकि पार्टी ने तब कोई रिस्क नहीं लिया और उन्हें मथुरा और बलरामपुर से भी खड़ा कर दिया. जब नतीजे आए तो लखनऊ सीट पर अटल जी दूसरे स्थान पर रहे.देश के मौजूदा रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने इस सीट पर पहली बार 2014 में किस्मत आजमाया और बड़े अंतर से जीत दर्ज की. दूसरी बार 2019 में भी उन्होंने यहां 3 लाख, 47 हजार से अधिक मतों से जीत दर्ज की है. हालांकि इस बार उनके सामने INDIA गठबंधन ने समाजवादी पार्टी के कद्दावर नेता रविदास मेहरोत्रा को उतारा है. रविदास साल 2022 में मोदी-योगी लहर के बावजूद लखनऊ मध्य सीट से विधानसभा चुनाव में जीत दर्ज की थी. वे साल 2012 से इस सीट पर जीतते रहे हैं. हालांकि 2017 में प्रदेश में कैबिनेट मंत्री होने के बावजूद वे यहां से हार गए थे. अब उन्हें पार्टी ने राजनाथ सिंह की हैट्रिक तोड़ने का मिशन दिया है. ये सीट कांग्रेस के लिए भी दुखती रग रही है. यहां आखिरी बार 1984 में उसने जीत दर्ज की थी.जिसके बाद उसने यहां से डॉ करण सिंह, रीता बहुगुणा जोशी और प्रमोद कृष्णन जैसे उम्मीदवार उतारे लेकिन सभी यहां भगवा लहर को रोकने को विफल रहे. सवाल ये है कि क्या इस बार INDIA गठबंधन की संयुक्त ताकत राजनाथ का विजय रथ रोक सकेगी.
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