लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन को आपेक्षित सफलता नहीं मिली है. इन दलों की 80 सीटों पर जातिगत गोलबंदी की कोशिश सफल नहीं हो सकी. जातियों में बंटी इन दोनों पार्टियों का हर समीकरण धरातल पर नाकाम साबित हुआ. इस तरह सपा-बसपा गठबन्धन के जातीय समीकरण के मिथक ध्वस्त हो गए. दोनों दल राज्य में हो रहे परिवर्तन को समझने में नाकाम रहे. वे लोगों तक अपनी बात को जनता तक पहुंचाने में कामयाब नहीं हो सके. दलित, पिछड़ा और मुस्लिम वोटों की फिराक में हुए इस गठबन्धन के सारे गणित ध्वस्त हो गए. गठबन्धन में कांग्रेस को शामिल न करना भी कुछ हदतक नुकसानदायक गया है. कांग्रेस के उतारे प्रत्याशी किसी-किसी सीट पर सपा बसपा पर भारी पड़ते दिखे. वह इनके लिए सचमुच वोटकटवा साबित हुए हैं. लेकिन बीजेपी के लिए उत्तर प्रदेश में लड़ाई बिलकुल आसान नहीं थी. गोरखपुर-फूलपुर और कैराना में हुए उपचुनाव के बाद उत्तर प्रदेश में बीजेपी के पक्ष में माहौल बिलकुल नहीं था. सपा-बसपा और आरएएलडी के वोटों का गणित पार्टी पर पूरी तरह से भारी था और सभी चुनावी विशेषज्ञ अंदाजा लगा रहे थे कि बीजेपी को 15 से 20 सीटों से ज्यादा बेहद मुश्किल है. अंकगणित में बीजेपी पूरी तरह से कमजोर थी और बीजेपी के नेता भी एक तरह से हार मान बैठे थे. लेकिन इस समय बीजेपी के लिए जीत की गारंटी बन चुके बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने बिलकुल हार मानी और उन्होंने एक बार फिर उसी फॉर्मूले पर काम करना शुरू कर दिया जिसका इस्तेमाल साल 2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनाव में किया गया था. यह फॉर्मूला था 60-40 का. उत्तर प्रदेश में यादव, मुस्लिम और जाटव को मिलाकर 40 प्रतिशत वोटर हैं. इसके अलावा बाकी बची जातियों (इसमें सवर्ण भी शामिल) को मिला दें तो 60 फीसदी होती है. बीजेपी को इन 60 फीसदी वोटरों पर फोकस करना था इसके साथ ही सभी को ज्यादा से ज्यादा पोलिंग बूथ तक पहुंचाना था.
लेकिन बीजेपी के सामने बड़ी चुनौती थी कि उसके कोर वोटरों में शामिल सवर्ण इस बार एससी/एसटी संशोधन एक्ट से नाराज थे और अमित शाह को इस बात का अंदाजा हो गया था. सवर्णों को गुस्से को कम करने के लिए मोदी सरकार ने 10 फीसदी आरक्षण आर्थिक आधार पर लागू करने का ऐलान कर दिया. इसके बाद राम जन्मभूमि आंदोलन से जुड़े संतों और आरएसएस के कार्यकर्ताओं को सवर्णों को समझाने का जिम्मा दिया गया. गैर जाटव जातियां जिनकी संख्या प्रतिशत में तो काफी कम है लेकिन लगभग हर सीट पर वह ठीक ठाक प्रभाव रखते है, के कई छोटे-छोटे सम्मेलन कराए गए. इन सबका प्रभाव यह रहा कि सवर्णों के साथ-साथ ये जातियां भी बीजेपी के पाले में एक बार फिर आ गईं.
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इसके बाद पीएम किसान योजना ने भी बड़ा काम दिखाया और इस योजना के ज्यादा लाभार्थी इन्हीं जातियों के हैं. हालांकि गांवों में जो लोग खेती से जुड़े हैं वह छुट्टा घूम रहे आवारा पशुओं से काफी नाराज थे उनकी शिकायत थी कि यह जानवर उनकी फसलों का नुकसान कर रहे हैं. लेकिन ऐसा लगता है कि खाते में पीएम किसान निधि की राशि 2 हजार पहुंचते ही उनकी यह शिकायत दूर होती चली गई. इसके बाद पीएम मोदी इन जातियों को संबोधित करते हुए हमेशा बराबरी की बात करते थे. इसमें राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दे ने भी काफी असर किया और ऑपरेशन बालाकोट ने भी असर दिखाया.
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इसके अलावा मोदी सरकार ने उन लाभार्थियों से भी सीधे बात करनी शुरू जिनको बीते पांच सालों में घर, शौचालय, गैस सिलेंडर और बिजली की सुविधा मिली है. इसके अलावा आयुष्मान भारत योजना का भी जोर-शोर से प्रचार किया गया. इनमें से कुछ योजनाओं को उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के पहले से ही विशेष निगरानी में लागू करवाना शुरू कर दिया गया था. जिसकी देखरेख प्रधानमंत्री कार्यालय सीएम योगी आदित्यनाथ सरकार के जरिए कर रहा था. इन योजनाओं को लागू करवाने के लिए बीजेपी की अपनी मशीनरी ने भी जमकर काम किया और कार्यकर्ताओं ने इसके लाभार्थियों से सीधे संपर्क किया. बीजेपी अपने 60 फीसदी वाले वोटरों में यह मैसेज देने में कामयाब हो गई कि पीएम मोदी एक मात्र ऐसे नेता हैं जो उनका भला कर सकते हैं.
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इसके अलावा बीजेपी के रणनीतिकारों ने उत्तर प्रदेश में 25 से ज्यादा रैलियों का प्लान बनाया. कुल मिलाकर बीजेपी ने पीएम मोदी के चेहरे, अपने कॉडर, सरकारी योजना का बेहतर प्रबंधन, राष्ट्रवाद के दम पर सभी समीकरणों को ध्वस्त करते हुए बीजेपी ने 62 सीटें जीतने में कामयाब हो गई.
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