गुजरात में दलितों के अस्मिता मार्च में शामिल होने वाले लोगों की संख्या रविवार शाम तक सैकडों में ही थी. इस मार्च के रास्ते में रुकावटें भी कम नहीं रही. दबंगों के डर से रविवार को पुलिस अस्मिता मार्च का रास्ता बदलती रही. रविवार देर रात तक दलितों को डराने-धमकाने और उन पर हमलों की ख़बरें भी आती रहीं.
इस मार्च के आयोजक और अग्रणी नेता जिग्नेश मेवाणी दलितों का एक नया चेहरा बन कर उभरे हैं. उनके पास कोई गाड़ी या बड़ा घर नहीं है, लेकिन वह कहते हैं कि अब दलितों को और दबाकर नहीं रखा जा सकता. आंदोलनकारी दलितों का नारा है - 'गाय की दुम आप रखो, हमें हमारी ज़मीन दो'. रविवार को उना से कोई तीस किलोमीटर दूर मार्च के दौरान हमारे सहयोगी हृदयेश जोशी ने जिग्नेश मेवाणी से बात की.
हृदयेश - जिग्नेश मैं यह जानता हूं कि गुजरात के ऊना में दलितों की पिटाई का वीडियो सोशल मीडिया में आने के बाद ये सब ट्रिगर हुआ, लेकिन आपकी यात्रा का मुख्य उद्देश्य क्या है और आप क्या संदेश देना चाहते हैं?
जिग्नेश मेवाणी - सरकार के सामने 31 जुलाई के महासम्मेलन में हमने 10 डिमांड रखी, जिसमें अहम डिमांड थी कि पूरे गुजरात में लैंड रिफॉर्म (जमीन सुधार) हों. हमें गाय की दुम नहीं चाहिए...
हृदयेश - ज़मीन चाहिए?
जिग्नेश - जी ज़मीन चाहिए...जिसको गाय की दुम रखनी हो, वह रखे अपने पास. हमें मुक्ति चाहिये उन गंदे कामों से जो जाति व्यवस्था ने हमारे ऊपर थोपे हैं. उस महासम्मेलन में ऐतिहासिक घटना हुई जहां 20 हज़ार दलितों ने एक साथ प्रतिज्ञा ली बाबा साहेब अंबेडकर के नाम पर कि हम ये मैले-गंदे काम नहीं करेंगे. सरकार हर एक दलित परिवार को 5 एकड़ जमीन दे. तो पूरे देश में हम ये नारा ले जाना चाहते हैं कि 'गाय की दुम आप रखो हमें हमारी ज़मीन दो'.
हृदयेश - क्या देश के बाकी हिस्सों की तरह गुजरात का इतिहास ऐसा रहा है कि दलितों का उत्पीड़न होता रहा? अब अचानक ऐसा क्या हो गया कि दलित अचानक खड़े हो गए अपने अधिकारों को लेकर?
जिग्नेश - हमें आरटीआई से जो आंकड़े मिले हैं, उनमें गुजरात मॉडल के जब नारे लगने शुरू हुए और गुजरात को वाइब्रेंट कहा गया है, उस फेज में 14 हजार अत्याचार की घटनाएं हुईं. 119 गांवों में दलित पुलिस प्रोटेक्शन में जी रहे हैं. 55 गांवों में से दलितों को मार-मार कर खदेड़ दिया गया है. 24 महिलाओं के साथ 2004 में बलात्कार हुआ, जो नंबर 2014 में 74 तक पहुंच गया है.
हृदयेश - तो अभी क्या हो गया कि दलित जो अब तक सह रहे थे, वो अचानक खड़े हो गए?
जिग्नेश - कहीं न कहीं वो ट्रिगर होने ही वाला था. जो सेंस ऑफ डिजाइन ऑफ जस्टिस जो इकट्ठा हो रहा था. उसके ऊपर भी रेट ऑफ कन्विक्शन केवल 3 प्रतिशत है. न्यायालय में यहां 97 प्रतिशत लोग छूट जा रहे हैं. जो हताशा जमी हुई थी वह कहीं न कहीं ट्रिगर होने वाली थी. जिस तरह से दलितों की पिटाई के वीडियो सर्कुलेट हुए व्हाट्सएप और फेसबुक के ज़रिये उसने काफी अहम रोल अदा किया, लेकिन सबसे बड़ा मुद्दा है कि बड़े सालों की हताशा बाहर निकल रही है.
हृदयेश - मैं ये पूछना चाहता हूं कि ये जो नारे यहां सुनाई दे रहे हैं, उन नारों का भी एक अर्थ निकाला जाता है. आज सवेरे आप खुद अपने समर्थकों से कह रहे थे कि वो कोई ऐसा नारा न लगाएं, जो भड़काने वाला हो, लेकिन ये आजादी का जो नारा है, कई लोग जो राष्ट्रवादी सोच के हैं उन्हें लगता है कि ये नारे देश की अखंडता के साथ समझौता है? क्या आपको नहीं लगता कि इन नारों में संयम होना चाहिए?
जिग्नेश - तो इन नारों में तो संयम है ही. हम तो ऐसा ही कह रहे हैं कि हमें जातिवाद से आज़ादी चाहिये. हमें कौमवाद से आज़ादी चाहिये. हमें शोषण और अत्याचार से आज़ादी चाहिये. हम जिससे पक चुके थक चुके, उस गुजरात मॉडल से आज़ादी चाहिये, हमें अच्छे दिन के नारों से आज़ादी चाहिये.
हृदयेश - कई लोग कह रहे हैं कि जिग्नेश मेवाणी की राजनीतिक इच्छायें जाग गयी हैं, इसलिये वो ये सब कर रहे हैं.
जिग्नेश - हमारे साथ तो सर्वोदयी भी हैं. हमारे साथ कम्युनिस्ट भी हैं. हमारे साथ एनजीओ के साथी भी हैं. हमारे साथ तो ट्रेड यूनियन के लोग भी हैं. सभी धाराओं के लोग हैं, तो हमारी राजनीति ये है कि जो जातिगत सामाजिक आर्थिक ढांचा जिसका आधार ज़मीन है, उसको मिटाना और ज़मीन सुधार पूरे देश में हो वही सबसे बड़ी राजनीति है।
हृदयेश - आप यही कह रहे हैं कि गुजरात की ज़मीन पर क़ब्ज़ा पावरफुल और ताकतवार लोगों का है और उसे वहां से लेकर दलितों को जिनका सबसे अधिक शोषण हुआ है उनको दिया जाये.
जिग्नेश - बिल्कुल इतने सालों बाद हम एक ज़मीन का टुकड़ा ही मांग रहे हैं. देश की जनता यही चाहती है कि मैले गंदे कामों में से मुक्ति मिले, हम मल न उठायें, हम गटर में न उतरें, हम पशुओं की खाल उतारने का काम न करें. मैला न ढोयें इन गंदे कामों से मुक्ति हो हमें ज़मीन का आवंटन हो, हम तो वही कह रहे हैं कि रेव्यन्यू लॉ में जो प्रोविज़न है उसी के हिसाब से ज़मीन का आवंटन हो, अगर कॉरपोरेट को ज़मीन का आवंटन हो रहा है तो हमें क्यों नहीं?
हृदयेश - आखिर में एक सवाल ये पूछ रहा हूं कि इतनी जगह मैंने देखा कि गायें जगह-जगह पड़ी हुई सड़ रही हैं, उन्हें कोई उठा नहीं रहा है, उससे बीमारियां फैलने का खतरा है, तो आपको ये लगता है कि ये भी दलितों की एक जीत है कि वो उच्च जाति के लोगों से कह रहे हैं कि देखो ये काम कोई छोटा काम नहीं था, ये एक बड़ा महत्वपूर्ण काम था जो हम करते रहे.
जिग्नेश - बिल्कुल अभी स्टेट को ये पता चला है कि समाज का ये वर्ग कितना महत्वपूर्ण काम करता आ रहा है. लेकिन अगर अभी गायें मर रही हैं और उनके शव पड़े हैं तो हम उसके बारे में कोई चिंता नहीं है. हमें तो यही नारा देना है कि गाय की दुम आप रखो.. खेलो जितना उसके साथ खेलना है. हमें तो केवल ज़मीन चाहिये. हमें तो दलितों को इस गंदे काम से बाहर निकालना है.
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