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प्रतापगढ़ के राम कृपालु त्रिपाठी कैसे बने कृपालु महाराज, वृंदावन बनी कर्मभूमि, 100 करोड़ से बनवाया प्रेम मंदिर

Kripalu ji Maharaj: जगद्गुरु कृपालु जी महाराज ने अपना पूरा जीवन राधा कृष्ण की भक्ति में समर्पित कर दिया. प्रतापगढ़ उनकी जन्मभूमि रही, लेकिन मथुरा वृंदावन उनकी कर्मभूमि बनी. यहां उन्होंने प्रेम मंदिर समेत कई बड़े मंदिरों का निर्माण कराया.

प्रतापगढ़ के राम कृपालु त्रिपाठी कैसे बने कृपालु महाराज, वृंदावन बनी कर्मभूमि, 100 करोड़ से बनवाया प्रेम मंदिर
Kripalu ji Maharaj
  • जगद्गुरु कृपालु महाराज का जन्म 5 अक्टूबर 1922 को उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले के मनगढ़ में हुआ था
  • उन्होंने युवावस्था में वेद, उपनिषद, पुराण समेत अनेक धार्मिक ग्रंथों को कंठस्थ किया था
  • कृपालु महाराज को 1957 में काशी विद्वत परिषद ने जगद्गुरु की उपाधि प्रदान की थी
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नई दिल्ली:

Kripalu ji Maharaj Biography: जगद्गुरु कृपालु महाराज भले ही आज हमारे बीच न हों, लेकिन धर्म-आध्यात्म की दुनिया में उनका नाम हमेशा ही आदर के साथ लिया जाता रहेगा. कृपालु महाराज श्री राधा और कृष्ण के अनन्य भक्त थे. देश के साथ विदेश में भी उनके लाखों की संख्या में अनुयायी थे. आइए, उनकी धार्मिक यात्रा के बारे में जानें. कृपालु महाराज का असली नाम राम कृपालु त्रिपाठी था. शरद पूर्णिमा के दिन 5 अक्टूबर 1922 को यूपी के प्रतापगढ़ जिले के मनगढ़ में उनका जन्म हुआ था. उन्होंने विवाह किया और उनकी पांच संतानें भी हुईं, लेकिन उनकी धार्मिक यात्रा अनवरत जारी रही.

पारिवारिक जीवन के साथ आध्यात्मिक यात्रा
कृपालु महाराज के पिता का नाम ललिता प्रसाद और मां का नाम भगवती देवी थी.कृपालु जी ने कक्षा 7 तक की परीक्षा पास के ही स्कूल से ग्रहण की और फिर उच्च शिक्षा के लिए मध्य प्रदेश चले गए. महज 14 साल की आयु में उन्हें आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त हुआ. युवावस्था में ही उन्होंने वेद-उपनिषद, पुराण, गीता, वेदांत सूत्र समेत धार्मिक ग्रंथों को कंठस्थ कर लिया. उनकी स्मृति इतनी तेज थी कि धर्मग्रंथों के संस्कृत श्लोक उन्हें बखूबी याद थे.लेकिन परिवार के कहने पर उन्होंने गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया. उनके 5 बेटे और बेटी थीं. इनमें बेटों के नाम बालकृष्ण और घनश्याम थे. जबकि विशाखा, कृष्णा और श्यामा नाम की पुत्रियां हुईं.  पारिवारिक जीवन में भी उनका धार्मिक झुकाव बना रहा. वो राधा कृष्ण की भक्ति में रम गए. जिस सरलता से वो सत्संग और राधा कृष्ण के प्रसंग सुनाते थे, उससे उनकी लोकप्रियता देश से विदेश तक पहुंच गई. 

धर्म आध्यात्म की ओर झुकाव, जंगलों में साधना
कृपालु महाराज का कम आयु में धर्म आध्यात्म की ओर झुकाव पैदा हुआ.वो घने जंगलों में ध्यानमग्न हो जाते थे. भक्ति में भावविभोर होकर वो कई दिनों तक साधना में लीन रहते थे. शरभंग आश्रम के पास चित्रकूट के जंगलों और फिर वंशीवट के नजदीक वृंदावन में एकाग्रचित्त होकर तपस्या करते रहे. करीब 2 वर्षों तक वो जंगलों में इसी तरह विचरण करते रहे. फिर अपने अनुयायियों के अनुरोध पर एकांत वन छोड़कर उन्होंने प्रवचन-सत्संग और भजनों के जरिये दिव्य ज्ञान देना शुरू कर दिया. उनकी वाणी में इतना ओज और मधुरता था कि उनकी लोकप्रियता बढ़ती गई. 

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धार्मिक सम्मेलनों का आयोजन
कृपालु महाराज ने कई बड़े धार्मिक सम्मेलनों का आयोजन किया. चित्रकूट में 16 अक्टूबर से 30 अक्टूबर 1955 तक, कानपुर में 4 अक्टूबर से 19 अक्टूबर 1956 और प्रतापगढ़ में 7 अप्रैल से 13 अप्रैल 1956 तक विशाल धार्मिक सम्मेलन हुए. यहां प्रकांड विद्वान और संतों ने हिस्सा लिया. इन धार्मिक सम्मेलन में बु्द्धिजीवी और विद्वानों के बीच लंबे सत्संग में उनके दिव्य और अद्वितीय ज्ञान ने सबको आश्चर्यचकित कर दिया.  कृपालु महाराज की ओर से अक्टूबर माह में दशहरे पर सालाना साधना कार्यक्रम और आध्यात्मिक शिविरों का आयोजन किया जाने लगा.  चैतन्य महाप्रभु की तरह संकीर्तन की परंपरा को आगे बढ़ाया. उनका आकर्षक व्यक्तित्व और मर्मस्पर्शी वाणी श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देती थी. 

कृपालु महाराज को मिली जगद्गुरु की उपाधि
काशी विद्वत परिषद में 500 प्रकांड विद्वानों के बीच शास्त्रार्थ के बीच भी उन्होंने अपनी श्रेष्ठता सिद्ध की. उन्हें जगद्गुरु में सर्वोत्तम घोषित किया गया.काशी विद्वत परिषद ने 14 जनवरी 1957 को मकर संक्रांति के पावन अवसर पर उन्हें जगद्गुरु की उपाधि थी. तब उनकी आयु महज 34 साल ही थी.उन्हें काशी विद्वत परिषद ने विश्व के पंचम मूल जगद्गुरु का सम्मान दिया था. जगद्गुरु शंकराचार्य, द्वैतवाद के प्रवर्तक निम्बार्काचार्य, विशिष्ट द्वैतवाद के प्रतिपादक रामानुजाचार्य, जगद्गुरु माध्वाचार्य के 750 साल बाद कृपालु महाराज को ये उपाधि दी गई. 

वृंदावन में प्रेम मंदिर का निर्माण
कृपालु महाराज ने वृंदावन में प्रेम मंदिर का निर्माण कराया. राधा कृष्ण के प्रेम के प्रतीक इस मंदिर निर्माण में 11 साल और लगभग 100 करोड़ रुपये खर्च आया. मंदिर निर्माण में इतालवी संगमरमर पत्थर का इस्तेमाल किया गया.यूपी और राजस्थान के 1100 से ज्यादा कारीगर और शिल्पकारों ने मिलकर इसका निर्माण किया. कृपालु जी महाराज ने प्रेम मंदिर की नींव 14 फरवरी 2001 को विशाल धार्मिक अनुष्ठान के बीच की. 11 साल बाद 17 फरवरी 2012 को मंदिर पूर्ण हुआ और 14 फरवरी को इसका उद्घाटन किया गया. रात के समय चांदनी रोशनी में इसे देखने हजारों की संख्या में लोग आते हैं.उन्होंने जगद्गुरु कृपालु परिषद (JKP) की नींव भी रखी थी.

बरसाना में कीर्ति मंदिर की स्थापना
महाराज जी ने मनगढ़ में भक्ति मंदिर, भक्ति धाम, वृंदावन में  प्रेम मंदिर और  बरसाना में  कीर्ति मंदिर की स्थापना की. कृपालु महाराज ने गरीबों के लिए अस्पतालों का निर्माण कराया. वृंदावन और बरसाना में जगद्गुरु कृपालु चिकित्सालय और प्रतापगढ़ में एक और हास्पिटल भी बनवाया. यहां गरीबों वंचितों के लिए इलाज किया जाता है. गरीब कन्याओं के लिए किंडरगार्टन, स्कूल और कॉलेज का कुंडा में निर्माण करवाया गया.

धर्म ग्रंथों की रचना की
उन्होंने अपने धर्मग्रंथ प्रेम रस मदिरा और ब्रजरस माधुरी में अपने काव्य को संकलित भी किया. उन्होंने मथुरा वृंदावन से लेकर विदेश में भी मंदिर निर्माण और सामाजिक कल्याणकारी संस्थाओं का निर्माण कराया. उन्होंने प्रेम रस मदिरा, प्रेम रस सिद्धांत, ब्रजरस माधुरी, राधा गोविन्द गीत, श्यामा-श्याम गीत, युगल रस और राधा गोविंद गीत जैसे धर्म ग्रंथों की रचना की.

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कृपालु महाराज का निधन
कृपालुजी महाराज प्रतापगढ़ के आश्रम  फिसल गए और उनके सिर में गंभीर चोट आई और वो कोमा में चले गए.उन्हें गुरुग्राम के एक हास्पिटल में भर्ती कराया गया, लेकिन उन्हें बचाया नहीं जा सका. कृपालु जी महाराज का 15 नवंबर 2013 को 91 साल की उम्र में निधन हो गया. 

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