- दीपावली के 11 दिन बाद इगास या बूढ़ी दिवाली पर्व मनाया जाता है, जो एक पारंपरिक लोक उत्सव है
- इगास पर्व कार्तिक माह के ग्यारहवें दिन आता है और इसे देवउठनी एकादशी भी कहा जाता है.
- पर्व के दिन भैला नामक मशाल जलाई जाती है और ढोल-नगाड़ों के साथ आग के चारों ओर लोक नृत्य होता है
Igas Bagwal kab hai: पूरे देश में दीपावली का पर्व 20 अक्टूबर और कुछ जगहों पर 21 अक्टूबर को मनाया गया. दिवाली हिंदुओं का सबसे बड़ा त्योहार होता है, लेकिन आपको यह जानकर हैरानी होगी कि उत्तराखंड राज्य में दीपावली का पर्व 20 अक्टूबर 21 अक्टूबर को तो मनाया ही गया, लेकिन दिवाली के ठीक 11 दिन बाद यानी 31 अक्टूबर को पहाड़ की दिवाली जिसे इगास या बूढ़ी दिवाली भी कहा जाता है. वो मनाया जाता है.
कुमाऊं में 11 दिन बाद दिवाली
उत्तराखंड में दिवाली के दिन को बग्वाल के रूप में मनाया जाता है. जबकि कुमाऊं में दिवाली से 11 दिन बाद इगास यानी बूढ़ी दीपावली के रूप में मनाया जाता है. इस पर्व के दिन सुबह मीठे पकवान बनाए जाते हैं. रात में स्थानीय देवी-देवताओं की पूजा अर्चना के बाद भैला एक प्रकार की मशाल जलाकर उसे घुमाया जाता है और ढोल-नगाड़ों के साथ आग के चारों ओर लोक नृत्य किया जाता है.
इगास का अर्थ एकादशी
इगास' का अर्थ 'एकादशी' भी है, जो कार्तिक माह के ग्यारहवें दिन मनाई जाती है. इगास को भगवान विष्णु के चार महीने के विश्राम काल के अंत का प्रतीक माना जाता है, जो नए कार्यों की शुरुआत के लिए शुभ समय होता है. इसी दिन से शुभ मांगलिक कार्य शादी ब्याह भी शुरू होंगे. इगास जिसे हरिबोधिनी एकादशी, बूढ़ी दिवाली या इगास बग्वाल भी कहते हैं.

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देवउठनी एकादशी कब है
उत्तराखंड में दिवाली के 11 दिन बाद कार्तिक शुक्ल एकादशी को मनाया जाने वाला ये पारंपरिक त्योहार है. इस दिन भगवान विष्णु चार महीने की योगनिद्रा से जागते हैं और इसलिए इसे देवउठनी एकादशी भी कहा जाता है. इस त्योहार में पारंपरिक पकवान बनाए जाते हैं और भैलो (आग की गेंद) खेलने जैसे कई आयोजन होते हैं.
श्रीराम के अयोध्या लौटने की खबर देरी से मिलने की मान्यता
उत्तराखंड के लोक पर्व इगास पर्व का सांस्कृतिक महत्व भी है इस पर्व में उत्तराखंड की लोक संस्कृति और गौरव का प्रतीक है. इसे 'विजयोत्सव' भी कहते हैं. इसके उत्पत्ति दो मुख्य कारण माने जाते हैं. प्राचीन मान्यता है कि उत्तराखंड के गढ़वाल में भगवान श्रीराम के अयोध्या लौटने की खबर देरी से पहुंची थी, उस समय संदेश भेजने के कोई संसाधन नहीं थे और ऊपरी पहाड़ी क्षेत्र इसलिए गढ़वालवासियों ने अपनी दिवाली 11 दिन बाद मनाई थी,
माधो सिंह भंडारी की कहानी
दूसरा कारण ऐतिहासिक घटना है कि 17वीं शताब्दी में जब सेनापति माधो सिंह भंडारी अपने सैनिकों के साथ तिब्बत युद्ध जीतकर 11 दिन बाद लौटे थे, तो उनकी खुशी में यह उत्सव मनाया गया था. तब लोगों ने गलत समझ लिया था कि तिब्बत युद्ध में उनके सैनिक शहीद हो गए हैं, इसलिए दिवाली नहीं मनाई गई थी, लेकिन जीत की खबर के बाद उन्होंने यह उत्सव मनाया.
भैलो खेलना इगास की परंपरा
यह इगास त्योहार की सबसे खास परंपरा है. इगास बग्वाल के दिन भैला खेलने का खास रिवाज है. यह चीड़ की लीसायुक्त लकड़ी से बनाया जाता है. यह लकड़ी बहुत ज्वलनशील होती है. इसे दली या छिल्ला कहा जाता है, जहां चीड़ के जंगल न हों वहां लोग देवदार, भीमल या हींसर की लकड़ी आदि से भी भैलो बनाते हैं. इन लकड़ियों के छोटे-छोटे टुकड़ों को एक साथ रस्सी अथवा जंगली बेलों से बांधा जाता है. फिर इसे जला कर घुमाते हैं। इसे ही भैला खेलना कहा जाता है.
इगास बग्वाल में गोवंश की पूजा
इगास बग्वाल पर्व में गोवंश की पूजा की जाती है और उनके लिए विशेष आहार तैयार किया जाता है. कुछ स्थानों पर रस्साकशी जैसे खेल भी आयोजित किए जाते हैं. घरों में पूड़ी, स्वाली, पकोड़ी और भूड़ा जैसे पकवान बनाए जाते हैं.
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