
- 20 अगस्त 1921 को केरल के मालाबार में मोपला विद्रोह शुरू हुआ, जो ब्रिटिश और जमींदारों के खिलाफ था.
- ये आंदोलन किसानों ने भारी टैक्स और शोषण के विरोध में शुरू किया, लेकिन ये सांप्रदायिक हिंसा में बदल गया.
- मोपला विद्रोह ने हिंदू-मुस्लिम संबंधों को खराब किया और बाद में भारत के विभाजन की मांग को बढ़ावा दिया.
पुलिस थानों पर हमले हुए, आग लगा दी गईं, छीनछोरी-लूटपाट, नफरत की आग, सांप्रदायिक हिंसा, मंदिरों पर हमले, नरसंहार... ये काला इतिहास है एक खिलाफत आंदोलन का, जो बाद में अपने मूल उद्देश्यों से ही भटक गया. ब्रिटिश और जमींदारों के खिलाफ शुरू हुआ ये आंदोलन, हिंदू-मुस्लिम नरसंहार में बदल गया. हजारों हिंदुओं की जानें गईं, महिलाओं की इज्जत तार-तार हुई. आज की ही तारीख थी. 20 अगस्त. पर साल अलग था. ये इतिहास है करीब 104 साल पहले का. 20 अगस्त 1921 का.
दरअसल, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास कई वीरगाथाओं से भरा है, लेकिन कुछ ऐसी घटनाएं भी हैं जिनके पन्नों पर स्याही की जगह खून के धब्बे दिखाई देते हैं. आज से 104 साल पहले, 20 अगस्त 1921 को, केरल के मालाबार में एक ऐसा ही अध्याय लिखा गया था, जिसे मोपला विद्रोह के नाम से जाना जाता है.
नेक मकसद, काला अध्याय
इस कहानी की शुरुआत होती है अन्याय के खिलाफ उठी एक आवाज से. यह विद्रोह ब्रिटिश राज और ज़मींदारों की क्रूरता के विरुद्ध शुरू हुआ था. किसान, जिन्हें मोपला या मप्पिला कहा जाता था और जो मुख्य रूप से मुस्लिम थे, भारी करों और शोषण से त्रस्त थे. उन्हें खिलाफत आंदोलन से भी प्रेरणा मिली, जिसका उद्देश्य तुर्की के खलीफा का समर्थन करना था.
लेकिन, कुछ ही समय बाद, यह संघर्ष अपने रास्ते से भटक गया. जिस आग को अन्याय के खिलाफ जलाया गया था, वह सांप्रदायिक नफरत की ज्वाला में बदल गई. इस विद्रोह ने एक ऐसा भयावह रूप ले लिया, जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी. यह विद्रोह देखते ही देखते एक भयानक नरसंहार में तब्दील हो गया.

जब हर तरफ खून और लाशों के ढेर थे
हिंसा की यह कहानी सबसे पहले पुलिस थानों पर हमलों और उन्हें जलाने से शुरू हुई. धीरे-धीरे आग बढ़ती गई और लोगों को ज़िंदा जलाने, लूटपाट और निर्दोषों की हत्या तक पहुंच गई. जिधर देखो, उधर खून से सनी ज़मीन और लाशों के ढेर ही दिखाई देते थे. इस हिंसा में धार्मिक स्थलों को भी नहीं बख्शा गया. डॉ बीआर अंबेडकर ने अपनी किताब 'पाकिस्तान और द पार्टिशन ऑफ इंडिया' में इस नरसंहार की क्रूरता और सांप्रदायिक रूप का ज़िक्र किया है. उन्होंने लिखा है कि इस घटना ने पूरे दक्षिण भारत में हिंदुओं के मन में भय और आक्रोश भर दिया था.
कुछ नेताओं ने दिया इसे धार्मिक रंग
इस विद्रोह को कुछ लोग किसान विद्रोह कहते हैं, तो कुछ इसे मप्पिला दंगा कहते हैं. सी गोपालन नायर ने अपनी किताब 'द मोपला रिबेलियन' में इस विद्रोह के पीछे के कारणों को विस्तार से समझाया है. उन्होंने बताया कि वरियामकुनाथ कुंजाहमद हाजी जैसे तीन प्रमुख नेताओं ने इस आंदोलन को एक धार्मिक रंग दिया. कुंजाहमद हाजी एक कट्टर धार्मिक परिवार से थे और उन्होंने इस विद्रोह में एक अहम भूमिका निभाई.
शुरुआती दौर में इस विद्रोह को महात्मा गांधी और अन्य राष्ट्रीय नेताओं का समर्थन मिला, क्योंकि इसका उद्देश्य ब्रिटिश शासन के खिलाफ था. लेकिन, जब इसकी दिशा बदली और यह सांप्रदायिक हिंसा में बदल गया, तब इन नेताओं ने भी इससे दूरी बना ली.
एक विद्रोह जिसने रिश्ते तार-तार किए
1921 के अंत तक, अंग्रेजों ने इस विद्रोह को पूरी तरह कुचल दिया, लेकिन तब तक बहुत कुछ तबाह हो चुका था. मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, इस हिंसा में 10,000 से ज़्यादा हिंदुओं को मार दिया गया. उनके घर और मंदिर लूटे गए और जलाए गए. महिलाओं के साथ दुष्कर्म और अन्य अत्याचारों की घटनाएं भी हुईं.
मोपला विद्रोह ने मालाबार क्षेत्र में हिंदू और मुसलमानों के बीच के सदियों पुराने रिश्तों को तोड़ दिया. इस घटना ने सांप्रदायिक तनाव को इतना बढ़ा दिया कि कुछ इतिहासकार मानते हैं कि इसने बाद में भारत के विभाजन की मांग को भी हवा दी. यह विद्रोह हमें याद दिलाता है कि जब कोई भी आंदोलन अपने मूल सिद्धांतों से भटकता है, तो उसके परिणाम कितने भयावह हो सकते हैं.
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