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This Article is From Mar 11, 2015

प्रथम विश्वयुद्द के सौ साल और भारतीय सैनिकों का योगदान

"यदि मैं यहां मारा गया तो कौन मुझे याद करेगा"? ये बात सौ साल पहले लड़े गए प्रथम विश्व युद्ध में अंग्रेजों की ओर से हिस्सा लेने वाले एक सिपाही ने कही थी। उसी बात को ध्यान में रखकर पहली बार दिल्ली में उन सैनिकों के साहस और बलिदान को याद किया गया।

पता नहीं इस बात की कितने लोगों को जानकारी होगी कि आजादी के बाद लड़ी गई सारी लड़ाइयों में इतने सैनिक नहीं मारे गए थे, जितने प्रथम विश्व युद्ध में शहीद हुए थे।
          
प्रथम विश्व युद्ध को पूरे सौ साल बीत गए। इस लड़ाई में देश के सैनिकों के बलिदान को याद करने के लिए सेना ने दिल्ली के मॉनेकशा सेंटर में एक प्रदर्शनी लगाई है। इसमें ठीक 1914 जैसे ही हालात पैदा किए गए हैं। चाहे बात सैनिकों के कपड़ों की हो, हथियारों की, घुड़सवारों की या फिर सैन्य तौर-तरीक़ों की...यहां तक की वैसी ही खंदक तैयार की गई है, जिनमें बैठकर जवान दुश्मन से मोर्चा लेते थे। यहां आने पर ऐसा लगता है जैसे ज़िंदगी पूरे सौ साल पीछे घूम गई हो।



सौ साल पहले हुई इस लड़ाई में अंग्रेज़ों के लिए लड़ा हर छठा सैनिक भारतीय था। इस जंग में करीब 14 लाख भारतीय सैनिकों ने हिस्सा लिया। कुल चौहत्तर हज़ार सैनिकों ने अपनी जान गंवाई वहीं सड़सठ हज़ार सैनिक घायल हुए। अपंग या गंभीर रूप से घायल होने वाले सैनिकों की संख्या का तो कोई अंदाज़ा ही नहीं है।

तभी तो सेना प्रमुख जनरल दलबीर सिंह ने कहा कि यह प्रदर्शनी हमने उन सैनिकों के लिए लगाई है, जो सोचते थे कि हम तो रहे या ना रहे, लेकिन हमारे बलिदान को कौन याद करेगा?

भारतीय सेना ने अंग्रेज़ों के लिए 1914 से लेकर 1918 तक कुल 13 लड़ाइयां लड़ीं, जिनमें ग्यारह भारतीय सैनिकों को ब्रिटेन का सर्वोच्च सैन्य सम्मान विक्टोरिया क्रॉस मिला, जबकि बहादुरी के कुल 13 हज़ार तमगे मिले। बहुत से लोगों को यह शायद ही पता हो कि इंडिया गेट का निर्माण भारतीय सेना के उन शहीदों की याद में करवाया गया, जो प्रथम विश्व युद्ध में फ्रांस से लेकर पूर्वी अफ्रीका तक लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। इस स्मारक का निर्माण अंग्रेजों ने ही 1931 में करवाया था। इस युद्ध में भारतीय सैनिकों ने एक बहु-भाषी, बहु-प्रजातीय निष्ठावान पराजय के भय के बगैर फर्ज को अंजाम दिया, जो सच्चे भारतीय मूल्यों का प्रर्दशन था।



वैसे अगर कोई भी देश या सभ्यता ज़माने की दौड़ में अव्वल रहना चाहती है तो उसे अपने अतीत को ध्यान में रख कर सबक ज़रूर सीखने चाहिए। नई पीढ़ी को देश के सैन्य इतिहास से रूबरू कराने वाली यह प्रदर्शनी काबिले तारीफ़ है।

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