विज्ञापन

दीपावली: बम पटाखों से कहीं बड़ा एक भाव

हिमांशु जोशी
  • देश,
  • Updated:
    अक्टूबर 20, 2025 17:41 pm IST
    • Published On अक्टूबर 20, 2025 17:38 pm IST
    • Last Updated On अक्टूबर 20, 2025 17:41 pm IST
दीपावली: बम पटाखों से कहीं बड़ा एक भाव

हर साल दीपावली आते ही वही बहस शुरू हो जाती है. पटाखे चलें या न चलें? सोशल मीडिया पर दो खेमे बन जाते हैं. एक कहता है, परंपरा बचाओ, दूसरा कहता है, प्रदूषण रोकना ज़रूरी है? 'एयर वॉयस ग्लोबल' भारत में वायु गुणवत्ता और प्रदूषण पर अध्ययन करने वाला एक पर्यावरण निगरानी संगठन है, उसके अनुसार, साल 2024 में  दिवाली की रात देश के 14 राज्यों में वायु प्रदूषण का स्तर सामान्य से 875 प्रतिशत तक बढ़ गया था, खासकर दिल्ली, उत्तर प्रदेश और हरियाणा में PM2.5 और PM10 का स्तर राष्ट्रीय मानक से कई गुना अधिक पाया गया. यह अध्ययन 180 निगरानी स्टेशनों के डेटा पर आधारित था और रिपोर्ट में चेतावनी दी गई कि पटाखों से निकलने वाले धातु जैसे अल्युमिनियम, मैंगनीज और कैडमियम स्वास्थ्य के लिए लंबे समय तक जोखिम बनाए रख सकते हैं, जबकि 24 घंटे के भीतर वायु गुणवत्ता सामान्य हो जाती है.

त्योहार के रंग हजार, हमारी दिवाली ऐसी भी

यह आंकड़ा बताता है कि चमक दमक के इस पर्व में धुआं और शोर लगातार बढ़ रहा है, जबकि दीपावली की असली आत्मा कहीं ज़्यादा शांत और गहरी रही है. उत्तराखंड के तराई क्षेत्र में रहने वाली थारू जनजाति दीपावली को अनोखे ढंग से मनाती है. श्रीपुर बिछवा, खटीमा के रहने वाले जीवन सिंह राणा बताते हैं कि उनके लिए यह दिन खुशी नहीं, बल्कि स्मरण और शोक का समय है. अगर वर्ष में किसी परिवारजन की मृत्यु हो जाए, तो दीपावली की रात उसका पुतला बनाकर उसकी स्मृति में रखा जाता है. परिवारजन उसे कपड़े पहनाते हैं, गद्दा-बिस्तर लगाते हैं और पूरी रात उसके पास बैठकर कीर्तन करते हैं. सुबह उस पुतले को नदी में प्रवाहित कर दिया जाता है. जीवन कहते हैं, वक्त के साथ अब यह सब खत्म हो रहा है, नई पीढ़ी देखादेखी में बम पटाखों की तरफ आकर्षित हो रही है.

संस्कृति की जड़ों से जुड़ा पर्व

उत्तराखंड के पहाड़ी समाज में दीपावली सदियों से अन्य त्योहारों की तरह प्रकृति और पशुओं के प्रति आभार का अवसर रही है. पिथौरागढ़ के आचार्य दामोदर भट्ट कहते हैं यहां कई गांवों में दीपावली के आसपास दो से तीन हफ्तों तक दीपक जलाए जाते हैं. पर्व के दौरान होने वाली गोवर्धन पूजा मनुष्य और प्रकृति के निकट संबंधों का त्योहार है, जिसमें गायों की पूजा की जाती है. वे आगे कहते हैं पहाड़ों में भी मैदानी इलाकों की देखदेखी आतिशबाज़ी का चलन शुरू हो गया है. उनकी बात उस सांस्कृतिक बदलाव को दर्शाती है जो आधुनिकता और बाज़ार के असर से पहाड़ों तक पहुंचा है.

इतिहास क्या कहता है

उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय के इतिहास प्राध्यापक गिरिजा पांडे कहते हैं बारूद भारत में मुगलों के साथ आया. आतिशबाज़ी का दीपावली से सीधा संबंध कभी नहीं रहा, समय के साथ यह चलन धीरे-धीरे लोगों के बीच अपनी पकड़ बनाता गया.

दीपावली की मूल भावना प्रकाश और आत्मबोध की रही है, जो समय के साथ ध्वनि और प्रदर्शन की संस्कृति में बदल गई.

(अस्वीकरण: इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी हैं, उससे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.)

NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं

फॉलो करे:
Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com